23 अगस्त 2021 को वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) की औपचारिक घोषणा के महज सात दिन पहले यानी 16 अगस्त को भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय ने देश के सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों के नाम से एक एडवाइजरी (सुझाव पत्र) जारी की है। इस एड्वाजरी की मंशा और मकसद भी ठीक वही हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक सम्पत्तियों को लेकर नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलान के हैं। हालांकि यह काम ग्राम सभाओं को ज्यादा जीवंत बनाने के नाम पर किया जा रहा है।
इस एडवाइजरी में क्या है?
12 पेज के इस दस्तावेज में ‘ग्राम सभाओं को जीवंत और सक्रिय बनाने’ (मेकिंग ग्रामसभा वाइब्रेण्ट) की दिशा में मार्गदर्शन दिया है। क्योंकि पंचायती राज संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्यों का विषय है जिनके बारे में कोई अंतिम निर्णय लेने का अधिकार केवल राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन का है और इसलिए इसे एडवाइजरी यानि मशविरा पत्र कहा जा रहा है।
लेकिन मौजूदा राजनैतिक व्यवस्था में संघीय यानी भारत सरकार की सर्वोच्चता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से तब जबकि ग्राम पंचायतों को मिलने वाले अनुदानों का एक बड़ा हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से भारत सरकार की तरफ से आ रहा हो।
यह प्रत्यक्ष अनुदान गांवों तक पहुंचाने के लिए भारत सरकार संविधान के अनुच्छेद 282 इस्तेमाल करती है जो वास्तव में आपातकाल में केंद्र से सीधे मदद पहुंचाने की गरज से बनाया गया था। आज अधिकांश राष्ट्रीय योजनाएं हैं वो इसी अनुच्छेद के माध्यम से संचालित की जा रही हैं।
इस एडवाइजरी में भारत सरकार ने अपनी मंशा को क्रियान्वयित करने की दिशा में एक व्यवस्थित पहल ग्राम सभाओं के लिए सालाना कैलेंडर बनाने की भी की है।
इसमें बतलाया गया है कि ग्राम सभाओं को हर महीने किन किन विषयों पर बैठकें करना है और किस दिशा में फैसले लेना है। उदाहरण के लिए, इस पत्र के अनुसार अगस्त के महीने में, ग्राम सभाएं अपनी ग्राम पंचायतों को आर्थिक रूप से स्वाबलम्बी बनाने की दिशा में काम करेंगीं और जिसके लिए वो सबसे पहले आज़ादी का उत्सव मनायेंगीं, अपने दायरे में आने वाले संसाधनों और सम्पत्तियों का मौद्रिकिकरण (मोनेटाइजेशन) करेंगीं, संपत्ति कर या पेशेवर कर का निर्धारण करेंगीं, सामुदायिक सम्पत्तियों को किराए पर देने के बारे में फैसले लेंगीं, सेवाओं और सुविधाओं पर कर लगाने के बारे में फैसले लेंगीं और कॉर्पोरेट सोशल रिस्पोन्सिबिलिटी के तहत धन जुटाने की दिशा में काम करेंगीं। इसी तरह अन्य महीनों के लिए एजेंडे दिये गए हैं।
देखने में ऐसा लगता है कि इस पत्र के मार्फत भारत सरकार इस सांवैधानिक तथ्य को पुनर्स्थापित करती है कि गांवों के संसाधनों पर ग्राम सभाओं का अनिवार्य रूप से पहला और आखिरी हक है। हालांकि भारत सरकार को इस दिशा में इस मान्यता को व्यावहारिक धरातल पर भी देखना चाहिए ताकि उसे यह जानकारी भी हो सके कि सिद्धांतत: ग्राम सभाओं के अधीन संसाधनों पर आज किन शक्तियों का नियंत्रण है।
