बदलते देहरादून की कहानी: बाढ़, विकास और खोया स्वर्ग
देहरादून, जो कभी एक शांत और प्यारा कस्बा था, अब एक व्यस्त शहर में बदल गया है।
16 सितंबर 2025 की बाढ़ ने शहर की नदियों को तबाह कर दिया।
विकास की दौड़ में शहर का प्राकृतिक सौंदर्य और सांस्कृतिक धरोहर खो गई है।
पुराने देहरा की मोहकता अब इतिहास के पन्नों में समा गई है।
बीता सप्ताह देहरादून खबरों में रहा। 16 सितम्बर, 2025 को हुई भारी बारिश से नदियों में आई बाढ़ ने दून घाटी को गहरी चोट पहुंचाई।
अपना बचपन देहरादून में बिताने के कारण मैं पूरे विश्वास से कह सकती हूं कि यह पहली बार है जब शहर की नदियों में वर्षा-जनित बाढ़ ने इस तरह की तबाही मचाई है।
लेकिन बुज़ुर्ग लोग देहरादून को इस कारण से याद नहीं करेंगे। सच तो यह है कि आज का देहरादून वह सुस्त, प्यारा-सा कस्बा ‘देहरा’ नहीं रहा, जो कभी हुआ करता था।
वह ‘कस्बा’ (आज का ‘शहर’ नहीं) एक बिल्कुल अलग दुनिया था। आइए, मैं उसे याद करती हूं।
मोहक और सुरम्य दून
“देहरा हमेशा से पेड़ों के लिए एक अच्छा स्थान रहा है। घाटी की मिट्टी बहुत उपजाऊ है, बारिश भी पर्याप्त होती है, यदि अवसर दिया जाए, तो यहां लगभग सबकुछ उगाया जा सकता है।”
यही शब्द थे मशहूर लेखक रस्किन बॉन्ड के, जिन्होंने अपना बचपन देहरादून में बिताया और अपनी किताब "अवर ट्रीज स्टिल ग्रो इन देहरा" में इस कस्बे का ऐसा ही चित्रण किया था।
मैं भी इसी घाटी, यानी ‘दून’ में पली-बढ़ी, जो अपनी सुगंधित ‘बासमती’ के लिए मशहूर थी।
देहरादून कभी ‘सफेद बालों और हरी झाड़ियों का शहर’ कहलाता था, जहां हर बंगले में, उन स्वप्निल दिनों में, “सामने बगीचा होता था, पीछे एक फलों का बगीचा और चारों ओर लिपटी हुई झाड़ियों की बाड़।”
ज्यादा समय नहीं हुआ, जब वहां पक्की सीमेंट की दीवारें नहीं थीं, बल्कि केवल हरी झाड़ियां होती थीं। दरवाजे की चौखट पर लिपटी जंगली गुलाबों से लदी बेलें, जैसे कोई माला गूंथ दी हो, प्रवेश द्वार को सजाती थीं।
बहुत पहले, दून घाटी चिड़ियों की चहचहाहट से गूंजा करती थी। शहर में यातायात इतना कम था कि गाड़ियों के हॉर्न की आवाज दूर से ही सुनाई दे जाती थी। हम बच्चे टीवी बंद कर पढ़ने या सोने चले जाते, इससे पहले कि पिता घर लौटें।
डाउन टू अर्थ के संस्थापक-संपादक स्वर्गीय अनिल अग्रवाल ने यहां मेंढकों की टर्र-टर्र की ध्वनि भी रिकॉर्ड की थी। वे अक्सर हमारे साथ रहते हुए कहा करते थे कि आने वाले वर्षों में ये आवाजें खो जाएंगी।
पानी से लबालब घाटी
मुझे यह भी याद है कि किस तरह पानी देहरा की कहानी का हिस्सा था। 16 सितम्बर 2025 को भले ही शहर में जलप्रलय आ गई हो, लेकिन एक समय था जब पानी और देहरा का रिश्ता कहीं अधिक कोमल और सौम्य था।
शहर से होकर बहने वाली रिस्पना और बिंदाल नदियां अपने स्वाभाविक प्रवाह में अविरल बहती थीं। बचपन की स्मृतियों में मुझे याद है कि शाम के वक्त स्त्रियां नदी से ताजा पकड़ी मछलियां बेचती थीं और खेतों में उगी मूंगरी (भुट्टा), जो इन्हीं नदियों के जल से सिंचित होते थे, उपलब्ध होता था।
कभी दून में नहरों का एक स्थायी जाल हुआ करता था, जिसे अंग्रेजों ने बनवाया था। इन नहरों का निर्माण कैप्टन प्रोबी थॉमस कॉटली ने किया था (जिन्हें गंगा नहर बनाने का श्रेय दिया जाता है)। ये नहरें ढकी हुई और भूमिगत थीं और दून घाटी की एक विशिष्ट पहचान मानी जाती थीं।
