कोविड-19 महामारी के पहले दौर में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने ग्रामीणों को बहुत सहारा दिया। सरकार ने भी खुल कर खर्च किया। लेकिन कोविड-19 की दूसरी लहर में मनरेगा ग्रामीणों के लिए कितनी फायदेमंद रही, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने देश के पांच सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों में मनरेगा की जमीनी वस्तुस्थिति की विस्तृत पड़ताल की है। इस कड़ी की पहली रिपोर्ट-
मनरेगा कोविड की दूसरी लहर के दौरान ग्रामीण भारत की जीवन रेखा नहीं बन पाई। जबकि कोविड संक्रमण की पहली लहर में मनरेगा की बदौलत ग्रामीण भारत ने देश की अर्थव्यवस्था को सहारा दिया था लेकिन दूसरी लहर में वह सहारा नहीं बन पाई। इसका नतीजा है कि लाखों प्रवासी श्रमिकों को अपने गांव में या आसपास काम नहीं मिल सका। भारत के ग्रामीण इकाकों में कोविड की दूसरी लहर के दौरान इसका जीवन रेखा नहीं बन पाने का एक बड़ा कारण था केंद्र सरकार द्वारा मरनेगा के तहत मजदूरी भुगतान प्रक्रिया में बदलाव। इस बदलाव का नतीजा यह हुआ कि कोविड संक्रमण की जब दूसरी लहर अप्रैल-मई में अपना कहर बरफा रही थी तब इस योजना के तहत काम कर रहे देशभर के लाखों श्रमिकों का भुगतान में देरी हुई। मनरेगा मजदूरी भुगतान प्रक्रिया में हुए संशोधन के संबंध में नरेगा संघर्ष मोर्चा ने इस संबंध में गत दो जून, 2021 को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र तोमर को लिखे अपने पत्र में कहा है कि वह इस संधोशन से हैरान है। मोर्चा का कहना है कि जहां वर्तमान मजदूरी भुगतान को और सरल करने की आवश्यकता है, केंद्र सरकार की यह नई प्रक्रिया भुगतान प्रणाली को और जटिल बना दिया है।
ध्यान रहे कि नई प्रक्रिया के अंतर्गत अलग-अलग मजदूरों की श्रेणियों (एससी,एसटी व अन्य) के लिए अलग-अलग लेबर बजट और फंड ट्रांसफर ऑर्डर बनेंगे। यह सर्वविदित है कि सभी मनरेगा मजदूरों को समान अधिकार है यानी मांग पर काम और 15 दिनों में भुगतान। मोर्चा ने अपनी पत्र में सवाल उठाया है कि बजट तैयार करने व मजदूरी भुगतान के लिए मजदूरों की तीन अलग-अलग समूहों में बांटने का कोई मतलब नहीं है। यह भी बात ध्यान रखने की है कि मंत्रालय द्वारा जारी की गई अडवाइजरी में इस बदलाव का कारण भी नहीं बताया गया है। यही नहीं केंद्र सरकार अपने पुराने तौर-तरीके को अपनाते हुए यानी बिना किसी से चर्चा के ही यह संशोधन कर दिया गया है। इस बदलाब पर सरकार ने किसी भी संबंधित पक्ष से कोई विस्तृत चर्चा करना मुनासिफ नहीं समझा और यह अडवाईजरी अभी तक आम लोगों को देखने के लिए मंत्रालय की वेबसाईट पर उपलब्ध भी नहीं है।
ध्यान रहे कि अब तक मनरेगा मजदूरों को मजदूर ही माना गया है, चाहे वे किसी भी समुदाय के हों। मोर्चा कहना है कि मनरेगा की वंचित समुदायों तक काफी पहुंच है। इसका अंदाजा इस एक बात से लगाया जा सकता है कि आधे से अधिक मनरेगा मजदूर महिलाएं हैं और लगभग 40 प्रतिशत मजदूर दलित (एसी) या आदीवासी (एसटी) हैं। मजदूरी भुगतान की नई प्रक्रिया से दलित-आदिवासी मजदूरों को कोई लाभ नहीं है बल्कि मनरेगा तंत्र के इस बदलाव से मजदूरों को अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में मनरेगा मजदूरी भुगतान में लगातार हुए बदलाव से इस योजना के तहत काम करने वाले लाखों मजदूरों का काफी नुकसान उठाना पड़ा है। हर बार भुगतान प्रणाली में कोई बदलाव होता है और इसका खामियाजा मजदूरों को महीनों मजदूरी भुगतान से जूझना पड़ता है। अधिकांश समय उनके भुगतान में बहुत अधिक देरी होती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि यह योजना संकट के समय के लिए बनाई गई है जब संकट के समय ही मजदूर को पैसा नहीं मिला तो इसका औचित्य क्या।
ध्यान रहे कि बैंक द्वारा मजदूरी भुगतान की प्रक्रिया शुरू हुए 12 साल हो गए हैं पर अभी तक केंद्र सरकार मजदूरों का 15 दिनों में भुगतान (जो मजदूरों का कानूनी अधिकार है) करने में सक्षम नहीं हो पाई है। इसमें हमेशा देरी होती आ रही है। मोर्चा का कहना है कि जरूरत मनरेगा मजदूरी भुगतान प्रक्रिया को और जटिल बनाने की नहीं, बल्कि उसे और सरल और भरोसेमंद बनाने की है। मोर्चा ने मंत्री को लिखे अपने पत्र में मांग की है कि मंत्रालय तुरंत मजदूरी भुगतान की प्रक्रिया में हुए बदलाव को वापस ले, अगर सरकार सचमुच में दलित व आदीवासी मजदूरों के हित के लिए चिंतित है तो वह यह सुनिश्चित करे कि इन समुदायों की मनरेगा में भागीदारी बढ़े, काम करने के इच्छुक हर परिवार को सालाना 100 दिनों का काम मिले और मजदूरी भुगतान समय पर हो।
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