अभय
भारतीय सिनेमा की लंबी यात्रा में अन्य देशों के सिनेमा की ही तरह यहां के सामाजिक परिवेश का असर देखने को मिला है और समय के साथ भारतीय सिनेमा भी अपनी कथावस्तु में इस परिवेश को परिलक्षित कर आगे बढ़ा है। समय-समय पर बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप नए तेवर लिए फिल्मों के नायक सामने आए तथा उसने अपनी तरह से समाज को प्रभावित किया है लेकिन सिनेमा के मौजूदा दौर में एक अदद नायक की तलाश अब भी जारी है।
सिनेमा के मौजूदा स्वरूप तक पहुंचने में एक लंबा वक्त लगा है और अभी भी नए-नए प्रयोग जारी हैं। भारतीय सिनेमा की कहानी मूक फिल्मों से लेकर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक की यात्रा को सरसरी तौर पर देखा जाए तो मूक सिनेमा के दौर के बाद फिल्मों में स्टूडियो सिस्टम का दौर आया। वी शांताराम के प्रभात स्टूडियो, हिमांशु राय और देविका रानी के बॉम्बे टॉकीज, पीसी बरुआ आदि के स्टूडियो ने जिस तरह की फिल्में बनानी शुरू की, वह देश के पुराने वैभव को उकेरती थीं। इस दौरान भक्ति आंदोलन के चर्चित चरित्रों को लेकर फिल्में बनीं, जैसे ‘चंडीराव’, ‘संत तुकाराम’ आदि। इन फिल्मों में भारत की महाकाव्य परम्परा को उभारने की कोशिश दिखती है।
वर्ष 1935 में केएल सहगल वाली ‘देवदास’, ‘अनारकली’ जैसी फिल्में बनीं और इन फिल्मों पर उस दौर के चर्चित पारसी थियेटर का असर मौजूद था। वर्ष 1938 में छुआछूत जैसे मुद्दे पर ‘अछूत कन्या’ जैसी फिल्म बनी जो एक सामाजिक बुराई पर बनी फिल्म थी। फिल्मों का यह एक तरह का यह पुनर्जागरण जैसा दौर था जिसमें पुराने वैभव को दर्शाने और कुरीतियों पर चोट होती थी। उसके बाद 1940 के दशक को मुगल दौर का नाम दिया जा सकता है, जब फिल्मों की कथावस्तु मुगल सम्राटों पर केन्द्रित हुई और ‘शाहजहां’, ‘हुमायूं’ जैसी फिल्में सामने आईं। महबूब खान इसी दौर की ऊपज थे और उन्होंने किसान केन्द्रित विषयवस्तु को लेकर फिल्में बनाईं। वर्ष 1938 में शोहराब मोदी और दुर्गा खोटे को लेकर बनी फिल्मों के चरित्रों में भारतीय अक्खड़पन को दर्शाया जाता था। वी शांताराम ने 1941 में ‘दहेज’ फिल्म बनाई। इन फिल्मों के नारी चरित्र को मजबूती से और अक्खड़पन के साथ दर्शाया गया था।
समकालीन जर्मन नाटककार ब्रेख्त की नाटक विधा और उसकी कहानी के बारे में राय थी कि किसी चरित्र को भावना की दृष्टि से उसके अक्खड़पन के साथ पेश किया जाना चाहिए। अक्खड़पन छुपा रहे और वही असली मनोरंजन है। इसमें समाज की असमानता सामने आती है। शांताराम की दहेज फिल्म में भी दहेज व्यवस्था की शिकार औरत जीवित नहीं रहती लेकिन फिर भी यह फिल्म रोने-धोने से मुक्त थी और एक पहले ये चली आ रही समस्या को उभारती थी।
तीस और चालीस के दशक की फिल्मों को देखने से रंगमंचीय प्रस्तुति का आभास होता था। ये फिल्में रोने धोने वाले चरित्र से मुक्त चरित्र के ठसक को सामने लाती थीं। चालीस के बाद की फिल्मों में अभिनय का स्वरूप बदलता चला गया। तीस के दशक की फिल्मों पर पौराणिकता की छाप थी।
वर्ष 1947 में देश के आजाद होने के साथ देश का विभाजन भी हुआ और इस तकलीफदेह वस्तुस्थिति की झलक फिल्मों में दिखाई दी। मैक्सिको और चीन जैसे देश देश में स्वतंत्रता के बाद कला में जो एक नए तरह का आशावाद जन्मा था, वह भारत में नहीं दिखा। ये फिल्में खुशनुमा अंत के बजाय निराशा को समेटे थीं। इसी दौर में रमेश सहगल ने दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को लेकर ‘शहीद’ फिल्म बनाई। इसमें दिलीप कुमार एक स्वतंत्रता सेनानी थे जिनकी राह गांधीवादी विचारधारा से अलग थी और एक ‘एंग्री यंग मैन’ की इमेज भी दिलीप साहब के चरित्र में छलकती थी। इस फिल्म का अंत दुखद है। वर्ष 1947 से 1952 तक बनी ज्यादातर फिल्में ‘ट्रेजेडी’ समेटे थीं और आजादी का उत्साह फिल्मों से नहीं छलकता था। लेकिन निराशावाद के इस दौर में भी ‘अंदाज’ जैसी कुछ अच्छी फिल्में बनीं जिन्हें दर्शकों ने खूब सराहा।
