मतदान बिना मतदाता: लोकसभा चुनाव में राजनीतिक एजेंडे से गायब हैं प्रवासी
केंद्र की नई सरकार चुनने के लिए मतदान जारी हो चुका है। जून, 2024 तक सात चरणों में संपन्न होने वाले इस लोकसभा चुनाव में क्या इस बार असंगठित क्षेत्र के प्रवासी श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित होगी?
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में प्रवासी श्रमिकों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शेखर दत्ता का मानना है कि करीब 40 फीसदी श्रमिक मतदान के समय आ जाएंगे। खासतौर से ईद-उल-फितर के त्यौहार में आए श्रमिक मतदान करने के बाद ही वापस काम के लिए जाएंगे।
पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (एआईटीएमसी) के बीच करीब 22 लाख से भी अधिक प्रवासी श्रमिक मतदाताओं को अपनी तरफ रिझाने के लिए कड़ा मुकाबला है। 2019 लोकसभा में बीजेपी ने पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीट में 18 लोकसभा सीट पर जीत हासिल की थी और 17 लाख वोट हासिल किए थे जो कि टीएमसी की तुलना में महज 2.6 फीसदी कम था।
इस चुनाव में बीजेपी नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) के जरिए दलित प्रवासी आबादी मतुआ समुदाय के मतों को साधने में कामयाब रही थी। हालांकि, दो साल बाद ही विधानसभा चुनाव में एआईटीएमसी ने न सिर्फ बड़ी जीत हासिल की बल्कि बीजेपी से 10 फीसदी अधिक वोट हासिल किया। विशेषज्ञ मानते हैं कि 2019 में बनाए गए सीएए ने एआईटीएमसी के प्रति सहानुभूति पैदा कर दी और बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों का मतदान उसे हासिल हुआ।
पलायन पर काम करने वाले शोध समूह महानिर्बान कलकत्ता रिसर्च ग्रुप के शोधकर्ता रजत कांति अपना अनुभव साझा करते हैं कि 2021 में कुछ जिलों में उन्होंने एक अध्ययन किया था, जिसमें पाया गया कि अधिकांश की संख्या में प्रवासी श्रमिकों ने बीजेपी के बजाए तृणमूल को वोट दिया। अधिकांश प्रवासी श्रमिकों को डर था कि बीजेपी की जीत के बाद सीएए और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लागू हो जाएगा, जिससे उनकी नागरिकता संकट में पड़ जाएगी।
पश्चिम बंगाल के प्रवासी श्रमिक मानते हैं कि सीएए और एनआरसी उन्हें राज्य में मिलने वाली सामाजिक कल्याण वाली योजनाओं से वंचित कर देगी, इसलिए वह बीजेपी को दूर करने के लिए मतदान करना चाहते हैं। कोरोनाकाल में केंद्र की सत्ता में बैठी बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस वाली राज्य सरकार के बीच प्रवासी श्रमिकों का पलायन एक बड़ा मुद्दा बना था।
कोरोनाकाल के घटनाक्रम के बाद यह पहला लोकसभा चुनाव है। इस बार पश्चिम बंगाल में सीएए एक ऐसा मुद्दा है कि जिसमें न सिर्फ उन्हें सरकारी योजनाओं के तहत मतदान के लिए बुलाने के प्रयास हैं बल्कि सीएए के चलते मुस्लिम और गैर मुस्लिम श्रमिक स्वयं अपना पैसा और वक्त लगाकर मतदान का हिस्सा बनना चाहते हैं। कई वर्षों से वोटर आईडी, आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसी पहचान रखने वाले प्रवासी श्रमिक मतदाताओं को भय है कि यदि वह सीएए के तहत नागरिकता संशोधन का आवेदन करते हैं तो उन्हें दूसरे देश का मान लिया जाएगा।
