
-मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में खनन, बिजली और बांध के कारण लाखों लोगों को अपने-अपने गांव छोड़ने पड़े हैं और यह सिलसिला अभी रुका नहीं है बल्कि बदस्तूर जारी है। डाउन टू अर्थ जिले के एक ऐसे गांव में पहुंचा जहां का हर व्यक्ति जिले के किसी न किसी गांव से विस्थापित होकर यहां आ बसा है। दूसरे गांवों से यहां अपना बसेरा बनाने वालों ने अपने पहले विस्थापन से लेकर अब तक के कई बार के विस्थापन की अपनी व्यथा बयां की है
चंदावल गांव सिंगरौली (मध्य प्रेदश) के लगभग चार सौ गावों में से एक है लेकिन इस गांव की विशेषता यह है कि इस गांव का कोई भी मूल निवासी नहीं है। कारण कि इस गांव में केवल जिले के दूसरे सैकड़ों गावों से विस्थापित हो कर आए लोगों ने अपना बसेरा बसाया है। गांव के मुहाने पर ही एक झोपड़ी बनी हुई है। और इसके बरामदे में एक उम्र दराज दर्जी आंखे फाड़-फाड़ कर सिलाई मशीन की सुई में धागा डालने की भरसक कोशिश में लगा हुआ है। ये हैं 71 वर्षीय चंद्रिका प्रसाद जो कि जैसे-तैसे सिलाई मशीन चला कर अपने और परिवार के जीवन की नौका जैसे-तैसे खींच पा रहे हैं। इस उम्र में इतनी मेहनत कि जरूरत क्यों? पूछने पर कहते हैं मेहनत नहीं करेंगे तो पेट की आग कैसे बुझेगी और सरकार तो मुआवजे का इतना पैसा देती नहीं कि हम कुछ अच्छा काम कर सकें या हमारे परिवार के किसी को नौकरी मिल सके।
ऐसे में तो बस यही हमारा एक मात्र सहारा है कि मरते दम तक दाने-दाने के लिए मोहताज रहें। वह कहते हैं, क्या भरोसा सरकार का कब इस जगह से भी हमें भगा दे। हमारा तो हर दिन तो इस इसी उठापटक में बीत जाता है कि कब कोई सरकारी अधिकारी आकर हमें यहां से हटने का नोटिस थमा देगा। वह कहते हैं कि आखिर कब तलक तक हम और हमारा परिवार दर-दर भटकते रहेगा। जब हम देश के विकास के लिए अपना सब कुछ दे दिया तो कम से कम हमें इसके बदले इतना तो मिलना चाहिए था कि हम बिना किसी चिंता के दो वक्त की रोटी खा सकें। यह एक अकेले चंद्रिका प्रसाद की मुसीबत नहीं है बल्कि इस गांव में रहने वाले लगभग हर परिवार की यही व्यथा है।
चंद्रिंका प्रसाद के उजड़ने की कहानी शुरू होती है 1960 में जब रिहंद बांध निर्माण पूरा होने वाला था और उनके जैसे लगभग चालीस हजार परिवार को अपने जन्म स्थान कहें या अपने पुरखों की जमीन से हटना पड़ा था। उस समय उनके पास लगभग एक एकड़ की जमीन थी और इस जमीन के दम पर उनके परिवार का गुजारा ठीक से हो पा रहा था। लेकिन बांध के कारण वह भी चली गई।
यहां से उजड़ने के बाद वे शक्तिनगर केनाल के पास अपने परिवार के साथ जा बसे और यहां पर लगभग दो दशक रहने के बाद 1980 में एक बार फिर से उनके परिवार के ऊपर विस्थापन की गाज गिरी और उन्हें यहां से उजड़ना पड़ा। हालांकि इस बार उन्हें सरकार की तरफ से छह हजार रुपए का मुआवजा मिला। इस मुआवजे के पैसे से उन्होंने जिले के दूधीचुंआ गांव में आ बसे।
यहां भी उन्हें अधिक समय तक नहीं रह सके क्यों कि यहां भी खदान का मामला आ गया था और उन्हें 1982 में एक बार फिर से विस्थापित होना पड़ा। हालांकि इस बार उनके विस्थापन पर पिछले मुआवजे के मुकाबले दोगुना राशि मिली यानी 12,000 हजार रुपए मिले। यहां से अपना परिवार लेकर वे दहिलगढ़ गांव आ बसे। और यहां भी वे अधिक समय में नहीं रह सके। छह साल बाद 1988 में एक बार फिर से उन्हें अपना घर-द्वार छोड़ना पड़ा लेकिन इस बार उनका मुआवजा केवल छह हजार ही मिला।
