भुखमरी की त्रासदी और सरकारी समाधान

कुछ सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं, जैसे कि 19 करोड़ लोगों को भूख मुक्त कब किया जा सकेगा और क्या 56 प्रतिशत वंचित को स्वाबलंबी बनाया जा सकेगा?
भुखमरी की त्रासदी और सरकारी समाधान
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भूख से होने वाली मौत इस धरती के सबसे अमानवीय दुर्घटनाओं में से एक है। मानव विज्ञानी कहते हैं कि मानवीय सभ्यता का विकास ‘भोजन उत्पादन के विज्ञान और कला’ के साथ-साथ हुआ है। अर्थात अपनी भूख कैसे मिटानी है यह पुरातन सभ्यता से अब तक मानव, नैसर्गिक रूप से समुदाय अथवा व्यक्ति के रूप में जानता आया है।

एक संस्था के रूप में राज्य के उदय ने अर्थशास्त्र के जिन सार्वभौमिक संसाधनों अर्थात भूमि, श्रम और संपत्ति का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विनियमन किया, उसने जाने-अनजाने अन्न उत्पादन, संग्रहण, विनिमय और वितरण के लिये मानव को राज्य पर निर्भर बना दिया। और फिर निर्भरता के दायरे में यह मान लिया गया कि लोगों को भुखमरी से बचाना कल्याणकारी राज्य की जवाबदेही है।

लेकिन भारत सहित दुनिया भर में बढ़ती भुखमरी और खाद्य के उत्पादन-उपभोग से जुड़ी विषमतायें यह साबित करती हैं कि अधिकांश परिस्थितियों में यह (गैर) जवाबदेह व्यवस्था, आधी-अधूरी ही साबित हुई है।

खाद्य उत्पादन तथा वितरण के लिये एक आत्मनिर्भर समाज को राज्य पर (लगभग) आश्रित बनाते हुये विगत कुछ दशकों में जिस 'खाद्य तंत्र' को स्थापित और फिर विश्व व्यापार संगठन की नीतियों और नियमों के चलते हुये उसे जिस अंधे मुकाम पर लाकर निहत्था खड़ा कर दिया गया है, यथार्थ में वह स्वावलम्बन के संभावनाओं के बिलकुल विपरीत है।

लगातार जर्जर होते जनतन्त्रों पर निरीह जनता को इस खतरनाक हद तक निर्भर बना दिया गया। जहां, व्यवस्थागत खामियां लाखों लोगों के समक्ष जीवन-मरण का संकट बनकर खड़ी हो गयी। इसीलिये यह माननें के पर्याप्त कारण हैं कि वर्तमान में भूख और कुपोषण से होने वाली त्रासदी ‘समाज और राज्य निर्मित (अ)व्यवस्था का (अ)प्रत्याशित परिणाम’ है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महत्वपूर्ण निकाय, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा वर्ष 2021 में जारी फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट (अर्थात खाद्य पदार्थों की बर्बादी से संबंधित नवीनतम रिपोर्ट) के अनुसार, वर्ष 2019 में उपलब्ध भोजन का 17 प्रतिशत मानवीय लापरवाहियों के चलते बर्बाद हो गया और लगभग 69 करोड़ लोगों को खाली पेट सोना पड़ा। रिपोर्ट यह कहती है कि इन (अ)मानवीय लापरवाहियों के केंद्र में कल्याणकारी राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।

सवाल यह है कि क्या राज्य, एक निकाय के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को सुनिश्चित रूप से भोजन मिले- यह निर्धारित कर सकने के काबिल है अथवा नहीं ? अथवा प्रत्येक नागरिक को भोजन की गारण्टी देना क्या राज्य की नैतिक जवाबदेही होना चाहिए?

और यदि कोई व्यक्ति पूरी तरह संसाधनहीन है तो क्या उसे आजीवन भोजन देना अंततः राज्य का दायित्व होगा? अंततः एक नियामक के रूप में राज्य, क्या यथार्थपरक तरीके से भोजन के समुचित बंटवारे का जवाबदेह हो सकता है?