सन् 1900 में दून में लगभग 83 मील लंबी नहरें थीं।
इन नहरों का पानी मुख्यतः पेयजल और सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता था। तभी तो इलाकों के नाम ‘ईस्ट कैनाल रोड’ और ‘कैनाल रोड’ पड़े। आज भी बिंदाल से पानी उठाकर इन्हीं भूमिगत नहरों के जरिए देहरादून को उपलब्ध कराया जाता है।
सन 2003 में, मैं उच्च शिक्षा के लिए देहरादून से चंडीगढ़ जाया करती थी। मैं हिमाचल की सीमा पर यमुना नदी के पार स्थित पांवटा साहिब तक, शहर के सेलाकुई इलाके से होकर जाती थी। बस की खिड़की से मैं रास्ते में आने वाले हर नाले को गिनती थी, क्योंकि ये नाले अक्सर उफान पर होते थे और कई बार बसों, कारों और लोगों तक को बहा ले जाते थे।
यह सारा पानी अंततः यमुना में जाकर मिलता था। इसी क्षेत्र में कुछ शैक्षणिक संस्थानों के कैंपस भी हैं। हाल ही में इनमें से एक कैंपस जलमग्न हो गया था।
दून में बरसात
देहरादून की बारिश का अपना एक अनोखा अंदाज हुआ करता था।
साल भर, लगभग दोपहर 3 बजे के आसपास बारिश होती थी। यह बारिश केवल एक घंटे या एक दिन की बात नहीं थी, बल्कि लगातार चलने वाली प्रक्रिया थी। स्थानीय बोलचाल में इस निरंतर बारिश को ‘झड़ी’ कहा जाता था और बरसने वाले दिनों की संख्या से इसे पहचाना जाता था। मुझे याद है, मां हमारे स्कूल यूनिफॉर्म को हीटर के सामने सुखाती थीं। शहर में बरसात के दिनों की अधिकता के कारण लगभग हर घर में सीलन और रिसाव की शिकायत आम थी।
ऐतिहासिक रूप से, मसूरी की ओर राजपुर इलाका हमेशा से सबसे अधिक वर्षा वाला क्षेत्र रहा है।
बरसात का भी अपना ही रंग था। कई बार सड़क के एक तरफ बारिश हो रही होती, जबकि दूसरी तरफ बिल्कुल सूखा रहता। बचपन में मुझे याद है कि मुख्य गेट से कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते बीच रास्ते में ही भीग जाती थी। छाता या रेनकोट साथ रखना हमारी मजबूरी थी।
सर्दियां भी बेहद कड़ी होती थीं। मुझे याद है कि आधी बांह का हाथ से बुना स्वेटर पहनकर उसके ऊपर दो परत गरम कपड़ों की पहननी पड़ती थी। केवल तपती गर्मियों के दिनों में ही पंखे की जरूरत होती थी। मैं तो हमेशा ठिठुरती रहती थी और जब भी पंखे की स्पीड कम करके ‘एक’ करती या उसे बंद कर देती, तो मेरे भाई-बहन मजाक उड़ाते थे।
देहरादून का मौसम अन्यथा हमेशा सुखद रहता था। दिवाली के समय (अक्टूबर के आस-पास) सर्दियों का आगमन हो चुका होता था। मध्य अप्रैल तक सर्दियां कड़ी रहती थीं। उस समय मसूरी के बर्फ से ढके पहाड़ बिलकुल स्पष्ट दिखाई देते थे, बिना किसी इमारत या धुंध के आवरण के। ऐसी बर्फीली पहाड़ियों का दृश्य आखिरी बार 2020 के कोविड लॉकडाउन के दौरान ही दिखाई दिया था। अब सर्दियों की अवधि घट गई है।
स्वर्ग खो गया
बेशक, ये सब यादें बहुत पहले की हैं। मेरा बचपन वाला देहरादून बदल चुका है और तेजी से बदल रहा है। लगभग तीन दशक (1989 से 2025 के बीच) में, देहरादून, जो कभी एक प्यारा-सा छोटा कस्बा था, एक हलचल भरे शहर में बदल गया है।
उत्तराखंड की राजधानी बनने के बाद, यह कस्बा तेजी से फैल गया है। इस शहरी फैलाव ने शहर के पुराने जमाने के आकर्षण को धुंधला कर दिया है।
