प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की जरूरत ही क्यों पड़ी?

गरीब कल्याण अन्न योजना: सरकार दावा करती रही है कि देश में गरीबी कम हो रही है तो फिर 80 करोड़ गरीब कहां से आए
साभार : विक्रम नायक (एकता परिषद)
साभार : विक्रम नायक (एकता परिषद)
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आप इसे विरोधाभास बिलकुल मत मानिए कि - भारत सरकार की तमाम रिपोर्टों में यदि गरीबी कम हो रही है तो गरीबों के नाम पर 'कल्याण योजनाओं' का विस्तार क्यों हो रहा है? क्या गरीबी, मात्र अन्न के अभाव का परिणाम है? क्या मौज़ूदा गरीबी, बहुसंख्यकों की संसाधनहीनता का भी प्रतीक नहीं हैऔर फिर गरीबी और आत्मनिर्भरता के बीच शब्दों और अर्थों के क्या संबंध हैं? यदि आप सचमुच उत्तर तलाशना चाहते हैं तो शिद्दत के साथ आज से लगभग 110 बरस पूर्व  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिखे 'हिन्द स्वराज' को अवश्य पढ़िए। और फिर पूरी निर्भीकता के साथ समाज और सरकार को सवालों के समानांतर खड़े करने का नैतिक सामर्थ्य जुटाइए।

महात्मा गांधी सहित दुनिया के कई क्रांतिकारी मानते रहे हैं कि गरीबी मूलतः कोई पृथक समस्या नहीं, बल्कि विकास के अनेक सुलझे-उलझे समीकरणों और समस्याओं का समग्र परिणाम है। इसके संबंध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाज की जीवनचर्या और उपभोग की सीमाओं तथा राज्य की नीतियों और सरकार के  दिशा-दशा के निर्धारण से हमेशा जुड़े रहे हैं। इसीलिये गरीबी की उत्पत्ति और उन्मूलन दोनों ही समाज और सरकार के समन्वित ढांचों से ही संभव है। 

समाज का आचरण भी राज्य की नीतियों और दिशाओं का निर्धारण करता है। विकास के विकल्प और प्रकल्प,  वास्तव में बहुसंख्यक समाज (भारत के संदर्भ में मध्यम वर्ग) के लिए सुविधाएं जुटाने के तर्कों पर खड़े किये जाते रहे हैं। उत्खनन, औद्योगीकरण, अनियंत्रित शहरीकरण और आधारभूत संरचनाओं का विस्तार आदि के लिए विकास का अर्थ उस समाज को जाने-अनजाने  विपन्न बनाना भी है, जिनकी निर्भरता, प्राकृतिक संसाधनों अर्थात जल जंगल और जमीन पर रही है।

यदि ऐसा नहीं होता तो प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न जिले ही सबसे अधिक विपन्न क्यों होतेआज हमें इसके लिए किसी नए शोध की जरूरत नहीं। भारत के पचास (तथाकथित) गरीबतम जिलों का नया इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र स्वयं सब कुछ बयां कर रहा है।  यह और बात है कि समाज और सरकार इसके वास्तविकताओं को स्वीकार करे करे।  

उड़ीसा का केंदुझर हो या झारखण्ड का दुमका अथवा मध्यप्रदेश का बैतूल या छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला हो जो जिले, अकूत प्राकृतिक सम्पन्नता के लिए जाने जाते रहे, वही आज विपन्नता के लगभग स्थायी केंद्रबिंदु बने हुए हैं। गौरतलब है कि यही जिले अपने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध संगठित अधिग्रहण के एवज में सरकार को सबसे अधिक राजस्व देते हैं।

मजेदार सत्य यह है कि संसाधनों से कमाए हुए राजस्व से ही वहां उन्नति और वृद्धि  के नाम पर सरकारी मुलाजिम नियुक्त किए जाते हैं, जो विकास नामक मॉडल के लिए फिर सड़कों और रेलवे की योजनाएं बनाते हैं। इन सब योजनाओं और प्रयासों का तार्किक परिणाम है - प्राकृतिक संसाधनों के संगठित अधिग्रहण के लिए पगडंडियों और राजमार्गों  की भूलभुलैया का मायाजाल बिछाना। इन  विरोधाभासों पर प्रश्नचिन्ह खड़े करने को  क़ानूनन पहले ही विकास विरोधी माना जा चुका है।

अब यदि केंदुझर के जानकी मांझी, दुमका के बाबूलाल  महतो, बैतूल के बलराम गोंड  और कोरबा की सूरजो  बाई को ग़रीबी कल्याण योजना के मुआवज़े में कुछ अनाज मिल भी जाये तो क्या उसके बलबूते उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव जाएगा? बस्तर के मनीष कुंजाम कहते हैं कि अब तक घोषित और पोषित नीतियाँ तो वास्तव में गरीबी के कृत्रिम उपचार की तरह है। 

