बंगाल की खाड़ी की यात्रा के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी असम के भूभाग के साथ अपने जलमार्ग में कई तरह के जल निकायों का निर्माण करती है। इनमें असंख्य तालाबों के साथ ही नदियां, धाराएं, वेटलैंड, वेटलैंड को नदियों से जोड़ने वाली संकरी खाड़ियां आदि शामिल हैं। ये फिशिंग यानी मछली पकड़ने के लिए पर्याप्त अवसर मुहैया कराती हैं। इस क्षेत्र के लोगों के लिए मछली पकड़ना एक तरह से उनकी जिंदगी का एक हिस्सा रहा है। इनमें से ही एक है कैबार्ता जनजाति, जो पूरे राज्य में फैली है। लेकिन आज वे जलाशयों के बदलते स्वरूप से हैरान हैं। मछुआरे कहते हैं कि अप्रत्याशित और अत्यधिक बारिश के कारण धाराओं और नदियों के जलस्तर में उतार-चढ़ाव हो रहा है। ऐसे बदलाव जल निकायों में मछलियों के प्रवास और व्यवहार संबंधी लक्षणों को प्रभावित कर रहे हैं। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद की ओर से बीते साल 26 अक्टूबर को प्रकाशित “मैपिंग इंडियाज क्लाइमेट वल्नरबिलिटी” जैसे अध्ययनों से भी मछुआरों की इन बातों की पुष्टि होती है। इस अध्ययन में जलवायु प्रभावों के लिहाज से देशभर में असम को अतिसंवेदनशील पाया गया है। असम में मत्स्य निदेशालय के जॉइंट डायरेक्टर-इन-चार्ज अपूर्व कुमार दास बताते हैं कि ब्रह्मपुत्र और इसकी सहायक नदियों में तलछट का भार बढ़ गया है जिससे पानी मटमैला और अपारदर्शी होता जा रहा है। इस कारण जलीय प्रजातियों के पनपने के लिए पानी में आवश्यक घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो रही है। इसके साथ ही जल निकायों में तेजी से फैलने वाली प्रजातियों जैसे कि जलकुंभी के कारण भी पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है। असम के मछुआरे समुदाय मछली पकड़ने के लिए फंदे, गियर और जाल जैसे टूल्स कर इस्तेमाल कर इन चुनौतियों से निपट रहे हैं। वे अपने पुरखों से मिले पारंपरिक ज्ञान के जरिए स्थानीय संसाधनों जैसे कि बांस, बेंत, जूट की रस्सी, कॉर्क फ्लॉट्स और मिट्टी से बने सामान से ये उपकरण तैयार कर रहे हैं। विभिन्न आकारों और घटाए-बढ़ाए जा सकने वाले फंदों वाले इन जालों का कहां और कैसे होता है इस्तेमाल, तस्वीरों के जरिए बता रही हैं
त्रिकोणीय टोकरी जैसी दिखने वाली जकोई या स्कूप गियर एक आम फिशिंग गियर है, जिसका उपयोग ज्यादातर महिलाएं करती हैं। यह बांस की चटाई से बना होता है। इसमें मोटी किरचें होती है, जो हत्थे का भी काम करती हैं। उन हत्थों को पकड़कर इसे जल निकाय के तल के साथ फावड़े की तरह घसीटा जाता है। इस तरह से पानी को मथा जाता है और मछलियां पकड़े जाने से बचने के लिए टोकरी में छुप जाती हैं। जकोई के साथ खोलोई भी आता है, जो एक बांस का घड़ा होता है, जिसे महिलाएं पकड़ी हुई मछलियां रखने के लिए अपनी कमर से बांध कर रखती हैं
