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तेलुगु प्रतिरोध की पड़ताल करती पुस्तक ‘वॉइसेस ऑफ रेजिस्टेंस’

हमारा अस्तित्व हमारे प्रतिरोध से है. प्रतिरोध का अर्थ किसी प्रकार की नकारात्मकता या अनायास उपजा क्रोध नहीं, यह समाज और सत्ता की लोक-विरोधी नीतियों का प्रतिकार कर अधिक मानवीय और न्यायपूर्ण संसार रचने-गढ़ने का यथार्थवादी और वैचारिक सपना है
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।“...बेचैनी मेरा जीवन है

उद्वेलन मेरी सांसे

विद्रोह मेरा ग्रन्थ

कांटे, पत्थर, बाधायें समक्ष

फिर भी

यह मार्ग मेरा है...”.

(श्रीनिवास राव)

हमारा अस्तित्व हमारे प्रतिरोध से है। प्रतिरोध का अर्थ किसी प्रकार की नकारात्मकता या अनायास उपजा क्रोध नहीं, यह समाज और सत्ता की लोक-विरोधी नीतियों का प्रतिकार कर अधिक मानवीय और न्यायपूर्ण संसार रचने-गढ़ने का यथार्थवादी और वैचारिक सपना है- और इन सपनों की हलचल से समाज में आशाओं का संचार होता है।

वोल्गा और कल्पना कन्नाबीरन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘वॉइसेस ऑफ रेजिस्टेंस: तेलुगु प्रोग्रेसिव पोलिटिकल लिटरेचर’ (2023), पुस्तक में कविताएं, कहानियांं और निबंध आदि के रूप में जिन अन्य साहित्यिक सामग्रियों को लिया गया है वे इसी मूल भावना से प्रेरित है। इसपर ‘अधीनस्थ-उपागम’, अर्थात; जन-साधारण के दृष्टिकोण का प्रभाव है।

जनसमुदाय का दृष्टिकोण हमेशा ही सत्ता के दृष्टिकोण से बड़ा और समावेशी होता है. अक्सर ही सामुदायिक संघर्ष और उनके अवदान विस्मृत कर दिए जाते हैं। और व्यक्तिगत अहंकार अतिरंजित रूप में इतिहास में स्थापित कर दिया जाता है,, लेकिन अगर तेलुगु कवि त्यागराज के शब्दों में कहें तो “हमारे समक्ष अनगिनत महान आत्माएं हैं: उन सभी को हमारा प्रणाम”।   

दक्षिण के बारे में हम हिंदी भाषी कम जानते हैं। यह कम जानना इतिहास-लेखन में इसकी उपेक्षा का भी परिणाम है. इस बात का रोष इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ साउथ इंडिया’ में व्यक्त करते हैं।

समाज को जानना साहित्य के बिना संभव नहीं।। और कठिनाई यह है कि किसी समाज का सम्पूर्ण साहित्य पढ़ा जाना आमतौर पर दुष्कर है, उसपर से भारतीय समाज का जो व्यापक रूप से विविध है। ऐसे में पुस्तक तेलुगु साहित्य के सहारे दक्षिण के एक बड़े हिस्से के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को समझाने का प्रयास करती है।

दरबारी और सत्तापोषित साहित्य से इतर तेलुगु साहित्य में अन्तर्निहित प्रतिरोध और सरोकारी लेखन की पड़ताल करते हुए यह पुस्तक इतिहास के विभिन्न कालखंडों के संघर्षों और उसकी पीड़ा का एक शानदार संग्रह है। और इस हेतु संपादकों ने तेलुगु शास्त्रीय साहित्य के साथ-साथ तेलुगु के वर्तमान साहित्य का भी सहारा लिया है।

इतिहास को खंगालना सरल नहीं, यह वर्तमान की तरह ही उलझी हुई प्रक्रिया है, लेकिन यह पुस्तक बड़ी सहजता से इतिहास की विभिन्न अँधेरी गलियों में प्रवेश कर समाज और सत्ता को परिवर्तित करनेवाले साहित्य को समक्ष लाती है।