जब 2000 में देहरादून उत्तराखंड की राजधानी बना, तो कुछ ही वर्षों में पास के बड़े शहरों के लोग यहां बसने आने लगे। सरकार ने उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सेलाकुई और मोहब्बेवाला में औद्योगिक क्षेत्र चिन्हित किए। इस मानसून में ये दोनों क्षेत्र गंभीर रूप से बाढ़ की चपेट में आए, क्योंकि नदियों और मौसमी नालों ने अपना क्षेत्र फिर से हासिल कर लिया।
धीरे-धीरे शहर और इसके आसपास ऊंची इमारतें, आवासीय और वाणिज्यिक परिसर उगने लगे, जबकि इसके जल स्रोत, जंगल और कृषि क्षेत्र जमीन के लालची मालिकों द्वारा कब्जा लिए गए। भूमि उपयोग और भूमि आवरण (एलयूएससी) अध्ययन के अनुसार, 2003 से 2017 के बीच, विशेष रूप से रिस्पना नदी के जलग्रहण क्षेत्र में, अचानक निर्माण क्षेत्र में वृद्धि देखी गई।
2022 में प्रकाशित इस अध्ययन के लेखकों ने बताया कि अधिकतम परिवर्तन राजीव नगर, डिफेंस कॉलोनी और दीप नगर के वार्ड में हुआ। इसके अलावा, शहर के सहस्त्रधारा क्षेत्र के छोटे वन भूभाग (जो इस वर्ष बाढ़ के कारण गंभीर रूप से प्रभावित हुए) को शहरी क्षेत्रों में परिवर्तित किया गया। इस क्षेत्र में कई आवासीय सोसाइटीज का निर्माण हुआ।
परिणाम सबके सामने हैं। चिड़ियों की चहचहाहट की जगह तेज और कर्कश हॉर्न ने ले ली है। धीरे-धीरे खेतों की जगह रियल एस्टेट ने ले ली। खेतों के गायब होने के कारण शहर में मेंढकों और झींगुरों की आवाजें भी सुनाई नहीं देतीं।
लेकिन देहरादून का पानी के साथ रिश्ता सबसे अधिक बिगड़ा है।
सालों के दौरान, शहर में वर्षा का पैटर्न बदल गया है। अब बारिश जोरदार होती है, लेकिन इसकी अवधि बहुत कम होती है। यह पहले की तरह 1990 के शुरुआती दशक में या शहर के राजधानी बनने के कुछ वर्षों बाद जैसी लगातार बरसात नहीं होती।
आज, देहरा की नदियां बिंदाल और रिस्पना मरती जा रही हैं या पहले ही मर चुकी हैं।
2005-06 तक स्थानीय दूधवाले साइकिल पर ताजा दूध पहुंचाया करते थे और हमें आर्मी कैंटीन से सफेद मक्खन और पनीर मिलता था। उस समय चंडीगढ़ के प्रसिद्ध वेरका (दूध सहकारी) का सफेद मक्खन और छाछ मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव था। कुछ ही वर्षों में, उत्तराखंड में अंचल, मधुसूदन और अन्य दूध सहकारी समितियां शुरू हुईं। आज, शहर की नदियां और नाले दूध के खाली पैकेटों और कचरे से भर गए हैं। यहां तक कि दून की कभी अविरल बहने वाली नहरें भी ढक दी गईं, क्योंकि लोग उनमें कचरा और पशु का गोबर फेंकने लगे।
आज, बिंदाल नदी अपनी चौड़ाई में सिकुड़ गई है और इसका मार्ग सीमेंट की संरचनाओं, जैसे एक ऊंची ‘सुरक्षा दीवार’ के कारण बदल गया है। नदी के आसपास की हवा में बदबू है, क्योंकि यह शहर की गंदगी और विषैले कचरे को अपने साथ बहा रही है, जबकि इसके किनारे पर कचरा फेंकने का मैदान बना हुआ है।
पुराना देहरा, जिसकी मोहकता के बारे में बॉन्ड ने अपनी किताब में लिखा था, अब हमेशा के लिए खो चुका है। यह इतिहास के पन्नों में समा गया है, एक खोया हुआ स्वर्ग।
मेघा प्रकाश एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिन्हें विज्ञान, स्वास्थ्य और प्रौद्योगिकी की रिपोर्टिंग में एक दशक से अधिक का अनुभव है।