'गांधी को देखकर सोच में पड़ गया था मैं'

हरदोई जिले के अंतरौली तहसील में भरावन नामक गांव बसे सूर्यप्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बाबा ने बताई गांधी से पहली मुलाकात की कहानी
'गांधी को देखकर सोच में पड़ गया था मैं'
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गांधी को हम सबने बचपन से लेकर अब तक जाना और पढ़ा है। लेकिन हम यहां आपको एक ऐसे व्यक्ति से मिलवाते हैं, जो गांधी को तो जानते थे लेकिन उन्हें कभी देखा नहीं था और जब देखा तो बस आवाक ही रह गए।

उस शख्स का नाम है सूर्यप्रकाश श्रीवास्तव या उनके क्षेत्र के लोग उन्हें बाबा के नाम से जानते हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी से 70 किलोमीटर दूर मलीहाबाद से देश-दुनिया सभी परिचित हैं। यहां से बमुश्किल से 20 किलोमीटर दूर हरदोई जिले के अंतरौली तहसील में भरावन नामक गांव बसा हुआ है। यह गांव भी उस समय तक एक सामान्य गांव ही हुआ करता था, जब तक इस गांव में बाबा का आगमन नहीं हुआ था।

बाबा से मिलने हम 2001 में गए थे, उनके कामों के बारे में जानकारी लेने। तब बाबा ने अपनी अनकही कई बातें हमें बताईं। ऐसे ही जब उनसे पूछा गया कि आपके जीवन में सबसे बड़ी घटना कब घटी तो उन्होंने कहा, बात उस समय की है, जब लखनऊ में गांधीजी किसी कार्यक्रम में आने वाले थे। और मैं तब लखनऊ हायर सेकंडरी स्कूल में प्रिंसिपल हुआ करता था।

उस समय अखबार तो इतने हुआ नहीं करते थे कि आप किसी नेता को रोज अखबार में देख सकें। मैं भी बचपन से गांधी जी के बारे में सुनता आया था, लेकिन देखा नहीं था। जब मुझे यह पता चला कि गांधी उनके शहर में आ रहे हैं तो उन्होंने निश्चय किया हर हाल में उनको देखना है। आखिर मेरे मन में इस बात की कौतुहलता भरी हुई थी कि यह गांधी जी दिखते कैसे होंगे, जिनके आगे पीछे पूरा देश क्या पूरा विश्व का सबसे बड़ा साम्राज्य घबरा रहा है।

आखिर वह घड़ी आ ही गई, जब गांधी जी का लखनऊ आगमन हुआ। कांग्रेस का सम्मेलन तो खुले रूप में होता था जिसमें सभी आमजन की भागीदारी हुआ करती थी। मुझे पता चला कि यहां गांधी जी दो दिन तक रहेंगे। मैं पहले दिन सूटेटबुटेट होकर पहुंच गया। और दिन भर सम्मेलन में बैठा रहा, लेकिन मैं गांधी नामक शख्स को पहचान ही नहीं पाया।

अब मैं ठहरा पढ़ा लिखा और ऐसे में वहां आए गरीब गुरबों से कैसे पूछता कि गांधी कौन हैं? वे मुझ पर हंसते, इस डर से मैं चुपचाप सम्मेलन में बैठा नेताओं  की बात सुनता रहा और शाम को मुंह लटकाकर घर आया।

आखिर मैंने दूसरे दिन निश्चय किया कि आज मैं किसी भी हालत में गांधी को देखकर ही दम लूंगा। भले मेरी बेइज्जती हो जाए और सम्मेलन में जा पहुंचा। शाम को सम्मलेन खत्म होने वाला था कि मैं एक फटी पुरानी धोती पहने बुढ़े बाबा से पूछा कि भाई इसमें गांधी जी कौन हैं? जिस बात का डर था वही हुआ, आखिर उस फटे कुर्ता पहनने वाले ने पहले तो मेरे ठाटबाठ को निहारा और पूरी हिकारत भरी नजरों से देखते हुए कहा, कपड़ों से तो पढ़े लिखे लगते हो, लेकिन अक्ल से पैदल ही हो। अरे गांधी को नहीं पहचानते? 

