शांति मंत्रालय की भावना और संभावना
महात्मा गांधी कहते थे कि - यह जीवन ही मेरा संदेश है। लेकिन, महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतवासी अर्थात समाज और सरकार उनके संदेशों को कैसे सार्थक करे - यह तय करने मे हमनें दशकों खर्च कर दिए।
हमारे आधे-अधूरे प्रयास इस सत्य का प्रमाण है कि हम सब महात्मा गांधी के संदेशों को लेकर कितने संजीदा रहे। सत्य तो यह है कि, महात्मा गांधी के सिखाये और दिखाये मूल्यों को दफन करते हुये, समाज और सरकार दोनों के द्वारा अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्धारण न कर सकने की वांछित अक्षमता के पर्याप्त कारण (हम ही) हैं।
वास्तव में, महात्मा गांधी के मूल्यों के दर्पण में अपना अक्स देख सकने का सामर्थ्य ही, हमारी भूमिकाओं को निर्धारित करने की प्रथम कसौटी होगी। जाहिर है, भारत सहित पूरी दुनिया में, शांति की धूमिल होती संभावनाओं के संक्रमणकाल के मध्य, अब तो हम सामर्थ्यहीन होने का जोख़िम नहीं ही ले सकते।
महात्मा गांधी आज कितने प्रासंगिक हैं? पूर्वाग्रह से ग्रसित इस प्रश्न की भावना और उत्तर की संभावना के दोनों ओर हम खुद ही हैं।
भारत से बाहर, दुनिया के अनेक देशों ने इन संभावनाओं को साकार करने का सफल प्रयास किया। वर्ष 2018 में पूर्वी अफ्रीका के एक महत्वपूर्ण देश - एथोपिआ में एक सशक्त और अधिकार-सम्पन्न मंत्रालय का गठन हुआ जिसे 'शांति मंत्रालय' नाम दिया गया।
एथोपिआ का यह शांति मंत्रालय, मूलतः शांति, लोकतंत्र और विकास जैसे विषयों पर नये दृष्टिकोण के साथ कार्य करने हेतु बनाया गया। इस महत्वपूर्ण मंत्रालय की कमान, मुफ़ीरियत क़ामिल जैसी मजबूत और दूरदर्शी महिला को दी गई, जिन्होंने जनता और सरकार के मध्य राजनैतिक एकता बनाने की ऐतिहासिक पहल प्रारंभ की।
इस शांति मंत्रालय की पहल से ही एथोपिआ के मेटिकल क्षेत्र में शांति और सुलह के प्रयास हुये और वर्ष 2020 में शांति समझौता हुआ, जिसके पलस्वरूप सूडान के ब्लू नील और एथोपिआ के बेनिशांगुल-गुमुज प्रान्त में 'संयुक्त विकास' का सर्वमान्य प्रारूप तैयार हुआ। दिलचस्प है कि शांति मंत्रालय के माध्यम से इस सफल प्रयास की नेतृत्वकर्ता मुफ़ीरियत क़ामिल - महात्मा गांधी को अपना एक प्रेरणास्रोत मानती हैं।
यह महज संयोग नहीं है कि वर्ष 2007 में नेपाल में 'शांति और पुनर्निर्माण मंत्रालय' का गठन किया गया जिसका उद्देश्य, गृहयुद्ध के बाद हुये शांति समझौते (2006) को लागू करना था।
वास्तव में नेपाल में 'शांति और पुनर्निर्माण मंत्रालय' का मार्ग - वर्ष 2003 में स्थापित ‘शांति वार्ता समन्वयन सचिवालय’ से प्रारंभ हो कर ‘स्थानीय शांति समिति’, ‘नेपाल शांति कोष’ और फिर ‘संविधान संवाद केंद्र’ के माध्यम से हुए सामाजिक प्रयासों को, स्थायी संस्थागत स्वरुप देने के लिये, नेपाल सरकार द्वारा उठाया गया ऐतिहासिक कदम रहा।