लगभग 2 से 3 फीट गहरी टोकरी जैसा दिखने वाला पोलो पतली बांस की पट्टियों से बना होता है, जिसके दोनों सिरों को खुला रखा जाता है। इसका वृत्ताकार तल काफी चौड़ा होता है, लेकिन ऊपर मुंह बहुत छोटा होता है। इसके चारों ओर एक मोटी रिम होती है। जिसे पकड़कर मछुआरे धीरे-धीरे जल निकाय के पार जाते हैं। पिंकू दास कहते हैं, “जब भी हमें नीचे मछलियों की मौजूदगी का एहसास होता है, हम जल्दी से गियर को डुबो देते हैं और ऊपरी रिम को जल निकाय के तल के विपरीत मजबूती से दबाते हैं। अगर मछली अंदर फंस जाती है तो उसे ऊपर के छेद से बाहर निकाल लिया जाता है।” फिर मछुआरे गर्व से अपनी कमर के चारों ओर पकड़ी गई मछलियां बांध लेते हैं। पोलो उथले पानी में मुरैल, चीतल या छोटी कार्प जैसी मछली पकड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता है
बड़े छाते के आकार वाले जाल खेवाली को जल निकाय में मौजूद मछलियों के संभावित छेत्र में इस तरह से फेंका जाता है, जिससे एक घेरे जैसा बन जाता है। इसके निचले किनारों की जेबों से लोहे के छोटे, वजनी टुकड़े बंधे होते हैं, जिससे जाल पानी में डूब जाता है। माजुली जिले के खुरहाला गांव में रहने वाले रतिन दास और उनकी बहन मलोती बताती हैं, “एक लंबे तार के माध्यम से पकड़े हुए जाल के सिरे को बीच-बीच में खींचा जाता है और लोहे के भार मछलियों को परेशान कर देते हैं। वह जाल के पॉकेट में फंस जाती हैं और इस तरह पकड़ी जाती हैं।” ये जाल अलग-अलग तरह के जल निकायों जैसे कि धाराओं, वेटलैंड और पर्याप्त गहराई वाले तालाबों में इस्तेमाल किए जाते हैं। जाल डालकर पकड़ी गई मछलियों में माइनर कार्प (लबेओ बाटा), रोहू (लाबेओ रोहिता) जैसी प्रमुख भारतीय कार्प, मृगेल (सिरहिनस मृगला), कतला (कैटला कतला), और चीतल (चिताला चीताला) जैसी विभिन्न व्यावसायिक मछलियां शामिल होती हैं
ढाई से 4 मीटर लंबे नलीदार पाओरी जैसे विभिन्न ट्रैप गियरों का इस्तेमाल छोटे जल निकायों या बाढ़ के पानी में मछलियां पकड़ने के लिए किया जाता है। यह जलीय पौधों की शाखाओं और पत्तियों से भरा होता है। मछलियां बचने के लिए इसमें जाती हैं और फंस जाती हैं। जोरहाट जिले में स्थित चांगमाईगोर की भारती दास कहती हैं। इन जालों को पानी के नीचे के निचले इलाकों में छुपाकर रखा जाता है और उन्हें पानी के प्रवाह से विस्थापित होने से बचाने के लिए जल निकाय के किनारे पर बांस की शाफ्ट से बांध दिया जाता है। इस तरह पकड़ी गई मछलियों में ज्यादातर बामी, विभिन्न प्रकार की कैटफिश, कांधुली, छोटे झींगे आदि शामिल होते हैं
फांसी जाल करीब 10 मीटर लंबी दीवार जैसा होता है, जिसे बड़े जल निकायों के दोनों छोर की तरफ फैलाकर आड़ा रखा जाता है। जब मछली इस जाल की दीवार को पार करने की कोशिश करती है, तो वह पकड़ी जाती है। जाल का आकार ऐसा होता है, जिससे मछली का सिर्फ सिर अंदर जा पाता है, न कि उसका पूरा शरीर। फिर फंसने के बाद जब वह बाहर निकलने के लिए संघर्ष करती है तो जाल उसके गलफड़े से उलझ जाता है और लगता है कि उसने जाल से लटककर फांसी लगा ली है। इस तरह के जाल अक्सर रातभर जलाशय में पड़े रहते हैं