ऐसे में भय के कारण गैर मुस्लिम प्रवासी श्रमिक मतदाता भी आवेदन नहीं कर रहे हैं। वहीं, मुस्लिम प्रवासी श्रमिक मतदाताओं को लगता है कि एनआरसी और सीएए जैसे कानून उनके खिलाफ है, इसलिए वह अपने मत का इस्तेमाल करना चाहते हैं। हालांकि, यह तस्वीर अन्य महत्वपूर्ण राज्यों में नहीं है।
राजनीतिक एजेंडे से गायब प्रवासी
कहते हैं कि केंद्र की सत्ता का गलियारा उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। यूपी देश में सर्वाधिक 80 लोकसभा सीट और 8 करोड़ से अधिक असंगठित मजदूरों वाला राज्य है। हालांकि यहां श्रमिक और प्रवासी श्रमिक राजनीतिक एजेंडे से लगभग गायब हैं। कोरोनाकाल में जब कुल एक करोड़ से भी अधिक प्रवासी श्रमिक महानगरों से अपने गांव-घर को लौटे थे तब अकेले 32 लाख से भी अधिक प्रवासी श्रमिक यूपी में ही पहुंचे।
हालांकि, गैर आधिकारिक तौर पर प्रवासी श्रमिकों की संख्या 40 लाख तक बताई गई थी। कोरोनाकाल के घटनाक्रम के बाद यह माना गया था कि प्रवासी श्रमिकों के पलायन का मुद्दा सत्ता में मौजूद सत्तासीन पार्टी बीजेपी को नुकसान पहुंचाएगा। हालांकि, 2019 में बीजेपी ने 80 में 62 सीटें जीती थीं, और तीन साल बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी ने 41.29 फीसदी वोट शेयर के साथ कुल 403 विधानसभा सीट में 255 सीटों पर बड़ी जीत हासिल की थी जबकि दूसरे नंबर पर 111 सीटों के साथ समाजवादी पार्टी रही।
इस बार लोकसभा चुनाव में प्रमुख राजनीतिक पार्टियों जैसे बीजेपी और कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्रों में असंगठित श्रमिकों की बात जरूर की है लेकिन प्रवासी श्रमिकों के गहन मुद्दे को छुआ तक नहीं है। लोकसभा 2024 चुनाव के सातों चरण ऐसे वक्त में पड़ रहे हैं जब प्रवासी श्रमिकों के लिए सबसे ज्यादा काम और कमाई का वक्त होता है। श्रावस्ती जिले में 4,500 आबादी वाले थारू जनजाति बहुल मोतीपुर कलां गांव भी सूना होने लगा है।
35 वर्षीय रामसेवक अपने साथ सात श्रमिकों को लेकर उत्तराखंड के पीपलकोटी में एनटीपीसी के पावर प्लांट पर काम करने के लिए निकल चुके हैं। रामसेवक ने बताया कि “ठेकेदार ने एक व्यक्ति के हिसाब से 2,000 रुपए का किराया खाते में भेज दिया है। अब गांव में हमारी वापसी बरसात के दिनों में धान रोपाई के दौरान होगी।
लोकसभा चुनाव में शामिल होना बहुत मुश्किल होगा।” गांव के प्रधान राम सुंदर चौधरी चुनावी चर्चा करते हैं “मोतीपुर कलां में 2,100 के करीब मतदाता हैं लेकिन मतदान 55 से 60 फीसदी तक होता है। खासतौर से प्रधान के चुनाव में जीत-हार के लिए एक-एक वोट बहुत कीमती हो जाता है, मैं खुद एक बार 13 वोट से हार गया था।
प्रधानी के चुनाव में श्रमिकों को अपने खर्चे पर गांव बुलवाया जाता है ताकि अच्छा मतदान हो। हालांकि लोकसभा या विधानसभा चुनाव में यह संभव नहीं है। आर्थिक लाभ न मिलने या फिर आने की सुविधा न होने के कारणों से प्रवासी श्रमिक इसमें दिलचस्पी कम लेते हैं।”
मोतीपुर कलां गांव के पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य विजय कुमार सोनी गांव में चुनावी मतदान का अपना अनुभव साझा करते हैं, “यहां से दिल्ली, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, भूटान, उत्तराखंड और हिमाचल तक लोग काम करने जाते हैं। उनका खेती के लिए गांव में आना-जाना लगा रहता है। यदि कोई त्योहार या फसल कटाई का समय होता तो वे गांव में होते और मतदान में भागीदारी करते।