वर्ष 2007 में एकनाथ ढकाल को शांति मंत्रालय की कमान दी गयी। ढकाल 'इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ पार्लिअमेंटरीअन्स फॉर पीस' के एशिया पैसिफिक क्षेत्र के अध्यक्ष भी बनाये गये। एकनाथ ढकाल अपने अध्ययन के समय से ही महात्मा गांधी जी को प्रेरणा मानते रहे।
एथोपिआ और नेपाल के प्रयासों के साथ-साथ, वर्ष 1994 में आयरलैंड में राजनैतिक शांति और सुलह प्रयासों के लिये हुये 'डाउनिंग स्ट्रीट डिक्लेरेशन' से लेकर, वर्ष 2018 में अफ़ग़ानिस्तान में शांति और लोकतंत्र को प्राथमिकता देने के लिये गठित ‘शांति मंत्रालय’; और फिर वर्ष 2012 में चरमपंथी सशत्र दलों और कोलंबिया सरकार के मध्य हुये 'कोलंबिया शांति समझौते' जैसे ऐतिहासिक कार्यों में, देशकाल के अनुरूप नैतिक मूल्यों का प्रभाव रहा, और ये सभी प्रयास महात्मा गाँधी के संदेशों को जिलाये रखने के सफ़ल माध्यम साबित हुए।
दुनिया में, शांति और लोकतंत्र स्थापना के संबंधों पर शोधकर्त्ता मारिया स्टीफेन कहती हैं कि वर्ष 1920 से 2006 के मध्य 323 महत्वपूर्ण नागरिक-आंदोलनों हुये - जिनमें 'अहिंसा और सुलह’ के प्रयोगों और प्रयासों के चलते ‘शांति और लोकतंत्र’ की बहाली हुई। अहिंसात्मक नागरिक-नाफ़रमानी और स्वशासन के लिये हुये इन तमाम जनांदोलनों में महात्मा गाँधी एक प्रेरणास्रोत रहे।
यह अप्रत्याशित ही है कि, महात्मा गाँधी के अपने देश में उनके संदेश - अंतहीन बौद्धिक बहसों, छद्म राजनैतिक प्रतीकों और अनैतिक उपेक्षाओं का आखेट बना हुआ है। वास्तव में हमारी चर्चाओं के केंद्र में सवाल यह होना था कि आज – भारत मे, राज्य के लिये 'शांति स्थापना' की वरीयताएं नैतिक हैं अथवा राजनैतिक?
आखिर, शांति स्थापना के स्वैच्छिक प्रयासों में राज्य की भूमिका क्या है? राज्य, शांति और सुलह के लिये क्या नैतिक साधनों का इस्तेमाल कर रहा है? और फिर सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि - शांति की स्थापना हेतु जवाबदेह प्रशासन तंत्र को, क्या वास्तव में शांति और सुलह की शिक्षा दी गयी है?
भारत में क़ानूनी व्याख्यायों की स्व-परिभाषित परिधि में यह मान लिया गया है कि - कानून और व्यवस्था की स्थिति का सामान्य होना 'शांति स्थापित' होने का प्रशासनिक प्रमाण है।
प्रश्न शेष हैं कि – क़ानून और व्यवस्था की स्थिति का सामान्य होना कैसे मापा जायेगा? क्या हम मणिपुर के विष्णुपुर को शांतिपूर्ण जिला कहना चाहेंगे? क्या असम-नागालैंड के सीमांत क्षेत्र दिमा-हासाओ को अशांत कहा जाये?
