गांधी-दर्शन के अनुशासित सिपाही थे विमल भाई

साठ साल के विमल भाई ने दिल्ली के एम्स में अंतिम सांस ली।
विमल भाई
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जब सारा देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा था, तभी हमने अपने देश के एक महान हीरो, जाने-माने पर्यावरणविद और समाज-सुधारक विमल भाई को खो दिया।

गांधी-दर्शन के अनुशासित सिपाही विमल भाई देश के पर्यावरण और सामाजिक आंदोलनों के मजबूत स्तंभ थे।

एक्टिविस्ट के अपने चार दशकों के सक्रिय जीवन में उन्होंने न केवल बड़े डेवलपमेंट प्रोजेक्टों के खिलाफ तमाम शक्तिशाली जन-आंदोलन खड़े किए बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों में सैकड़ों पर्यावरण आंदोलनों और संगठनों को तैयार किया।

उन्होंने हजारों एक्टिविस्टों को ट्रेनिंग दी। वह अपने पीछे देश में पर्यावरण कानूनों की एक लंबी परंपरा छोड़ गए हैं।

जनांदोलन के राष्ट्रीय संगठन यानी एनएपीएम के नेशनल कोआर्डिनेटर, नर्मदा बचाओ आंदोलन यानी एनबीए के सक्रिय सदस्य और उत्तराखंड स्थित ‘माटु जनसंगठन’ के समन्वयक थे।

साठ साल के विमल भाई ने दिल्ली के एम्स में अंतिम सांस ली। वह टीबी से पीड़ित थे और मौत से पहले उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट और विमल भाई के सबसे करीबी दोस्तों में से एक संजय पारिख ने कहा, “वह एक वास्तविक व्यक्ति थे जो पूरी तरह से लोगों और पर्यावरण की सेवा के लिए समर्पित थे।

पर्यावरण-न्यायशास्त्र में उनका योगदान अद्वितीय है। 90 के दशक की शुरुआत से टिहरी बांध मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के कार्यान्वयन के बाद से, लोगों को संगठित करने, विरोध प्रदर्शन आयोजित करने और संस्थानों और अधिकारियों को जवाबदेह बनवाने में उनका उल्लेखनीय योगदान था।’

उन्होंने आगे कहा कि यह विमल भाई ही थे, जिन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण की संस्थागत चिंताओं और कामकाज पर प्रकाश डाला, जो बाद में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जहां सरकार को एनजीटी अधिनियम लाने और देश के विभिन्न हिस्सों में एनजीटी के प्रभावी कामकाज के लिए बेंच तैयार करने के मजबूर होना पड़ा।

विमल भाई एक्टिविज्म की अपनी अनोखी शैली के लिए जाने जाते थे। वह बड़े बांधों से बुरी तरह प्रभावित उत्तराखंड के लोगों के लिए एक मजबूत आवाज थे। वह विष्णुप्रयाग, विष्णुगाढ़ पीपलकोटी, श्रीनगर बांध जैसे बड़े बांधों के पर्यावरण और वन मंजूरी को चुनौती देने वाले ज्यादातर मामलों में शामिल थे।

वही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने साल 2013 में उत्तराखंड की विनाशकारी बाढ़ के बाद बांध कंपनियों से मुआवजे के लिए कानूनी लड़ाई को संगठित करने और लड़ने के लिए ग्रामीणों को संगठित किया था।

ऐसे ही एक मामले में एनजीटी ने बांध कंपनी द्वारा कीचड़ के कुप्रबंधन के कारण नुकसान झेलने वाले बाढ़ पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए निर्देश दिया था। इसकी लड़ाई ‘श्रीनगर बंध आपदा संघर्ष समिति’ ने लड़ी थी।

खुद में एक संस्था जैसे विमल भाई का एक एक्टिविस्ट के तौर पर करियर 22 साल की उम्र में शुरू हुआ था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। वह हमेशा उदार कला में रुचि रखते थे। उनका रंगमंच और कविता के प्रति बहुत झुकाव था। लगभग 20 साल की आयु में, वह नई दिल्ली में गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा (संनिधि) में बीना हांडा से मिले, जिन्होंने उनका परिचय गांधीवादी दर्शन से कराया।

