बैठे ठाले: मेरा विश्वविद्यालय

“शहर की सबसे व्यस्ततम सड़क को पार करने के लिए बनाए ओवरहेड ब्रिज को अनिवार्य कारणों से हटा दिया गया था और लोग डिवाइडरों के ऊपर से कूद-फांद कर रास्ता क्रॉस कर रहे थे”
बैठे ठाले: मेरा विश्वविद्यालय
सोरित / सीएसई
Published on

शहर में पहली बार आए किसी पर्यटक को लग सकता था कि वह “पार्किंग-एरिया” है, मगर शहर के लोगों को पता था कि इस खास इलाके में लगने वाला यह एक अनादि-अनंत ट्रैफिक-जाम है जहां गाड़ियां, बसें, ऑटो-रिक्शा और आवारा पशु एक ही जगह स्थिर चित्त पाए जाते हैं। जहां समय रुक जाता है, आइंस्टाइन की रिलेटिविटी से रिलेटेड सभी थ्योरीज लूडिस हो जातीं हैं।

मुस्कुराइए कि आप दिल्ली के इस खास इलाके में हैं जहां ट्रैफिक जाम खुलने के इंतजार में सदियों तक अपनी-अपनी बसों, हरी-भरी, ऑटो इत्यादि में बैठे पैसेंजरों ने इसे अपने जीवनचक्र का एक अहम हिस्सा मान लिया है।

आखिरकार वह युवक बस से उतर पड़ा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बस से उतरने के बावजूद उसके पैर सड़क पर नहीं कहीं और थे। वह गुनगुना उठा, “आजकल पांव जमीन पर नहीं पड़ते मेरे!” पर जल्दी ही उसने पाया कि भीड़ इतनी थी कि वह बस से उतरने के बाद अपने ही जैसे किसी इंसान के लगभग ऊपर से होता हुआ चल रहा था। उसने अपनी डायरी में लिखा, “देख रहे हो बिनोद, पूरी सड़क को प्राइवेट-कारों ने ओक्यूपाई कर लिया है जिससे पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए जगह ही नहीं बची।”

गाड़ियों के इस ठहरे हुए महासागर में लोग आगे-पीछे-दाएं-बाएं जहां जिसे जैसा मौका मिल रहा था, चलते चले जा रहे थे। थोड़ी दूर आगे चलने पर उसे पास के सरकारी अस्पताल के अंदर से जाने वाला एक शॉर्टकट मिला। यह एक पतली सी सड़क थी जिस पर बड़े-बड़े गड्ढों ने कब्जा किया हुआ था। गड्ढों में पिछली सदी की बारिश का पानी, कीचड़ और स्थानीय कूड़ा जमा था और उसी पर से मरीज अपनी सहूलियत और उपलब्धता के अनुसार एंबुलेंस, स्ट्रेचर या पैदल चल रहे थे। यह शॉर्टकट एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर खुलता था जहां भीड़, ट्रैफिक, आवारा पशुओं की एक अनुपम अराजक व्यवस्था कायम थी।

उसने अपनी डायरी में लिखा, “देख रहे हो बिनोद! सिटी-प्लानर्स के मास्टर-प्लान में अमीरों के लिए काफी जगह रख छोड़ी है, पर मेहनतकश और गरीब लोगों के लिए रत्तीभर जगह भी नहीं छोड़ी और उनको तथाकथित इरेग्युलर कॉलोनियों में एक पशु से भी ज्यादा बुरी जिंदगी जीने को बाध्य कर दिया है जहां न पीने के पानी की व्यवस्था है और न ही सीवेज की। जहां एंबुलेंस या फायर ब्रिगेड की गाड़ियां शायद ही दिखें पर बुलडोजर कहीं भी दिख जाते हैं।”

बाकी भीड़ की तरह वह भी गड्ढों से बचता-बचाता हुआ चलता चला जा रहा था। थोड़ी दूर चलने पर सड़क तक फैले कूड़े के सैलाब और उसके साथ आती भयानक दुर्गंध ने उसका रास्ता रोक लिया। जो थोड़ी-बहुत जगह बची थी उस पर टिन की तख्ती चीख चीखकर “मेट्रो कार्य प्रगति पर है” का ऐलान कर रही थी। शहर की इस सबसे व्यस्ततम सड़क को पार करने के लिए बनाए ओवरहेड ब्रिज को अनिवार्य कारणों से हटा दिया गया था और लोग डिवाइडरों के ऊपर से कूद-फांद कर रास्ता क्रॉस कर रहे थे।

उसने अपनी नोटबुक में लिखा, “देख लो बिनोद, यहां से देश की तरक्की का बिगुल बजाती मेट्रो गुजरेगी जिसमें अमीर-पढ़े लिखे बाबू लोग सफर करेंगे और इसके लिए इस इलाके के गरीब लोगों को सड़क पार करने का उनके पुल को भी उनसे छीन लिया गया है। यह है हमारे डेवलपमेंट का मॉडल। यहां के लोगों को एक ढंग का कूड़ेदान भी नहीं मिलता। सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट आज भी इनके लिए किसी परीलोक की कहानी है। बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीस में बरसों पढ़कर जो ज्ञान मिलेगा उसे केवल कुछ घंटे इस जगह बिता कर प्राप्त कर सकते हैं।”

कहते हैं उस युवक की यह नोटबुक बाद में “मेरा विश्वविद्यालय” नाम से प्रकाशित हुई जिसने विश्व-साहित्य में बहुत नाम कमाया।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in