मैं पूरी बेइज्जती सहते हुए उसके मुंह से इस बात के बोल निकलने की प्रतीक्षा में था कि कब यह बूढ़ा बताए कि गांधी कौन हैं? आखिर तबियत से बेइज्जत करने के बाद जब उसका पेट भर गया तो उसने बोला- वो जो मंच से दो लोगों का सहारा लेकर उतर रहे हैं वही गांधीजी हैं।

उसका इतना बोलना था कि मैं आवाक रह गया। कांटो तो खून नहीं और बरबस मेरे मुंह से निकल पड़ा अरे भाई एक नंग-धड़ग व्यक्ति ही गांधी है। इसी के पीछे पूरा देश भाग रहा है और इस अधनंगे व्यक्ति से ब्रिटिश हुकूमत घबरा रही है? मेरे मन में तो गांधी जी का चित्र बना था, वह था कि कोई होगा आठ-नौ फुट का लंबा-चौड़ा व्यक्ति और लंबी- चौड़ी मुछें होंगी और सफेद घोड़े पर तलवार लिए होगा।

मैं बहुत देर तक वहीं जड़वत गांधी जी को देखता रहा है और जिंदगी में पहली बार अहसास हुआ कि शरीरिक मजबूती से आप बड़े नहीं होते बल्कि बुद्धि से आप बड़े होते हैं। और जब मेरी तंद्रा टूटी तो गांधी जी को मैंन अपने सामने पाया क्योंकि वे हर किसी सामान्य शख्स से मिल कर उससे बातें करके ही आगे बढ़ रहे थे और हर कोई उनका पैर छूने की कोशिश में था।

ऐसे में गांधी जी हर किसी को समय दे रहे थे, भले ही दस सेकंड का ही क्यों न हो। वह हर हाल में उससे बात करते और उसके काम के बारे में जानकारी लेते। बस इतनें में ही वे मेरे इतने पास आ गए कि मैं भी उनके पैर छू लिया। जैसे ही पैर छू कर मैं ऊपर उठा तो उन्होंने कंधे पर हौले से हाथ रखते हुआ पूछा सूटेट-बुटेट हो क्या करते हो? 

मैंने बताया कि मैं प्रिंसिपल हूं, हायरसेकंडरी स्कूल में, मेरे इतना कहते ही बोले, किसी गांव में जाकर पढ़ाओ तो अच्छा रहेगा। यह उनके अंतिम बोल थे मेरे लिए और उनके इस बोल ने मेरी जिंदगी को एक नया मोड़ दिया।

बस उसी जगह जड़वत कई मिनट तक खड़ा रहा जैसे मुझे लगा कि कोई भूचाल आ गया है। यह सोच कर कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। आखिर अपने को जैसे-तैसे संभाला और वहां पैदल ही घर आया और मेरी हालत देखकर घर वाले आवाक थे कि क्या हुआ।

क्योंकि जब से मैं गांधी जी से मिला था तब से मैंने न तो बाल संवारे थे और न ही अपने कपड़ों को, ऐसे में मैं बड़ा अस्त व्यस्त दिख रहा था। जैसे सब कुल खत्म हो गया हो। मैं घर पहुंचकर किसी से बातचीत नहीं की और रात भर सोचता रहा और सुबह की पहली भोर किरण के साथ ही मैंने एलान कर दिया कि मैंने नौकरी छोड़ दी है और अब मैं गांव में जाकर बच्चों को पढ़ाऊंगा।

मेरे इतना बोलते ही घर में कोहराम मच गया। रोना-धोना मच गया। हर कोई मनाने की कोशिश में लगा था लेकिन मैं ने तो दृढ़ निश्चय कर ही लिया था। और उसी दिन शाम को मैं इस भरावन नामक गांव में आया और लोगों से बातचीत की।

बातचीत से मुझे पता चला कि गांव घर के लड़के तो स्कूल जाते हैं लेकिन लड़कियां न के बराबर स्कूल जाती हैं। बस फिर क्या था। मैंने लोगों से बोला कि मैं आपके बेटियों के लिए आपके ही गांव में स्कूल खोलूंगा।

उन्होंने गांव वालों से चंदे के रूप में एक आने से लेकन दो आने तक एकत्र करना शुरू किया। आखिर कुछ माहों की कड़ी मशक्कत के बाद मेरा पहला स्कूल खुल गया और मैंने एक कड़ा नियम बनाया कि मैं केवल लड़कियों के लिए ही स्कूल खोलूंगा क्योंकि लड़के तो दूसरे गांव जाकर पढ़ भी लेते हैं।

हां, मैंने एक बात का ध्यान रखा कि यह स्कूल के लिए कहीं बाहर से किसी को लाया नहीं गया, बल्कि गांव के लोगों को ही मैंने प्रशिक्षित कर इस लायक बनाया कि वे शिक्षक के रूप में स्कूल में अपनी बटियों को पढ़ा सकें।

मैंने एक काम ओर किया कि जैसे ही किसी गांव का स्कूल अपने लोगों के द्वारा पढ़ाने में निपुण हो जाता मैं अगले गांव की ओर रूख कर लेता ओर इस प्रकार से अब तक इस क्षेत्र के12 गांवों में स्कूल ख़ुल चुके हैं। और सभी स्कूल आत्म निर्भर है कहने का अर्थ की स्कूल पूरी तरह से ही अपने लोगों द्वारा अपनों के लिए चलाया जा रहा है। आखिर गांधी जी यही तो चाहते थे।

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