वहीं, गोंडा जिले में रेलवे स्टेशन पर दूसरे प्रदेश जाने के लिए श्रमिकों की लाइने लगने लगी हैं। प्रवासी श्रमिक वापस काम के लिए दिल्ली-मुंबई, हरियाणा, राजस्थान की तरफ जा रहे हैं। कम मतदान वाले जिलों में शामिल गोंडा जिला में खासी लोकप्रिय कैसरंगज लोकसभा सीट पर 2019 के आम चुनाव में मतदान 54.39 फीसदी हुआ था।
इस लोकसभा सीट के करनैलगंज स्थित छिरास शुकुलपुरवा गांव के शिवम शुक्ला का कहना है कि गोंडा जिला का रेलवे स्टेशन एक जंक्शन हैं जहां से श्रमिकों को दिल्ली, मुंबई, लखनऊ आदि शहरों में आने-जाने के लिए सुविधा होती है। इसलिए जिले में अच्छा खासा पलायन होता है।
गांव में छुट्टी मनाने आए हरीशचंद्र का कहना है कि आखिरी बार 2014 लोकसभा चुनाव में मतदान किया था। इसके बाद से कभी नहीं किया। वह पंजाब, राजस्थान और गुजरात जैसी जगहों पर काम करने के लिए जाते हैं। हरीशचंद्र का कहना है कि ठेकेदार श्रमिकों की मांग करते हैं। ऐसे में गांव से जो भी श्रमिक मिल जाते हैं वह उन्हें लेकर 3 से 4 महीने के लिए काम पर चले जाते हैं। अप्रैल में काम के लिए निकल जाएंगे इस बीच लोकसभा चुनाव के लिए आना मुश्किल होगा।
गांव के एक और श्रमिक नरेंद्र कुमार भी लोकसभा चुनाव में अपनी भागीदारी न कर पाने की असमर्थता जाहिर करते हैं। इसी तरह सीतापुर, बलरामपुर और लखीमपुर जैसे जिलों में भी प्रवासी श्रमिकों ने लोकसभा चुनाव में शामिल न हो पाने की मजबूरी जाहिर की। गुजरात के भरूच में अहमदाबाद से मुंबई की रेल लाइन का निर्माण कार्य में श्रम करने वाले बहराइच के मुकेरिया गांव के बेचेलाल जायसवाल अपना अनुभव साझा करते हैं “सारे काम अब ठेके पर होते हैं।
ठेकेदार जैसा कहता है वैसा ही श्रमिकों को करना पड़ता है। श्रमिकों का शोषण किया जाता है क्योंकि हमारा कोई संगठन नहीं है। कोई राजनीतिक पार्टी हम पर ध्यान नहीं देती है।” वहीं, बहराइच के प्रवासी श्रमिक रमेश गौतम कहते हैं कि मार्च से जून का महीना उनकी कमाई के लिए काफी अहम होता है, इसके बाद बरसात शुरू हो जाती है और उस दौरान खेतों में भी काम करना होता है। यदि मतदान का समय जून-जुलाई के बाद होता तो वह भागीदारी जरूर करते।
पोस्टकार्ड से मतदान की अपील
2019 लोकसभा चुनाव में करीब 30 करोड़ लोगों ने अपने मत का इस्तेमाल नहीं किया था। 11 राज्यों जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, तेलंगाना, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर और झारखंड शामिल थे इनका वोटर टर्नआउट राष्ट्रीय औसत 67.40 फीसदी से कम था। उत्तर प्रदेश की 40 लोकसभा सीट और बिहार की 22 लोकसभा सीट ऐसी थी जिसमें मतदान बेहद कम हुए थे।
मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने हाल ही में कहा कि उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां सर्वाधिक मतदाता है हालांकि वहां का मतदान प्रतिशत काफी कम है। इसलिए टर्नआउट इंप्लीमेंटेशन प्लान (टीआईपी) के तहत उन्हें लक्ष्य किया जाएगा। लोकसभा 2019 में जहां मतदान 55 फीसदी से कम हुआ उन्हीं जिलों में प्रवासी श्रमिकों की संख्या काफी ज्यादा है।
खासतौर से तराई और पूर्वांचल के जिले इसमें प्रमुख हैं। 2019, लोकसभा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तराई और पूर्वांचल के अधिकांश जिलों के साथ गाजियाबाद (55 फीसदी) को छोड़कर अन्य सभी जिलों की लोकसभा सीट में वोटिंग प्रतिशत 60 से ऊपर था। इस बार यूपी के जिलों में प्रवासी श्रमिकों को मतदान के लिए बुलाने के लिए जिलास्तर पर चुनाव आयोग के अधिकारियों ने पोस्टकार्ड के जरिए भी प्रवासी श्रमिकों को संपर्क करने की रणनीति बनाई गई है।