जब माना जा रहा है कि लेखक, कवि, पत्रकार आदि अपने जन-सरोकार का त्याग कर सत्ता की कीर्तन मण्डली बन गए हो, ऐसे में तेरहवी सदी के काकतीय साम्राज्य के कवि तिकन्ना की चर्चा सार्थक है। उन्हें महाभारत का तेलुगु में अनुवाद करने का श्रेय जाता है, और उन्हें कवि-ब्रह्म का भी दर्जा प्राप्त है. यह जानना सुखद है कि राजतन्त्रकालीन दौर में अपने लेखन में तिकन्ना राजा के अहंकार को चुनौती देते हैं और लिखते हैं-   

“प्रजा चाहे कुछ भी कहे

अपने हृदय को तुष्ट करने के लिये,

हे राजन

आप भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार न करें

और यही

धर्मसम्मत भी है”.

(तिकन्ना)

इसी तरह इनके शिष्य मंछेना भी अपनी रचनाशीलता में सामाजिक सरोकारों से सरोबार थे. उन्होंने भी अपनी रचनाओं को राजसत्ता के चरणों में समर्पित करने से इंकार कर दिया, जबकि आज लोकतंत्र के दौर में स्थिति यह है कि लेखनकर्म से जुड़े अधिकांश लोग सत्ता की सेवा में साष्टांग कर रहें हैं। वे लिखते हैं-

“सिवाय इसके कि

कविता रूपी सुंदरी को बेचकर,

जो आम के नए कोमल पत्तों की तरह है

और फिर एक वेश्या की तरह

उससे रोटी खाई जाए  

सच्चे कवि के लिए बेहतर है

जंगल में

कंद-मूल को खोदकर

अपना, अपनी पत्नी, और बच्चों का पेट भरा जाय”

(मंछेना)

भारतीय समाज में विषमता और भेदभाव को अक्सर धार्मिक आधारों से वैधता देने का प्रयास होता है, और इस सन्दर्भ में पंद्रहवी सदी के मौखिक परम्परा के कवि अन्नामचार्य एक बड़े उदाहरण हैं जिन्होंने समता और बंधुत्व पर मुखरता से बोला, जबकि वे श्री वेंकेटश्वरा के भक्त थे. उन्होंने कम से कम तीन हजार संकीर्तनों को रचा था। वे किसी प्रकार के सामाजिक विभाजन के विरोधी थे, और उन्होंने आत्मा और सभी मानवीय अस्तित्व के एक होने का प्रवर्तन किया। उन्होंने समानता का गीत गाया:

“जैसी है राजा की नींद

वैसी ही है नींद सेवकों की,

धरती पर ही हो जाता है  

श्रेष्ठतम ब्राह्मणों का अंत

वैसे ही जैसे

मर जाते हैं

विनम्र चांडाल इस धरा पर”.

(अन्नामचार्य)

इसी तरह उन्नीसवी सदी के समाज सुधारक कंदाकुरी विरेसलिंगम पन्तुलु अपने तार्किक विचारों से समाज में एक नयी चेतना गढ़ रहे थे। उन्होंने अपने नाटकों, आलेखों आदि के द्वारा बहुत सी सामाजिक और धार्मिक बुराइयों पर आघात किया. विधवाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए उन्होंने इनके पुनर्विवाह की वकालत की।

साथ ही महिलाओं की शिक्षा और सुरक्षा को देखते हुए उन्होंने स्कूल और आश्रय गृहों की भी स्थापना की। इसके अतिरिक्त अन्याय और उत्पीड़न से भरे समाज के विरुद्ध क्रांतिकारी कवि सत्यमूर्ति अपनी कविताओं से लोक-क्रांति और जन-संघर्षों की अमरता की घोषणा करते प्रतीत होते हैं, जब वे लिखते हैं-  

“मरते हुए बीजों ने फसल का वादा किया

नन्हे गिड़ते फूलों ने

मुस्कुराते हुए

अनाज देने का, और

आग से लिपटे जंगल ने  

प्रचंड ज्वाला की घोषणा की  

डूबते हुए सूरज ने

रौशनी फैलाने का उद्घोष किया,

अमरता श्रेष्ठतम है

समय का आलिंगन करते हुए  

इसने नए संसार का वादा किया”.