आप उन्हें संसाधनहीन करके इतना भी निरीह मत बना दीजिए कि वो मुट्ठीभर अनाज के खातिर अपना स्वाभिमान भी भूल जाएं। अब तक तो व्यवस्था केंद्रित हरेक नीतियां और उनकी नियतियाँ भ्रष्टाचार के अमरबेल का ही माध्यम साबित हुई हैं। और फिर यदि गरीबी उन्मूलन की नीतियों और नियतियों के लाभार्थी स्वयं व्यवस्था तंत्र में बैठे हुए लोग ही रहे हैं, तो जाहिर तौर पर तथाकथित विकास की इस व्यवस्था को बनाए रखने की जिद हम आसानी से समझ भी/ही सकते हैं।

उड़ीसा राज्य सरकार के अनुमान (2018) के मुताबिक़ केंदुझर जिला, हर बरस लुटते हुये खनिज संसाधनों के एवज में लगभग 1600 करोड़ रुपए का राजस्व उड़ीसा सरकार को देता है। विगत 20 बरस में यह राशि अनुमानतः 30000 करोड़ रुपए होती है। इस राजस्व को गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रहे परिवारों के मध्य यदि समान रूप से बांटा जाता तो भी क्या मुआवजा अथवा अस्थायी रोजगार, उनके अधिग्रहित हो चुके जमीन और जंगल से ज्यादा सम्मानजनक और टिकाऊ होते

मुआवजे के इस सुलझे-उलझे समीकरणों का यथार्थ है कि, केंदुझर से अर्जित राजस्व का उपयोग लोगों के विकास के साधन नहीं बल्कि उनके ही अपने जीविकोपार्जन के स्थायी संसाधनों के अधिग्रहण के लिये हुआ। जिसका परिणाम हुआ कि केंदुझर, वर्ष 2001 में देश के ग़रीबतम जिलों  में दर्ज़ था और आज दो दशक के  बाद  भी उसी पायदान पर भौंचक खड़े रहने के लिये अभिशप्त है।

जाहिर है जानकी मांझी और उसके जैसे हजारों विपन्न परिवारों के लिए गरीब कल्याण योजना, इस बरस का मानसून है। संभव है, अगले बरस ऐसी ही किसी योजना का कोई नया नामकरण हो जाए। एक चिरस्थायी गरीबी रेखा की सार्वजनिक सूची, मालूम नहीं उसकी विपन्नता का परिचय पत्र है अथवा समग्र व्यवस्था की नाक़ाबिलियत की जिंदा मिसाल है।

उन लगभग 80 करोड़ परिवारों को जिन्हें गरीब कल्याण योजना का पात्र माना गया अथवा माना जाएगा के लिए मिलने वाली राहत सामग्री निःसंदेह उपयोगी तो है - लेकिन उन समूचे सवालों का जवाब नहीं, जिसकी वजह से उसे गरीब साबित होना पड़ा है।

अच्छा होता अन्नदान के इस राजनैतिक रिवाज की बजाए सरकार और समाज उसे अन्न उत्पादन का बेहतरीन साधन-संसाधन सुनिश्चित करतीं। यह तात्कालिक जरूरत को पूरा करने में भले ही विफल रहती, किन्तु कम से कम उन करोड़ों लोगों को स्वाभिमानपूर्वक अपना भाग्य विधाता बनने का अवसर तो जरूर देती। संभवतः करोड़ों सीमान्त किसानों के लिए उत्पादन व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए, सरकार विकास के पथ पर बिना किसी बैसाखी के चलने वाले स्वाभिमानी समाज के सुरक्षित भविष्य का मार्ग ही गढ़ती। लेकिन जिस व्यवस्था में महात्मा गांधी के दूरगामी स्वावलम्बी समाज के उद्द्येश्य के बजाए, गरीबी के राजनैतिक नारे के साथ विकास योजनाओं के अल्पकालिक लाभार्थी तैयार करना हो, वहां ये तर्क विगत 70 बरसों से अब तक तो बेमानी ही साबित होते रहे हैं।

आज ज़रूरत गरीबी उन्मूलन के एक समग्र दृष्टि और उसके राजनैतिक स्वीकृति की है। गरीब कल्याण योजना उस समग्र दृष्टि और राजनैतिक योजना का एक पक्ष तो हो सकता हैं, लेकिन बहुसंख्यक वंचितों के जल जंगल और जमीन के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित किये बिना कोई भी आधी-पूरी नीतियां और उसकी नियतियां कभी आधारभूत परिवर्तन ला पायेगी इसमें संशय था और रहेगा।

आजादी के स्वर्ण जयंती वर्ष आते-आते यदि समाज और सरकार उन करोड़ों लोगों को उन पर बेताल की तरह  लादी गयी वंचना से मुक्ति का मार्ग गढ़ने का कोई अंतिम अवसर देती है तो यह इतिहास बनेगा। वरना महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज और उसमें प्रतिपादित भारत निर्माण के मार्ग को भूल जाने वाले समाज के रूप में कदाचित हम हमेशा के लिये अभिशप्त हो जायेंगे। हम आज ऐसे अनगिनत लंबित निर्णयों के निर्णायक मुक़ाम पर खड़े हैं।     

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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