हालांकि, ज्यादातर प्रवासी श्रमिक हर पांच से छह महीनों में अपना ठिकाना बदल देते हैं। ऐसे में यह काम कैसे किया जाएगा यह संशय भरा है। 24 मार्च, 2020 को देश में कोरोना के कारण लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के बाद सरकार ने संसद में दिए जवाब में कहा था, “प्रवासी श्रमिकों का आंकड़ा रखना सुविधाजनक नहीं है क्योंकि वह रोजगार के लिए बार-बार जगह बदलते रहते हैं।”
मौलिक अधिकार में आर्थिक बाधा
उत्तर प्रदेश की तरह ही बिहार और उड़ीसा में भी प्रवासी श्रमिकों का मुद्दा लोकसभा चुनाव में नदारद है। बिहार में 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के साथ गठबंधन में 40 सीटों में 39 सीट पर जीत दर्ज की थी। राज्य में प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) एक भी सीट जीतने में नाकामयाब रही थी। हालांकि, 2020 विधानसभा चुनाव में कुल 243 सदस्यों में आरजेडी 75 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। बीजेपी को 74 और सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व करने वाले नीतीश कुमार को 43 सीटें मिली थीं।
इन चुनावों में बिहार में रोजगार का सवाल जरूर उठाया गया लेकिन प्रवासी श्रमिकों के मामले पर चुप्पी बनी रही। बिहार राज्य चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, राज्य में हजारों प्रवासी श्रमिकों की वापसी के कारण अक्टूबर-नवंबर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत में वृद्धि हुई, खासकर उन जिलों में जहां लौटने वाले प्रवासियों का प्रतिशत अधिक था। क्योंकि प्रवासी श्रमिक सामान्य परिस्थितियों में मतदान के लिए उपस्थित नहीं होते।बिहार के प्रवासी श्रमिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए खासे उत्सुक हैं, लेकिन आर्थिक कठिनाई की कठोर हकीकत उन्हें अपने इस मौलिक अधिकार से दूर कर रही हैं।
राज्य श्रम विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि कोशी और सीमांचल क्षेत्र जिसमें कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, मधेपुरा, सहरसा और सुपौल सहित लगभग एक दर्जन जिले शामिल हैं। इन जिलों में गरीबी की उच्च दर के कारण श्रमिक बाहर काम करने जाते हैं। बिहार के प्रवासी श्रमिक संजय झा अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर उत्साहित हैं और कहते हैं कि “मैं वास्तव में वोट देने के लिए उत्सुक हूं; यह मेरा मौलिक अधिकार है। लेकिन वित्तीय संकट के कारण मुझे संदेह है कि मैं ऐसा कर पाऊंगा।” वह कहते हैं कि प्रवासी श्रमिकों के लिए विशेष व्यवस्था करनी चाहिए या वोट डालने के लिए मुफ्त यात्रा कूपन देना चाहिए।
नहीं मिल पाएगी छुट्टी
यूपी, बिहार की तरह उड़ीसा में भी प्रवासी श्रमिकों का मतदान के लिए अपने गांव वापस आना एक चुनौती है। कोरोनाकाल में राज्य के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े डाटा ऑपरेटर ने जिले में वापस आने वाले प्रवासी श्रमिकों का आंकड़ा जुटाया था। इन आंकड़ो के मुताबिक नुआपाड़ा जिले में करीब 50 फीसदी यानी 75,000 श्रमिक प्रवासी हैं जो देश के अलग-अलग हिस्सों में काम के लिए जाते हैं।