वर्ष 1952 में देश में पहले आम चुनाव के दौर में फिल्मों ने एक महत्वपूर्ण करवट ली और यहां एक नए तरह के आशावाद ने जन्म लिया। इन फिल्मों के अंत सुखद होते थे। दिलीप कुमार की ‘आन’, राजकपूर की ‘आवारा’ और देवानंद की ‘बाजी’ जैसी फिल्में आईं जिनका अंत सुखद था। इन फिल्मों का नायक जुझारू संघर्ष करता है और दर्शकों की भावना से जुड़ते हुए उनमें एक विजय भाव पैदा करता है। ‘नेहरूवाद’ के साथ एक नए तरह का आशावाद फिल्मों पर हावी होता दिखता है जो लगभग वर्ष 1957 तक चलता है। वर्ष 1957 में इस आशावाद पर फिर से शंका उभरती है।
उस दौर के साहित्य को देखें तो मुक्तिबोध की कविता- ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ सामने आती है। माना जाता है कि यह कविता तत्कालीन सरकार के ‘समाजवादी’ नारे पर शंका जताती है। इसी दौर में गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ सामने आती है जिसका एक गाना दर्शकों में खूब चर्चित हुआ.. “कहां है, कहां हैं... जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं...।”
वर्ष 1957 के इस दौर में एक तरफ ‘शंका’ का दौर शुरू होता है और ठीक उसी समय एक अलग धारा फूटती है जिसके ‘सिंबल’ शम्मी कपूर बनते हैं। शम्मी कपूर, आजादी के बाद के कुछ वर्षों में बने अभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधत्व करते दीखते हैं जो वर्ग ज्यादा राजनीति से मतलब नहीं रखता और जिसके लिए मौज मस्ती की अलग एक दुनिया है। बाद के दौर में करण जौहर भी इसी वर्ग की विषयवस्तु को अपनी फिल्मों के लिए चुनते हैं। लेकिन करण जौहर का जो अभिजात्य वर्ग है वह लिजलिजा है, वह शम्मी कपूर की तरह नहीं है जिसमें नैतिकता की एक रीढ़ और कुछ मूल्य दिखाई देते हैं।
उसके बाद साठ के दशक में हिन्दी सिनेमा में एक बदलाव दिखता है जिसकी अगुवाई राजेश खन्ना करते हैं। वह शम्मी कपूर का दूसरा चेहरा लिए हैं। उनकी इमेज भी रोमांटिक हीरो की है मगर वह फिल्मों में निम्न मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं। राजेश खन्ना के दौर को देखा जाए तो देश में अलग-अलग स्थानों पर तीखे आंदोलन चल रहे थे। पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद का आंदोलन और कुछ राज्यों में भाषायी आंदोलन का दौर था। इन आंदोलनों में निम्न मध्य वर्ग, निम्न वर्ग और कुछ छात्र सक्रिय थे। राजेश खन्ना ‘बावर्ची’, नमक हराम’ जैसी फिल्मों में निम्न मध्यवर्गीय चरित्र को दर्शाते हैं। राजेश खन्ना अभिनीत चरित्र रोमांटिक होने के बावजूद सामाजिक यथार्थ के आगे अंत में हार जाता है, कभी पैसे की कमी से तो कभी कैंसर जैसी बीमारी के कारण।
उनका प्रेम दिलीप कुमार के आत्महंता (आत्मपीड़ा) के हद तक जाने के बजाय एक निम्न मध्यवर्गीय कचोट को छूने की कोशिश करता है। फिल्म ‘दीदार’ में तो दिलीप कुमार अपनी आंख फोड़ लेते हैं। राजेश खन्ना साठ के दशक के दमित भावनाओं वाली बागी युवा पीढ़ी को अपना स्वर देकर ‘सुपर स्टार’ बनते हैं।
