लुटता हिमालय: अंग्रेजों के जमाने से जारी है हिमालय का दोहन

हम इस क्षेत्र की वहन क्षमता का निरंतर अतिक्रमण कर रहे हैं जो इसके चलते धीरे-धीरे और कमजोर होता जा रहा है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने साफ कहा है कि संसाधनों के उपयोग की मौजूदा पद्धति किसी रूप में कारगर नहीं है
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद
Published on

उत्तराखंड के जोशीमठ में भूधंसाव की घटनाओं ने हिमालय के प्रति चिंता को बढ़ा दिया है। साथ ही, हिमालयी राज्यों में विकास के मॉडल को लेकर हमारी समझ पर सवाल खड़े किए है। मासिक पत्रिका डाउन टू अर्थ, हिंदी का फरवरी 2023 का विशेषांक इसी मुद्दे पर है। इस अंक की अलग-अलग स्टोरीज को वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। सबसे पहले आपने पढ़ा, जोशीमठ से उठते सवालों पर बात करता डाउन टू अर्थ की संपादक सुनीता नारायण का लेख। इसके बाद आपने पढ़ी, ग्राउंड रिपोर्ट। आज पढ़ें, माधव गाडगिल का लेख-  

भारत एक प्राचीन सभ्यता का देश है l सामाजिक स्तर पर विविध असमानताओं के बावजूद अलग-अलग समुदायों के रूप में हमने इस पृथ्वी पर अपने भावी जीवन का रास्ता बनाने के लिए एक विलक्षण एकजुटता का परिचय दिया है। चूंकि उस समय परिवर्तन और नवाचार की तकनीकें बहुत सीमित थीं, इसलिए एक समुदाय के तौर पर हर मनुष्य से भी यही अपेक्षाएं थीं कि वह अपने आसपास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी निर्भरता पर ही अपना जीवनयापन करे। परिणामस्वरूप मनुष्यों ने पूरे देश में संसाधनों के प्राकृतिक स्रोतों को संरक्षित रखने और उनकी आजीवन खपत करने के लिए पारंपरिक पद्धतियां विकसित कर लीं l

इसीलिए आरंभिक ब्रिटिश यात्रियों के वर्णनों में भारत को वन्यजीवों और पेड़ों से भरापूरा बताया गया था। 1820 में शिमला के निकट एक सैन्य-टुकड़ी का नेतृत्व करने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के फ्रेजर ने देश के ग्रामीण इलाकों को विशिष्ट ब्रिटिश शैली में कुछ इस प्रकार उल्लेख किया है, “हिमालय पर्वतमालाएं अद्भुत हैं। प्राकृतिक स्वरूप की दृष्टि से ऐसी कोई दूसरी पर्वतमाला मैंने देखी हो, यह मुझे याद नहीं है l यहां लगे हुए पेड़ विशाल आकार के थे l एक पेड़ की परिधि 27 फीट थी जो कमोबेश उसकी ऊंचाई के बराबर थी l चीड़, शूलपर्ण और शाहबबूत के पेड़ ही सिर्फ आकारों में ही विशाल नहीं थे, बल्कि उनकी विराटता एक अलग तरह की भव्यता का भी बोध कराती थी।”