उनके इस अंतहीन विस्थापन प्रक्रिया में उनका परिवार बुरी तरह से प्रभावित हुआ। लेकिन सिवाय एक जगह से दूसरी जगह जाने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था। वह कहते हैं कि 30 साल के अंदर चार-चार बार हमें अपना गांव छोड़ना पड़ा, यह तो हम भी नहीं समझ पाते है कि अब तक हम जिंदा ही कैसे बचे हैं। हमें तो कब का मर जाना चाहिए। आखिर कितनी बार हम अपना घर बनाएंगे।
हां वे अब इस बात का धन्यवाद देते हैं कि पिछले 37 सालों से चंदावल गांव में रह रहे हैं। वह कहते हैं कि सोच रहा हूं कि यहीं मेरी जिंदगी का आखिरी गांव होगा। हालांकि तत्काल वह कहते हैं कि कहने के लिए तो यहां का हर बंदा जिले के किसी न किसी गांव से ही यहां आकर बसा है लेकिन इसके बावजूद उनको अब भी सुबह-शाम इस बात की चिंता खाए जा रही है कि इतना लंबा समय यहां गुजारने के बावजूद क्या उन्हें अपनी जिंदगी के अंतिम समय में भी एक बार फिर से उजड़ना पड़ेगा।
कारण कि यह गांव एनटीपीसी पॉवर प्लांट से सटा हुआ है। इस बात का उन्हें सदैव डर बना रहता है कि कब सरकार इस प्लांट को और बढ़ाने का निर्णय ले और उसके बाद गाज तो हमी पर गिरेगी। वह बताते हैं कि हमारी जिंददी दो पाटों के बीच पिस कर रह गई है। एक आजीविका का संकट और दूसरा विस्थापन का संकट।
इसी गांव के मुहाने पर बैठे 80 वर्षीय दीनदायान की कहानी भी बहुत कुछ चंद्रिका प्रसाद से मिलती-जुलती है। ये भी पिछले 65 सालों में चार बार अपना घर-द्वार छोड़ चुके हैं। ये भी एक किसान थे और अब मजदूरी करने पर मजबूर हैं। हां यहां यह कहा जा सकता है कि इनको हर बार विस्थापित होने पर कुछ न कुछ धन राशि मिली। जैसे पहली बार 1980 में पांच हजार, 1982 में 7 हजार और 1988 में पांच हजार रुपए मिले थे।
इस विस्थापित गांव में आज भी मूलभूत सुविधाओं को घोर आभाव है। यहां रहने वाले अधिकांश विस्थापित लोग शहर मजूरी करने जाते हैं।
बार-बार के विस्थापन के सवाल पर पिछले चार दशकों से सिंगरौली विस्थापन पर शोध करने वाले कैंब्रिज विश्व विद्यालय के रिसर्च फैलो शशि सिंह कहते हैं कि नए कानून को तैयार करते वक्त मैंने यह रेखांकित किया था कि सिंगरौली के विस्थापितों का बहु-विस्थापन के दृष्टिकोण से ध्यान नहीं रखा जा रहा है।
अगर आप नए भूमि अधिग्रहण कानून के खंड-40 को देखेंगे तो यह सीधे तौर पर सिंगरौली के बहु-विस्थापन की समस्या को संबोधित करता है। उनका कहना है कि हमें बहु-विस्थापन को रोकने के प्रयास करने चाहिए। बहु-विस्थापन सिंगरौली में प्रत्यक्ष रूप से देखा गया। इसकी वजह यही रही कि पिछले कानून ने विस्थापन की संवेदनशीलता को नहीं समझा कि यह कितना मुश्किल और दर्द भरा होता है। जाहिर सी बात है कि उस समय बहु-विस्थापन की समस्या सोच से परे थी। पिछले कानून में इसे समझने की कमी रह गई थी। नए कानून ने इस मुद्दे को समझा और इसके लिए नीतिगत योजनाएं लाई गईं। इसमें सबसे अहम बात यह है कि अगर आप बहु-विस्थापन को रोकने में नाकाम रहते हैं तो मुआवजे की रकम दोगुनी होनी चाहिए।