उसके बाद 70 के दशक में फिर से जयप्रकाश नारायण का छात्र आंदोलन उभार पर आता है। यह आंदोलन हिन्दी भाषी युवा पीढ़ी के मिजाज को बयां करता है। यह युवा पीढ़ी आक्रामकता को पसंद करती है तथा वह दर्द सहने के बजाय दर्द के लिए बदला लेने में यकीन करती है। युवा पीढ़ी की इसी मनोदशा के बीच सलीम-जावेद की पटकथा से एक एंग्री यंग मैन का उदय होता है। इस तरह बदला लेने वाले निम्न मध्यवर्गीय का एक नया सुपर स्टार अमिताभ बच्चन का ‘जंजीर’, ‘जुर्माना’, ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्मों से उदय होता है। अस्सी के दशक के आते-आते यही ‘एंग्री यंग मैन’ कामगार (वर्किंग क्लास) बन जाता है और ‘कुली’, ‘दीवार’ जैसी फिल्में बनती हैं।
वर्ष 1984 में ‘सिख विरोधी दंगे’ के बाद यह ‘वर्किंग क्लास’ की वैचारिकता खत्म होने लगती है। अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ जैसे अभिनेता सामने आते हैं और विचारशून्य फिल्में बनने लगती हैं जैसे ‘जीने नहीं दूंगा’ मार्का फिल्में, जितेन्द्र जैसे अभिनेता की ‘तोहफा’ जैसी फिल्में। इसी के साथ ‘बी ग्रेड’ फिल्मों का एक दौर चलता है और कथावस्तु भड़कीली हो जाती है। इस दौर में श्रमिक वर्ग के लिए हल्के विषयवस्तु वाली फिल्में ‘भड़कती जवानी’ मार्का फिल्म बनने लगी। बी ग्रेड सिनेमा का एक दौर चला और श्रमिक वर्ग का जुझारूपन सिनेमा से लुप्त होता चला गया। इस दौर में गोविंदा, कादर खान सरीखे अभिनेता दर्शकों की विशेष पसंद थे।
उदारीकरण के दौर में फिर से आमिर खान, अजय देवगन, सलमान खान और शाहरुख खान जैसे नए अभिनेताओं का उभार होता है, जहां ‘एक्शन’ की जगह कहानी में रोमांस लौटकर आता है लेकिन यह रोमांस गुरुदत्त की तरह गंभीर एवं तीखा नहीं, पोपलापन लिए है। सत्तर के दशक में हीरोइन जो शादी के लिए घर से भागती थी (फिल्म बॉबी इत्यादि) वह उदारीकरण के बाद के दौर की फिल्मों में अपने माता-पिता से समझौते में जाने लगीं (दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे)। ये फिल्में, उदारीकरण के बाद जो संकीर्णता लिए सोच वाला मध्य वर्ग (कंजर्वेटिव मिडल क्लास) उभरा, उनकी कहानी कहता नजर आता है। ‘मैंने प्यार किया’, ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी फिल्मों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। इसके बाद ‘लगान’, ‘गदर’ जैसी फिल्मों का दौर आया।
फिल्मकारों की एक नई पीढ़ी आई जिन्होंने हिन्दी क्षेत्र के टकराव, शुष्क यथार्थ, नयी अदाओं को अपनी कहानी में पिरोया। विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप सहित बंगाल स्कूल के सुजीत सरकार जैसे नए फिल्म निर्देशकों ने हिन्दी क्षेत्र के यथार्थ और टकराहटों को दर्शाया जिन्हें दर्शकों ने खूब पसंद किया।
उन्होंने हिन्दी सिनेमा को नायक से कहीं अधिक नए किस्म के खलनायक दिए। लेकिन उनकी फिल्में किसी नए नायक को सामने नहीं ला पाईं। उदारीकरण के बाद के कोलाहल, भागमभाग और जद्दोजहद के बीच युवाओं को एक नई दिशा देने वाले नायक की तलाश अभी भी जारी है जिससे मुख्यधारा के युवा दर्शक अपना सके, जो काम किसी जमाने में दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेताओं ने किया था।
इस तरह के नायक की खोज कुछ हद तक इरफान खान पूरी करते दीख रहे थे और युवाओं से उनका नए किस्म का तादात्म्य बन रहा था लेकिन उनकी असमय मृत्यु ने इस उम्मीद को फिलहाल ढक दिया है। वर्ष 2014 के बाद एक नए तरह के राष्ट्रवाद का दौर आया और फिल्मों में अल्पसंख्यक समुदाय के किसी खलनायक को बुराई की जड़ में दिखाने का चलन बढ़ा। हालांकि यह सोच 90 के दशक से ही विद्यमान थी जो बाद में और मुखर हुई। हिन्दी सिनेमा को अभी भी आगे के दौर के एक अदद नायक नायक की तलाश करना बाकी है जो नई परिस्थितियों से निपटने और आगे बढ़ने के हौसले के संदर्भ में नई पीढ़ी के युवाओं को एक नई राह दिखाए।
(लेखक फिल्म अभिनेता हैं)