नाटक समीक्षा: जब देश की राजधानी तक पहुंची पहाड़ों के सुदूर गांवों की दस्तक
नाटक 'यात्राओं की यात्रा' ने दिल्ली में हिमालयी गांवों की धड़कन को जीवंत किया
अस्कोट-आराकोट अभियान पर आधारित इस नाटक ने दर्शकों को उत्तराखंड के गांवों की चुनौतियों और सुंदरता से रूबरू कराया
ममता और डॉ. कमल कर्नाटक के निर्देशन में यह प्रस्तुति एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की गहराई को दर्शाती है, जो कला के माध्यम से समाज को जोड़ने का प्रयास करती है
दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम के मंच पर मंचित हिंदी नाटक “यात्राओं की यात्रा” केवल एक नाट्य प्रस्तुति नहीं था, बल्कि वह दर्शकों को हिमालयी गांवों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक यथार्थ से रूबरू कराने वाली एक सघन यात्रा बन गया। नाटक ने उत्तराखंड के सुदूर पर्वतीय गांवों से उठे सवालों को संवेदनशीलता और कलात्मकता के साथ देश की राजधानी तक पहुंचाया।
लगभग सवा दो घंटे की इस प्रस्तुति में पिछले पचास वर्षों के एक सशक्त सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की झलक समाहित थी। मंच पर घटित होती घटनाओं, संवादों और प्रतीकों के माध्यम से यह नाटक उत्तराखंड के करीब 400 गांवों में पांच दशकों के दौरान आए बदलावों, संघर्षों और टूटते-जुड़ते सामाजिक ताने-बाने को प्रभावी ढंग से रेखांकित करता है। नाटक की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह इतिहास, स्मृति और वर्तमान को एक साथ पिरोते हुए दर्शक को सोचने और सवाल करने के लिए विवश करता है।
नाटक की शुरुआत होती है, वर्तमान समय की एक छात्रा से, जो अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए अपने टेब में कुछ खंगाल रही है। तब ही उसे असकोट आराकोट अभियान के बारे में चलता है। जिझासावश वह अभियान से जुड़े एक व्यक्ति से मिलती है, जो उसे इस अभियान के पहले पड़ाव की ओर ले चलता है।
1974 में शुरू हुआ यह अभियान हर दशक में दोहराया जाता रहा है। यह केवल 45 दिनों की भौगोलिक यात्रा नहीं, बल्कि जनधारित "बिना पैसे की यात्रा" के सिद्धांत पर आधारित एक सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभव है। यात्री जनसहयोग पर निर्भर रहते हुए उत्तराखंड के अस्कोट से आराकोट तक की पदयात्रा करते हैं, ग्रामीण जीवन की चुनौतियों और सुंदरता को प्रत्यक्ष रूप से समझते हैं। नाटक ने इस अभियान की छह यात्राओं से चुनी गई मार्मिक झलकियों को मंच पर सजीव किया, जहां हर दृश्य विकास, पारिस्थितिकी, संस्कृति और सामुदायिकता के प्रश्नों को उठाता है।
नाटक का निर्देशन ममता कर्नाटक तथा पटकथा एवं सह-निर्देशन डॉ. कमल कर्नाटक द्वारा किया गया। दोनों ने मिलकर एक ऐसा रंग-संसार रचा जो भावुकता से परे, यथार्थ का आईना था। कलाकारों के अभिनय में एक ऐसी सहजता और गहराई थी, जो केवल उस अनुभव को जीने से ही आ सकती है।
उन्होंने कथा की भावनात्मक गहराई और दस्तावेजी प्रामाणिकता के बीच सटीक संतुलन बनाया। शिखर के रूप में वेदांत कर्नाटक और अजय सिंह बिष्ट, विमल के रूप में महेंद्र सिंह लटवाल, विभिन्न भूमिकाओं में दीपक राणा, दीपिका पांडे, अखिलेश भट्ट, हेम पंत जैसे मुख्य कलाकारों के सशक्त अभिनय ने यात्रा के अनुभवों को विश्वसनीय बना दिया। पुष्पा भट्ट, अंजू पुरोहित, विजय लक्ष्मी वेदवाल, नवीन चंद एवं लक्ष्मी महतो सहित सभी कलाकारों का योगदान सराहनीय रहा।
इस प्रस्तुति की सबसे खास बात रही डिजिटल पृष्ठभूमि का सहज प्रयोग। डॉ. कमल द्वारा डिज़ाइन किए गए दृश्यों में असली अभियान की तस्वीरों और दृश्यावली का एलईडी स्क्रीन में इस्तेमाल कर पांच दशकों के सफर को मंच पर उतारा गया। यह तकनीकी नवाचार दर्शकों को यात्रा के कालखंड में ले गया और नाटक को समकालीन प्रासंगिकता प्रदान की।
नाटक का संगीत पहाड़ की धरती की सच्ची आवाज था। पारंपरिक लोकगीत और आंदोलन के गीत केवल संगीत नहीं थे, बल्कि कथा के अनकहे पात्र थे। कोरस द्वारा चुन्नी और गमछे जैसे साधारण प्रतीकों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति एक कलात्मक सफलता थी, जिसने दर्शकों को तत्काल जोड़ लिया।
यह नाटक 'पहाड़' संस्था के उस व्यापक विजन का प्रतिबिंब है, जो चिपको आंदोलन की जड़ों से निकलकर हिमालय के प्रति एक समग्र, गंभीर और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण विकसित करती आई है। प्रकाशन, शोध, व्याख्यान और इन यात्राओं के माध्यम से संस्था ने न केवल जानकारी जुटाई है, बल्कि हिमालय के प्रति एक जिम्मेदार नागरिक दृष्टि भी विकसित की है। यह नाटक उनके इसी सतत, अवैतनिक और प्रेरक प्रयास का एक चमकदार फल है।
"यात्राओं की यात्रा" का यह मंचन दिल्ली के सांस्कृतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में दर्ज होगा। इसने सिद्ध किया कि कला सबल सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बन सकती है। यह उन सभी अनाम यात्रियों, ग्रामीणों और सपनों को एक गहन श्रद्धांजलि है, जो पचास वर्षों से हिमालय की धड़कन को दुनिया से जोड़ रहे हैं। यह प्रेरणा है कि यात्रा अभी थमी नहीं है, और नाटक उसके आगे बढ़ने का एक नया पड़ाव मात्र है।