इनमें 63 हजार करीब मतदाता हैं और अधिकांश मतदान के लिए घर नहीं लौटेंगे। इन्हीं मतदाताओं को पंचायती चुनाव में बड़े उत्साह से बुलाया जाता है लेकिन लोकसभा चुनाव में इनकी भागीदारी के लिए उत्साह नहीं दिख रहा।
खरियार विधानसभा सीट में खुर्द सिकुअन गांव के मोहनलाल चिंदा आंध्र प्रदेश के ईंट-भट्ठे मे काम करते हैं। वह कहते हैं कि मैं मतदान के लिए अपने गांव लौटना चाहता हूं लेकिन यह संभव नहीं है क्योंकि मुझे यहां छुट्टी नहीं दी जाएगी।
इसके अलावा कम से कम 2,000 रुपए किराए के लिए होने चाहिए। मेरा नियोक्ता कभी इस बात के लिए छुट्टी नहीं देगा। कालाहांडी जिले के नरला ब्लॉक के अलीम गांव के बिपिन सुना घर वापस जाने के लिए पैसे खर्च करने को तैयार हैं। उनके गांव में मतदान के लिए एक बैठक भी की गई थी, जिसमें उन्हें बुलाए जाने की बात हुई थी। हालांकि पार्टी के किसी नेता ने उनसे संपर्क नहीं किया है।
बीजेपी के नेता हितेश बागरट्टी कहते हैं कि मौजूदा वोटिंग सिस्टम के कारण प्रवासी मजदूर अपने मतों का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। यदि कोई ऐसा प्रावधान होता जिससे वह अपनी जगह से ही मतदान करने में सक्षम होते तो जरूर वे अपने मतदान अधिकारों का इस्तेमाल करते। वह कहते हैं कि उन्होंने खुद से 21 श्रमिकों से संपर्क कर मतदान में बुलाने का प्रयास शुरू किया है।
उड़ीसा के बालांगीर जिले में भी प्रवासी श्रमिकों की अच्छी खासी तादाद है। प्रवासी श्रमिकों के मुद्दे पर काम करने वाले कांताबांजी शहर में अधिवक्ता बिष्णु शर्मा का कहना है कि हर साल 2 लाख से अधिक प्रवासी श्रमिक बालांगीर जिले के बाहर काम करने जाते हैं इनमें से 50 फीसदी मतदाता हैं। यह दुखद है कि वे लोकतंत्र के इस पर्व में शामिल नहीं हो पाएंगे।
शर्मा कहते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने यह मुद्दा उठाया था। इसके बाद बालांगीर जिलाधिकारी ने लेबर कांट्रेक्टर्स से अपील की थी कि वह श्रमिकों को मतदान के लिए भेजें। इसके परिणाम में करीब 7,000 श्रमिकों ने वापस आकर मतदान किया था। ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए।
2020 में कई नागरिक संगठनों ने चुनाव आयोग को ज्ञापन पत्र देकर यह मांग की थी कि प्रवासी श्रमिकों के लिए पोस्टल बैलेट की सुविधा उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इस मांग पत्र में यह बिंदु उकेरा गया था कि 2012 का एक अध्ययन यह बताता है कि सर्वे किए गए 78 फीसदी प्रवासी श्रमिकों के मतदाता पहचान पत्र में उनका पता उनके घर और गांव का ही है।
इसलिए वे मतदान सिर्फ अपने घरों या गांव में ही दे सकते हैं। यानी इसका अर्थ हुआ कि यदि कोई प्रवासी श्रमिक जो कि मतदाता भी है तो वह किसी दूसरे शहर में मतदान नहीं कर पाएगा।
कोरोनाकाल के दौरान प्रवासी श्रमिकों के जो आंकड़े जुटाए गए थे, उनका भी कोई अच्छा इस्तेमाल अब तक नहीं किया गया। न ही राज्यों के पास आंकड़ों की कोई साफ तस्वीर है।
देश में जब सर्वाधिक वोटर्स की हिस्सेदारी होगी तब इस लोकसभा चुनाव में अधिकांश प्रवासी श्रमिक मतदान से वंचित ही रहेंगे। इस बार भी केंद्रीय चुनाव आयोग की ओर से ऐसा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है जिससे प्रवासी श्रमिकों को लोकतंत्र में मतदान का मौलिक अधिकार हासिल हो सके।