बीना जी ने उन्हें चरखा चलाना सिखाया, जिसका अभ्यास वह ताउम्र करते रहे। दिल्ली फोरम के उनके करीबी दोस्त एमजे विजयन के मुताबिक, ‘ गांधीजी का उनके जीवन पर गहरा असर था। उन्होंने गांधी दर्शन का केवल अनुकरण ही नहीं किया, बल्कि रोज के जीवन में उसका अभ्यास भी करते रहे। उन्होंने अपने जीवन को गांधी के अनुयायी से एक पूर्ण गांधीवादी में बदल दिया था।’

संनिधि में अपने काम के दौरान वह महान पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के नेता सुंदरलाल बहुगुणा से मिले। उन्होंने खुद को पूरी तरह से टिहरी विरोधी आंदोलन में समर्पित कर दिया और बहुगुणाजी के तत्वावधान में सभी आधारभूत कार्यों का समन्वय किया।

इसी दौरान उन्होंने भारत में सामाजिक आंदोलनों के दो प्रमुख लोगों, मेधा पाटेकर (नर्मदा बचाओ आंदोलन) और फादर थॉमस कोचेरी से मुलाकात की, जिन्होंने उन्हें एक कार्यकर्ता के रूप में विकसित होने और पॉलिसी एडवोकेसी की कला सीखने में मदद की।

बाद में उन्होंने ‘माटु जनसंगठन’ (माटु: मिट्टी, जनसंगठनः पीपुल्स यूनियन) की स्थापना की, जो उत्तराखंड में हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को अनियोजित बड़ी विकास परियोजनाओं से बचाने वाला एक जन आंदोलन है।

बाद में जब बहुगुणाजी बीमार पड़े तो विमल भाई ने अपने कंधों पर जिम्मेदारी ली और मातु जनसंगठन के माध्यम से टिहरी और उत्तराखंड के दूसरे हिस्सों में बांध से प्रभावित लोगों के लिए काम करते रहे। हालांकि, उनका काम केवल मातु जनसंगठन तक ही सीमित नहीं था।

अपनी मृत्यु तक, वह एनबीए और एनएपीएम दोनों के सक्रिय सदस्य थे, जो आंदोलन के प्रति उनके दीर्घकालिक जुड़ाव और प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उन्होंने कई पर्यावरणविदों को प्रेरित किया और उन्हें प्रशिक्षित किया।

उनकी सक्रियता का तरीका अद्वितीय और ‘प्रक्रिया उन्मुख’ था। एनएपीएम में दो दशकों से अधिक समय तक उनके करीबी सहयोगी मधुरेश कुमार ने कहां, ‘विमल भाई की सक्रियता का तरीका काफी अलग था। निस्संदेह उन्हें व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की भावना का आशीर्वाद मिला था। वह अनुसंधान का उपयोग करने में असाधारण रूप से बेहतर थे और आंदोलनों का समर्थन करने के लिए आधुनिक तकनीक को अपनाने में अविश्वसनीय रूप से काबिल थे।’

वह आगे कहते हैं कि विमल भाई किसी भी आदमी से उसकी शैक्षिक योग्यता से इतर उससे काम कराने में माहिर थे। कोई भी जो लिख और पढ़ सकता हो, वह उनके लिए एक संभावित सामाजिक कार्यकर्ता होता था। उन्होंने एनएपीएम और देश भर में कई अन्य आंदोलनों के भीतर बहुत अच्छी तरह से प्रशिक्षित कैडरों की नींव रखी।

वह जमीन से करीब से जुड़े व्यक्ति थे और उनके लिए उनका कार्यालय ही लडाई का मैदान था। वह बस या ट्रेन में यात्रा करते समय या विरोध प्रदर्शन में बैठकर अपना लैपटॉप कहीं भी खोल देते थे और आपको अपने साथ काम करवाते थे। उनका मानना था कि सबसे छोटा काम या प्रयास भी एक मजबूत प्रभाव छोड़ सकता है और वह काम ही यह सुनिश्चित करता है कि सभी सामाजिक कार्यकर्ता इस विचारधारा का पालन करें।

टिहरी के प्रतिष्ठित पर्यावरणविद् डॉ भरत झुनझुनवाला, जिनकी याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2013 में गंगा नदी पर किसी भी नए बांध पर रोक लगाई थी, कहते हैं, “मैं 2006 तक बांधों का समर्थक था, लेकिन जब मैं विमल से मिला, तो उन्होंने भागीरथी नदी पर प्रस्तावित विद्युत परियोजना, कोटली भेल हाइड्रो प्रोजेक्ट के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल दिया।