इन सनातन सवालों और उनके समाधानों के "हाँ और ना" के मध्य पूरी दुनिया में हर बरस लगभग 25 लाख लोग बेमौत मारे जाते हैं।
भारत में भूख (अथवा अत्यधिक कुपोषण) से होने वाली अनाम मौतों के लिये वैधानिक रूप से जवाबदेह की तलाश अब भी जारी है।

कब, कहाँ और कितने लोग भूख और कुपोषण से बेमौत मारे गये यह कोई नहीं जानता। आश्चर्य है 'भूख से हुई मौत' की गणना अधिकृत रूप से कोई सरकारी विभाग नहीं करती, बल्कि संबंधित जानकारियों और आंकड़ों का आधिकारिक स्रोत मीडिया रिपोर्ट को मान लिया जाता है।

यही कारण है कि 17 जनवरी 2022 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भारत सरकार द्वारा यह बयान दिया गया कि भारत के किसी भी राज्य के पास 'भूख से होने वाली मौतों' की कोई अधिकृत जानकारी नहीं है।

भारत सरकार की ओर से माननीय न्यायालय को यह बताया गया कि भूख और कुपोषण से होने वाली असामयिक मौतों से वंचितों की रक्षा और संबंधित सामाजिक-आर्थिक उपायों के लिये 131 योजनाओं का सफल संचालन किया जा रहा है। इसके अलावा राज्य सरकारों के द्वारा भी अनेक योजनायें लागू की गयी हैं।

इन सब उपायों के मद्देनजर, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया कि, भारत सरकार और राज्य सरकारों के संयुक्त प्रयासों द्वारा 'भूख से होने वाली मौतों' से रक्षा हेतु वंचित लोगों के लिये 'सामुदायिक भोजनालयों’ का संचालन किये जाने चाहिये। ऐसा करने हेतु भारत सरकार द्वारा 2 फीसदी अतिरिक्त अनाज राज्य सरकारों को प्रदान किया जा सकता है ताकि अन्न का संकट न रहे।

भारत उन चंद मुल्क़ों में शामिल है जहाँ वर्ष 2013 से ही 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा' कानून लागू है। इस कानून के पैरोकार कहते हैं कि - प्रत्येक वंचित व्यक्ति को पर्याप्त भोजन मुहैया करवाना राज्य का राजनैतिक दायित्व है। वर्ष 2016-20 के दौरान भारत सरकार द्वारा संचालित ‘गरीब कल्याण योजना’ अकेले ही लगभग 80 करोड़ वंचितों को सक्षम बना गयी। आखिर योजनाओं के मानसून के बाद भी भूख से होने वाली मौतों की चर्चा ही बेमानी होनी चाहिये, लेकिन बरसों में/से ऐसा हुआ नहीं।

वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व खाद्य और कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में लगभग 19 करोड़ लोग भूख और कुपोषण से पीड़ित हैं, अर्थात विश्व के लगभग 24 फीसदी कुपोषित और भूखे लोग इस देश मे हैं। सामान्य ज्ञान के दायरे में माना जाता है कि यह राज्य का नैतिक-राजनैतिक दायित्व है कि वह भूख और कुपोषण से पीड़ित लोगों को अनाज मुहैया करवाये। लेकिन भूख और कुपोषण के मूल कारणों का पता लगानें और उसका समाधान करने में राज्य, अब तक ‘असामान्य अज्ञानता’ का शिकार रहा है।

वर्ष 2004 में संयुक्त राष्ट्र संघ के इसी विश्व खाद्य और कृषि संगठन ने पूरी दुनिया को बताया था कि - भुखमरी और विपन्नता का सबसे कारगर उपाय 'भूमि अधिकार' ही है। अर्थात भूमिहीनों को उत्पादन लायक भूमि वितरण करके इस समस्या का स्थायी समाधान स्थापित किया जा सकता है। अपनी स्वाधीनता के बाद चीन, जापान, ताइवान और कोरिया जैसे मुल्क़ों ने भूमिहीनों को भूमि वितरण करके भुखमरी व कुपोषण से सुरक्षा हेतु 'भूमि वितरण और कृषि सुधारों' का सुरक्षित और स्थायी मार्ग चुना।