अगर सरकार इस दिशा में ठोस पहल करे तो उसे पहले एक बड़ा काम ये करना होगा कि इन तमाम शक्तियों से गांवों के संसाधनों को मुक्त कराया जाये फिर उन्हें वास्तविक रूप से ग्राम सभाओं के नियंत्रण में लाया जाये और उसके बाद इन संसाधनों पर फैसले लेने के बारे में सलाह दी जाये।
यह भी कहा जा रहा है कि देश के पंद्रहवें वित्त आयोग ने ग्राम पंचायतों की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर काफी ज़ोर दिया है लेकिन इसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि वित्त आयोग द्वारा आबंटित अनुदान और राज्य सरकारों द्वारा दिये जाने वाले अनुदाओं के बल पर ग्राम पंचायतों में आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं आ सकती इसके लिए ग्राम पंचायतों को अपने राजस्व जुटाने कि कोशिश करना चाहिए।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मौजूदा पंद्रहवें वित्त आयोग ने जो अबाधित राशि (अनटाइड फंडस) के तौर पर ग्राम पंचायतों के लिए आरक्षित की है वो पिछले यानी चौदहवें वित्त आयोग की तुलना में ज्यादा ही है। चौदहवें वित्त आयोग ने जहां 2015 से 2020 तक के लिए कुल 2 लाख करोड़ रुपयों के अनुदान को स्वीकृति दी थी तो इस पंद्रहवें वित्त आयोग ने 2021-2026 के लिए कुल 2 लाख 36 हज़ार करोड़ रुपयों की राशि के प्रावधान किए हैं।
राजस्व जुटाने के लिए ग्राम सभाओं द्वारा अपने अधीन सम्पत्तियों का मोनेटाइजेशन या किराये पर देने की संभावित कार्यवाही और फैसले को समझने के लिए हम एक उदाहरण देख सकते हैं।
किसे होगा फायदा?
मान लेते हैं कि एक गांव में एक तालाब है। उस तालाब का इस्तेमाल मछली पालन के लिए होता है। उस तालाब में मछली पकड़ने का काम परंपरा से एक विशेष समुदाय करते आया है। वो समुदाय ग्राम पंचायत से हर साल तालाब को किराए पर लेते आया है। ये किराया एक मामूली सी रकम होती है क्योंकि गांव में रह रहे उस समुदाय विशेष का यही पेशा रहा है और पूरा गांव उस पेशे को मान्यता देता है।
अब इस नए मौद्रिकीकरण या किराये पर दिये जाने की योजना के तहत ग्राम सभा उस समुदाय के अलावा गांव के बाहर की किसी अन्य कंपनी को भी आमंत्रित कर सकता है। संभव है बाहर की कंपनी उसी तालाब का अधिक किराया दे। एक तरह से तालाब को ठेके पर देने के लिए एक पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया अपनाई जाती है।
ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर लागू हुई मोनेटाइजेशन की योजना के अनुरूप ग्राम सभा अपने तालाब को किसी बाहरी कंपनी को ठेके पर देती है तो उसे आने वाले पचास सालों के लिए भी ठेके पर दिया जा सकता है। हर साल के हिसाब से तय हुई ठेके की राशि का एक अंश (कुछ सालों का) एक मुश्त कंपनी द्वारा ग्राम सभा को दे दिया जाता है।
यह एक पारदर्शी, प्रतिस्पर्द्धि और वैध प्रक्रिया तो होगी लेकिन इससे उस समुदाय विशेष के परंपरागत अधिकार खत्म हो जाएंगे। और चूंकि वो मछली पालन से ही जुड़े रहे हैं इसलिए उस समुदाय के लोग अंतत: उस बाहरी कंपनी के मुलाज़िम बनकर उसी तालाब पर मछली पालन करेंगे जो कल तक परंपरागत रूप से उनके अधिकार में था।
संभव है कि वह बाहरी कंपनी उस तालाब के लिए किसी दूसरे गांव से अपने मुलाज़िम लेकर आए। ऐसे में गांव का राजस्व एकबारगी बढ़ते हुए दिखलाई देगा लेकिन यह राजस्व गांव के ही नागरिकों की आजीविका के स्रोतों को निगल जाएगा।