उन्होंने मुझे नदी के आंदोलन में लाने और मुझे एक कार्यकर्ता के रूप में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद डॉ झुनझुनवाला और विमल भाई ने उत्तराखंड की नदियों से जुड़े कई मामलों में एक साथ काम किया। वह आगे कहते हैं, ‘विमल में किसी भी अनजान गांव में जाने, लोगों को संगठित करने, उन्हें प्रशिक्षित करने और पलक झपकते ही उसे अपना इलाका बनाने की विशेष क्षमता थी।’

यमुना जिए अभियान के समन्वयक मनोज मिश्रा उस समय को याद करते हैं, जब वह 2006 में पहली बार विमल भाई से दिल्ली के पांडव नगर में उनके घर में मिले थे। उन्होंने खुद का सिला हुआ आधी बांह का कुर्ता और वह लुंगी पहनी हुई थी, जो उनके पास अभी तक थी।

मनोज ने उन्हें जमीन पर बैठकर अपने चरखे में रुई कातते पाया था। वह कहते हैं, ‘ विमल भाई, यमुना जिए अभियान के संस्थापकों में से एक थे और उन्होंने सही मायनों में एक एक्टिविस्ट के तौर पर मुझे प्रेरित किया।’

हालांकि विमल भाई की मुख्य पहचान नदी और नदी पर निर्भर लोगों के अधिकारों पर उनके बड़े कामों के कारण है लेकिन इसके साथ ही वह अपने आस-पास हो रहे किसी भी अन्याय के बारे में समान रूप से चिंतित रहते थे।

वह पिछले कुछ सालों से फरीदाबाद में रह रहे थे और थोड़े ही समय में, वह ‘विमल काका’ के रूप में बेहद लोकप्रिय हो गए थे। कोविड लॉकडाउन के दौरान उन्होंने लोगों के कल्याण के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया था और उनके लिए खाने और दवा की व्यवस्था कर रहे थे।

पिछले कुछ सालों से वह फरीदाबाद में खोरी गांव के विस्थापित लोगों के कल्याण और उचित पुनर्वास के लिए अथक रूप से काम कर रहे थे। वह एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों के बारे में भी चिंतित थे और उन्होंने इससे जुड़ी कई रैलियों और विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के साथ ही उनका आयोजन भी किया।

हालांकि उनका काम काफी गंभीर प्रकृति का था और सामाजिक कार्य करने का उनका तरीका आक्रामक भी था, लेकिन व्यक्तिगत रूप से वह बहुत भावुक, देखभाल करने वाले और हमेशा मुस्कुराते रहने वाले व्यक्ति थे। वह हमारी टांग खींचने का एक भी मौका नहीं छोड़ते थे और काम के दौरान हमें हल्का रखने के लिए मजाक करते थे।

वह सामूहिक मानवता में विश्वास रखने वाले थे, सभी के साथ समान व्यवहार करते थे और उन्हें अपने जीवन में विशेष स्थान देते थे। किसी भी कार्यकर्ता के आने, रहने और अपने घर में रहने के लिए वह अपने घर का दरवाजा हमेशा खुला रखते थे।

वह मदद के लिए हमेशा उपलब्ध रहते थे। वह केवल खुद से सिले हुए खादी के कपड़े पहनते थे, फर्श पर सोते थे और उनके घर में बहुत कम सामान होता था। उन्हें खाना बनाने का शौक था और वह अपने मेहमानों को खुद का बनाया खाना पेश करते थे।

उन्होंने कभी भी किसी औपचारिक संगठन का पंजीकरण नहीं कराया या न ही अपनी उपलब्धि का उपयोग धन जुटाने या अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं के लिए उपयोग करने के बारे में सोचा। उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया और लोगों के जीवन और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया।

उनकी कार्यशैली आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत होगी और उनकी कार्यशैली समाज वैज्ञानिकों के लिए काफी रुचिकर होगी। महात्मा गांधी की तरह विमल भाई को भी अपने जीवनकाल में कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला। हालांकि, वह अपने पीछे पर्यावरणविदों, वकीलों और संगठनों का एक पूरा ढांचा छोडकर गए हैं जिसके अंदऱ विमल भाई के एक्टिविज्म की शैली जिंदा रहेगी।

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