(सत्यमूर्ति)

खेतिहर-मजदूरों और दलितों का प्रश्न बड़ा मुद्दा रहा है, और इस सन्दर्भ में बीसवी सदी के गुंटूर जिले के प्रसिद्ध लेखक कोलाकलुरी एणोच का लेखन अहम् स्थान रखता है। मजदूर वर्ग, दलित और अन्य वंचित समुदायों के इर्द-गिर्द घूमता उनका रचना संसार अत्यंत ही संवेदनशीलता के साथ उनके शापित जीवन के संघर्षों और तपिश का चित्रण करता है।

उनके लेखन के कुछ अंशों से इसे समझा जा सकता है- “...रवादु कोई मनुष्य नहीं था, वह एक मशीन की तरह था। सूरज की तरह वह अपने खेत में जलता था, और फिर रात को घर लौट आता था. वह अपने खेत में खून और पसीने से नहाता था। गांव ने कभी रवादु का चेहरा नहीं देखा था. उसके बच्चों ने भी उसे नहीं देखा था।

उसकी पत्नी ने भी उसके चेहरे को नहीं देखा था. सूरज ने भी नहीं देखा था. केवल उसके खेतों ने उसे देखा था...”. निस्संदेह यह भारतीय किसान का एक दुखद पक्ष है। यह भयावह सच कल का भी था और संभवतः आनेवाले कल का भी। आगे कोलाकलुरी एणोच किसान के पथरीले जीवन के बारे में लिखते हैं- “रवादु की आँखों में आंसू नहीं थे। कोई गुस्सा नहीं था।

पत्थर सूरज की रौशनी से गर्म नहीं होता, और परछाइयों में कभी ठंडा नहीं होता... रवादु धरती का पुत्र था. कुछ भूमि का टुकड़ा उसका सम्पूर्ण अस्तित्व था..”. और एक समय कर्ज के कारण उसका खेत छीन लिया गया, तब सूदखोरी की व्यवस्था का वर्णन विचलित करनेवाला है- “...सौ रूपये का एक कर्ज लिया था उसने। सूद के साथ बढ़कर यह एक हजार हो गया...उसका खेत ले लिया गया. वह भूमि पर लेट गया।

उसने भूमि को आलिंगनबद्ध करने का प्रयास किया, मानो यह उसकी संतान हो, या कोई सम्बन्धी या माता या पिता. वह फिर से धरती से सिमट गया। उसके मुंह धूल में सन गए. वह मिट्टी जिसने उसका खून और पसीना पीया था, स्थिर रहा। वह अपने पुत्र को अपने पेट से चिपकाये चुप रहा ...”. वैश्विक पूंजीवाद जिसने भूमि के भाव पक्ष को मार डाला है, जिसके लिए भूमि बस खरीद और बेच दी जानेवाली वस्तु है, उसके संदर्भ में देखें तो आज यह स्थिति कम या अधिक सम्पूर्ण भारत के गाँवों की है, जहाँ विकास के सरकारी-गैरसरकारी नारों के साथ ऐसी आर्थिक परिस्थितियां जन्म ले रही है जिससे न चाहते हुए भी किसान अपने खेत से वंचित हो रहा है।

वैश्वीकरण से हुई समाजिक विद्रूपताओं को दिखाने के लिए पुस्तक ने बीसवीं सदी के लघु कथाकार मधुरंताकाम राजाराम की रचनाओं की सहायता ली है।

राजाराम अपनी एक कहानी में अपने पात्र के हवाले से कहते हैं- “यह शहर मेरे लिए नया है. ये लोग भी मेरे लिए नए हैं. इनकी बातचीत भी मेरे लिए नयी है. ..यहांं मैं एक पहाड़ी बकरे की तरह हूँ जिसे बाजार में लाया गया है. वे वनों को जंगल कहते हैं, जबकि वन इन शहरों से कहिं अधिक बेहतर है. यहाँ आप पत्तियों और अन्य घास-फूस, फल-फूल खा सकते हैं। बहते जलाशयों में पानी पी सकते हैं, और फिर पेड़ों की शीतल छाया में सो सकते हैं। यहां (शहरों में) ऐसा नहीं है. .. वे तुम्हे वह काम नहीं करने देंगे जो आप चाहते हैं”।