विश्व को आधुनिक विज्ञान और उसकी तकनीक को आजमाने का मार्ग दिखाने वाला ब्रिटेन था l विज्ञान के इसी विकास ने उसे समुद्र की यात्रा करने और धरती के सुदूर क्षेत्रों पर युद्ध कर पाने में समर्थ बनाया l इसलिए यह कहा गया था कि ब्रिटिश साम्राज्य पर सूरज कभी अस्त नहीं होता था l ब्रिटिश सम्राट के ताज का सबसे कीमती नगीना भारत था और इसके पीछे का कारण उन अकूत संसाधनों का दोहन था जो ब्रिटेन के विकास और आधुनिकता की निरंतर बढ़ती मांगों को पूरा करने में सक्षम था। संसाधनों की इस निकासी से भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह हिमालय भी नहीं बच पाया l इस विशाल पर्वतमाला की रचना तब हुई जब महादेशीय विस्थापन के क्रम में भारत भूभाग टेथिस सागर को पार कर गया और एशियाई मुख्य भूभाग से जा टकराया। यह कोई 5 करोड़ वर्ष पहले की बात है। हिमालय की विशाल चट्टानें टेथिस सागर की तलछटों से ही बनी हैं और बेहद कमजोर हैं। इस पर्वतमाला के धीरे-धीरे बढ़ने की प्रक्रिया अभी भी जारी है, इसलिए भूकंप की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत संवेदनशील है। अपने विकास के क्रम में हिमालय की ढलानों पर शाहबतूत और बुरांश के पेड़ एक वनस्पति-आवरण की तरह उग आए हैं जिन्होंने मिट्टी और पानी को एक-दूसरे से बांधे रखने में बड़ी भूमिका निभाई। इसी कारण से अपक्षरण और भूस्खलन पर भी अपेक्षाकृत नियंत्रण रहा। सदियों से पर्वतमाला की तराइयों और ढलानों पर छोटे-छोटे गांव-कस्बे बसे, लेकिन स्थानीय लोगों ने यहां बसने के क्रम में प्रकृति, पहाड़ और पेड़ों के लिए निर्धारित कानूनों का सदैव सम्मान किया और इस सम्मान ने इन पर्वतमालाओं पर वनों के आवरण को भी सुरक्षित बचाए रखने का काम किया। समुदायों ने इन वन्य संसाधनों का बेहद सतर्क और न्यूनतम उपयोग किया l

जोशीमठ भी ऐसी ही एक पुरानी बस्ती है, जिसकी उम्र आदि शंकराचार्य (9वीं शताब्दी) से थोड़ी अधिक ही है l यह माना जाता है कि बद्रीनाथ जाने के क्रम में तीर्थयात्रियों की एक टुकड़ी इस स्थान के आध्यात्मिक आकर्षण में ढलानों पर चढ़ी थी। यह भी माना जाता है कि सितंबर के महीने में जब ब्रह्मकमल खिलते थे, तब यहां दर्शन के लिए जाना अपरिहार्य समझा जाता था। ये श्रद्धालु वहां नंगे पैर ही गए थे। ये बातें इसकी पुष्टि करती हैं कि इस भूभाग में आदमी का हस्तक्षेप किस हद तक सीमित था। लोग इसका खयाल रखते थे कि इसकी सुकोमल पारिस्थितिकी की वहन क्षमता पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़े l

किंतु ब्रिटिश घुसपैठ ने वस्तुस्थिति को अचानक पूरी तरह बदल दिया। उन्होंने टिहरी के महाराजा से वनों को पट्टे पर हासिल कर लिया। जब 1905 में आरक्षित वनों को रेखांकित किया जा रहा था, तब कुछ अधिकारियों का मानना था कि इन तरीकों को अपना कर व्यवसायिक वानिकी को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। उनका सुझाव था कि आरक्षित वनों को समुदायों द्वारा प्रबंधित वनों में बदल दिया जाए। सरकार ने इस सुझाव को अस्वीकृत कर दिया और 1930 में वन विभाग के पदम सिंह रतुड़ी ने ग्रामवासियों को अपने मवेशियों को ऊंची चोटियों से नीचे फेंक देने को कहा और आगे से पशुओं को आरक्षित वनों में घास चरने पर रोक लगा दी गई थी। क्षुब्ध लोगों ने उसे अगवा कर लिया था लेकिन वह किसी तरह से क्रुद्ध लोगों से नजर बचाकर भाग निकलने में सफल रहा। इस बीच स्थानीय लोगों ने एक समानांतर सरकार का भी गठन कर डाला। टिहरी के महाराजा देश से बाहर थे। राज्य के दीवान ने लोगों को तितर-बितर करने के इरादे से अपने आदमियों को गोली चलाने का आदेश दिया l इस हादसे में 200 से भी अधिक लोग मार डाले गए।