भारत जैसे बहुसंख्यक ग्रामीण जनसँख्या वाले मुल्क में जहाँ औसतन दो-तिहाई से अधिक लोग आजीविका के लिये प्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़े हुये हैं, वहां 'समग्र कृषि और भूमि सुधार' ही भूख मुक्ति का सार्थक, स्थायी और स्वावलम्बी समाधान है। लेकिन, वास्तविकता यह है कि स्वाधीनता के 75 वर्षों के बाद भी मात्र 2 प्रतिशत भूमि का पुनर्वितरण अब तक हो पाया है। इसीलिये आज भी 56 प्रतिशत ग्रामीण जनसँख्या (भारत की जनगणना 2011 के अनुसार) भूमिहीन अथवा संसाधनहीन अथवा गरीब अर्थात प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 'भूखे रहने के लिये' अभिशप्त हैं ।

भारत सरकार द्वारा 'भूमि और कृषि सुधारों पर गठित समिति' (2008) की रिपोर्ट में यह साफ़गोई से बताया गया कि ग्रामीण आजीविका और खाद्यान्न संकट का स्थायी समाधान भूमिहीनों को किसान बनाकर ही संभव है। अनेक वैश्विक अनुभव दर्शाते हैं कि भूमि और कृषि सुधारों के रास्ते होने वाले ग्राम और ग्रामीणों का विकास ही स्थायी सफलता की ओर ले जा सकते हैं । भारत में कुछ हद तक केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा इसके पुराने तथा उड़ीसा, तेलंगाना और कर्नाटक इसके नये उदाहरण हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का नया आदेश यह है कि 'राष्ट्रीय खाद्य ग्रिड' बनाकर भूख से पीड़ित सभी लोगों को सुनिश्चित रूप से भोजन मुहैया करवाना राज्य की जवाबदेही होगी जिसके लिये 'सामुदायिक भोजनालयों' की व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन पुराना सवाल तब भी अनुत्तरित ही रहेगा कि - क्या भारत में हर रोज 19 करोड़ भूखे रहने वाले लोगों (राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे, 2017 के अनुसार) को इससे भूख-मुक्त किया जा सकेगा?

क्या 56% वंचित (भारत की जनगणना, 2011 के अनुसार) भूमिहीन और संसाधनहीन लोगों को इससे स्वावलम्बी बनाया जा सकेगा ? और फ़िर सबसे महत्वपूर्ण यह कि- क्या इतनी बड़ी भूखी और वंचित जनसंख्या (विश्व खाद्य और कृषि संगठन, 2018 के अनुसार लगभग 24 प्रतिशत) को राज्य के जर्जर व्यवस्था के भरोसे छोड़ा जा सकता है ?

आजाद भारत में अब तक राज्य के द्वारा गरीबी और भुखमरी से मुक्ति के नाम पर घोषित और पोषित योजनायें तो आधी-अधूरी ही रही हैं। यहां तक कि भूमि तथा कृषि सुधार के नये-पुराने कानून तक, अपूर्ण क्रियान्वयन और अक्षम व्यवस्था के सार्वजनिक शिकार रहे हैं।

समय आ गया है जब स्वाधीन भारत को 'समाज और स्वावलम्बन केंद्रित' व्यवस्था के नये तंत्र की स्थापना करना चाहिये। इस नये तंत्र में 'भूमि तथा कृषि सुधार' एक बुनियादी और ऐतिहासिक क़दम होगा। लेकिन, ऐसा नहीं हो पाने का अर्थ होगा कि हम लाखों-करोड़ों गरीबों और वंचितों को उस जर्जर राज्य-तंत्र पर (अंध)विश्वास करने के लिये मजबूर कर रहे हैं जो इस संकट को जनम देने के लिये जवाबदेह रहे हैं।

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

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