  आज जब यौनिकता पर चर्चा एक लज्जास्पद विषय है, ऐसे में उन्नीसवी सदी के प्रभावशाली चिन्तक गुडूपति वेंकटचलम के लेखन को अत्यनत ही साहसिक माना जा सकता है। उन्होंने खुलकर मानवीय कामनाओं और इसकी प्रकृति पर लिखा। वे लिखते हैं- “यौनिकता जीवन का विधान है. बचपन से लेकर बुढ़ापा तक यह जीवन को संचालित करता है, चाहे इसके प्रति सजग हो या न हों। यह बेकार बात है कि कोई इसके महत्त्व को नकार दे।

कोई जीवन नहीं है इसके बिना। यह कहना कि यौनिकता प्रेरक शक्ति नहीं है, यह ऐसा है जैसे हम जीवित ही नहीं है, या फिर जीवन का कोई महत्व नहीं। वे जो इसे सहजता से स्वीकारते हैं और इससे प्रेरित होते हैं वे वरदानी लोग हैं”। पुस्तक में अन्य अनेक समकालीन प्रतिरोधी लेखकों और कवियों की रचनाएँ हैं, जैसे गदर, बी. एस. रामुलु, आर.वी. शास्त्री, पोटापल्ली रामा राव, गरिमेल्ला सत्यनारायण, जलुला गोवरी, ख़वाजा, याकूब आदि अनेक।

इनकी रचनाये प्राचीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषमताओं से लेकर मध्यकाल और आधुनिक समय तक की एक मुखर प्रतिरोधी आवाज है- जिसमें लोकमन की व्यथा का चित्रण है. खम्मम जिले के आधुनिक कवि ख़वाजा की तीन रचनाएँ तो काफी प्रसिद्ध हुई थी- फतवा, शरियत, और जिहाद. मजहबी मतान्धता, और उसमें मौजूद भेदभाव पर उनकी एक लेखनी है-

“मस्जिद

चार गुम्बदों में विभाजित है,

एक मजहब

जिसने अनगिनत धागों को बुना था, लेकिन अब  

ये मनु-मुल्ला के हाथों में है

जिसने हमें छोटे-बड़े में खंडित किया

ये कहते हुए कि सब बराबर है

वे अल्लाह की आँखों में मिर्ची डालते हैं

मेरी यात्रा की सीढियाँ वे काट रहें

ताकि मुझे छोटा बनाया जा सके

यह कहानी है

झूठे-मक्कार मौलवियों की

वे मेरे कलमा में अशुद्धियाँ तलाशते हैं

और मेरी नमाज में कमियां,

अंततः उन्होंने मुझे लदफ (छोटी जाति) कहा,

यह कहानी है

खानदानी षड्यंत्रकारियों की

मैं एक मुसलमान हूँ

नहीं, एक सेबू (छोटी जाति) हूँ

नहीं, नहीं एक पिंजारी (छोटी जाति)

आह, मैं एक नूर बाश (छोटी जाति) हूँ

ओह, मैं तो हूँ

सूत काटने वाला कामगार”

(ख़वाजा).

     भारत अनेक सत्यों का देश है और यह समझा जाना चाहिए कि यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है. अनगिनत सत्यों ने किसी एक सत्य के वर्चस्व को स्थापित नहीं होने दिया और ऐसी प्रवृतियों ने ही यहाँ के लोकतंत्र की जड़े बनाई है. इस अनेक सत्य के स्थायित्व के लिए तेलुगु समाज में बड़ी संख्या में हर काल में एक सक्रिय प्रतिरोधी साहित्य उपलब्ध रहा है।

सन्दर्भ पुस्तक: Volga & Kalpana Kannabiran (edited), Voices of Resistance: Telugu Progressive Political Literature (2023), G. N. Devy (Series editor of Dakshinayan Indian Thought) & Translated by Vasanth Kannabiran. Orient BlackSwan, Hyderabad.  

नोट: (सभी कवितायेँ या पंक्तियाँ उपरोक्त पुस्तक से ही ली गई हैं. समीक्षा में दी गई कविताएं या कविताओं के अंश केयूर पाठक द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित).  

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