दिल्ली में ब्रिटिश-सत्ता के उत्तराधिकारी अपने लोभ के लिए हिमालय के वन और जल संसाधनों का दोहन करने पर आमादा थे, जबकि दूसरी तरफ भूस्खलन की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही। वन प्रबंधन की औपनिवेशिक दृष्टि ने सामुदायिक प्रबंधन और अति सक्षम वन पंचायतों को भी धीरे-धीरे निःशक्त बना दिया। सड़कों और इमारतों का निर्माण हमेशा से एक लाभप्रद व्यवसाय रहा है और इन निर्माण-कार्यों में चूने की आवश्यकता पड़ती है। क्षेत्र में अधिकांश जलस्रोत मसूरी के चूनापत्थरों खदान की गाद से निर्मित हुए हैं। नतीजतन इन धाराओं के तल खेती के भूमि को कब्जाने के कारण अधिक चौड़े हो गए हैं। जब यह बात स्पष्ट रूप में बताई गई कि खेती योग्य भूमि के विनाश की कीमत खदान से होने वाले लाभ से कहीं अधिक है, तब सरकार ने खनन-कार्य को रोक देने का आदेश दिया। दुर्भाग्यवश इस आदेश पर अदालत ने स्थगन लगा दिया और खुदाई का काम जारी रहा, परिणामस्वरूप पहाड़ों की तलहटी में पेड़ों की कटाई के साथ-साथ जल संसाधन और उर्वर भूमि को विनष्ट करने का काम साथ-साथ बदस्तूर चलता रहा l

सुन्दरलाल बहुगुणा और दूसरे अनेक संगठनों द्वारा वृहद रूप में लेकिन असफल विरोध के बाद से ही विशाल टिहरी बांध परियोजना अब हिमालय के जल संसाधनों को नियंत्रित किए हुए है l फरवरी 2021 की चमोली त्रासदी को लोग अभी भी भुला नहीं पाए हैं जो इस इलाके की पारिस्थितिकी की छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप घटी बड़ी घटनाओं में एक थी। यह घटना रोंटी शिखर से भौतिक अपशिष्टों के विस्थापन की वजह से हुए एक विशाल चट्टान और हिमखंड के स्खलन के कारण घटी थी। इसके कारण ऋषिगंगा, धौलीगंगा और अलकनंदा में अचानक तेज बाढ़ आ गई थी l परिणामस्वरूप 200 से भी अधिक लोग या तो मारे गए या लापता हो गए जिनमें से अधिकतर तपोवन बांध-स्थल पर काम करने वाले श्रमिक थे। गौरतलब है कि इस दुर्घटना से जो आर्थिक क्षति हुई वह बांध से होने वाले लाभ से कहीं अधिक थी।

जोशीमठ पर आई आपदा के पीछे भी कमोबेश यही वजहें रही हैं। स्पष्ट है, हम इस क्षेत्र की वहन क्षमता का निरंतर अतिक्रमण कर रहे हैं जो इसके चलते धीरे-धीरे और कमजोर होता जा रहा है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने साफ कहा है कि संसाधनों के उपयोग की मौजूदा पद्धति किसी रूप में कारगर नहीं है। हमें मुड़कर देखना होगा और पारिस्थितिकी की पुनर्स्थापना के कार्यक्रमों पर खुद को एकाग्र करना होगा। यह काम तभी संभव है जब समावेशी विकास और समावेशी संरक्षण को एकाग्र रूप में पुनर्स्थापित करने के प्रयास किए जाएं।

इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए हमें इस क्षेत्र के लोगों को मजबूत करना होगा, जिनके साथ अभी तक सौतेला व्यवहार किया जाता रहा है। उनके पारंपरिक वन पंचायतों को वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप सामुदायिक वन अधिकारों के क्रियान्वित कर अधिक विस्तृत बनाने की आवश्यकता है। स्थानीय स्वशासी निकायों को संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन-प्रदत्त अधिकारों के द्वारा नदियों और अन्य जल-स्रोतों समेत सभी प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण-नियंत्रण देना होगा। निरंतर तेजी से बढ़ते हुए पर्यटन व्यवसाय में स्थानीय नागरिकों की साझेदारी को प्रोत्साहित करना होगा ताकि पर्यटकों को आवासीय तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराने और बदले में आर्थिक आमदनी के अवसरों को सुनिश्चित किया जा सके l इस भूभाग का पारंपरिक प्रचलन भी यही हुआ करता था। इस तरह के साहसिक और नए प्रकृति-उन्मुख और लोकोन्मुख पहल को अपनाने की स्थिति में ही देवताओं के वास करने वाले इन पहाड़ों के पुराने गौरव की पुनर्स्थापना संभव है।

जारी ...

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in