फिर झारखण्ड के पश्चिमी सिंघभूम जिले को हम किस वर्गीकरण में रखना चाहेंगे? क्या उड़ीसा के कालाहांडी जिले के लिये कोई नया परिभाषा गढ़ना होगा? इन सभी जिलों मे समानता यही है कि - यहां शांति स्थापना के तमाम सरकारी प्रयास अब तक तो आधे-अधूरे ही साबित हुये हैं।
महात्मा गांधी के अपने देश भारत में ‘शांति स्थापना’ को प्रशासनिक दायित्व माना जाता रहा है, इसीलिये स्थापित राजतंत्र के लिये येन-केन-प्रकारेण ‘क़ानून और व्यवस्था नियंत्रण मे बनाये रखने’ के अमूमन सभी प्रयास, आधे-अधूरे ही रह गये।
वास्तव में, भारत में कानून और व्यवस्था की स्थिति के सामान्य अथवा असामान्य होने का प्रशासनिक पैमाना, औपनिवेशिक हुकूमत द्वारा वर्ष 1861 में परिभाषित किया गया था, जो कमोवेश आज भी राजनैतिक मान्यता प्राप्त है। यथार्थ तो यह है कि भारत में आज़, क़ानून और व्यवस्था के बरक़्स शांति स्थापना के राजनैतिक प्रयासों के स्थान पर - सुलह, सद्भावना और स्वराज जैसे नैतिक साधनों से शांति स्थापना के प्रयास प्रारंभ होने चाहिये।
भारत में हमें आज, समाज के स्वैच्छिक प्रयासों और राज्य के सरकारी प्रयासों को सेतुबद्ध करने वाले एक सशक्त निकाय अर्थात 'शांति मंत्रालय' की आवश्यकता है। आयरलैंड, एथोपिआ, कोलंबिया और नेपाल के उदाहरणों में - ‘शांति और सुलह के लिये नैतिक मूल्यों’ को मानने वाले समाज और सरकार के संयुक्त प्रयासों की सफ़लतायें दर्ज़ हैं।
भारत सरकार के अनेक औपचारिक रिपोर्टों में यह माना गया कि मध्यभारत सहित उत्तरपूर्व में, दशकों से जड़ें जमाये 'संगठित हिंसा' एक बड़ी चुनौती है। रिपोर्ट यह भी कहते हैं कि जारी हिंसा, महज़ क़ानून और व्यवस्था का मसला नहीं वरन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अलगावों का सकल परिणाम है।
इन क्षेत्रों में अब तक हुए - समाधानों के आधे-अधूरे प्रयास और उनके वांछित-अवांछित परिणामों को समाज ही नहीं बल्कि राज्य भी संदिग्ध मानता रहा है। ऐसे में इन असफ़ल प्रयासों के पड़ताल से कहीं अधिक जरूरी है कि समाज और सरकार मिलकर उन स्थापनाओं की अपरिहार्यता को शिद्दत से समझनें और स्वीकारने का प्रयास प्रारंभ करे जिसे कोलंबिया, आयरलैंड, नेपाल और एथोपिआ ने साकार कर दिखाया।
भारत में आज हज़ारों ऐसे स्वैच्छिक संगठन हैं जिनका नैतिक प्रयास और प्रभाव - शांति स्थापना का माध्यम बन सकता है। शांति मंत्रालय - पूरे भारत में ऐसे सभी संगठित और सफ़ल प्रयासों को 'शांति और पुनर्निर्माण' के कार्यों से जोड़ सकता है।
वास्तव में यह प्रयास ऐसे समर्पित समाजसेवियों और स्वयंसेवकों की नयी पीढ़ी खड़ा कर सकता है जो किसी भी हिंसा को जनमने, सुलगने और फैलने से रोक सके। शांति मंत्रालय के माध्यम से सरकार और समाज के स्वैच्छिक प्रयास, भारत में स्वाधीनता के बाद से अब तक हुये लगभग 200 से अधिक शांति वार्ताओं, शांति समझौतों और शांति प्रयासों को भी उनके (राज)नैतिक परिणामों तक पंहुचा सकता है।
शांति जैसे साध्य के लिये जिन नैतिक साधनों की अपरिहार्यता है, वह महात्मा गाँधी के संदेशों में सर्वसुलभ रूप से दर्ज़ है। इन नैतिक साधनों को स्वीकारने के लिये वर्तमान व्यवस्था से परे 'शांति के संयुक्त प्रयासों' के सिद्धांतों पर आधारित ‘शांति मंत्रालय’ की बुनियाद रखनी होगी, जहाँ समाज और सरकार दोनों, महात्मा गाँधी के मूल्यों के रास्ते, नये भारत का मार्ग गढ़ सकें।
भारत का यह संभावित शांति मंत्रालय, (राज)नैतिक विमूढ़ता से ग्रस्त पूरी दुनिया के लिये विश्वशांति और विश्वबंधुत्व का नया पोषक और उद्घोषक हो सकता है। महात्मा गांधी जैसे शांति और अहिंसा के वैश्विक प्रेरणास्रोत को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि अब भारत सरकार, 'शांति मंत्रालय' की स्थापना का बहुप्रतीक्षित कदम उठाये।
(रमेश शर्मा एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)