अंकिता रासुरी, वर्धा
देश की अधिकांश आबादी गांव में रहती है, फिर भी शहरी संस्कृति को श्रेष्ठ समझा जाता है। ‘गंवार’ शब्द तो इतना गिर गया कि अक्सर ‘बेवकूफ’ के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। शब्दों के इस तरह के अर्थ प्राप्त करने की अपनी राजनीति होती है। गांवों से जुड़ी चीजों को जिन संदर्भों में इस्तेमाल किया जाता है, उनसे अक्सर हमें गावों की संस्कृति को कमतर समझे जाने का अहसास होता है। दरअसल यह गांव के वजूद, इसकी अस्मिता को हाशिये पर धकेलने का एक तरीका है। जबकि पर्यावरण और संस्कृति की दृष्टि से कई धरोहरों को गांवों ने ही सबसे ज्यादा संभालकर रखा हुआ है।
यह रोजगार की मजबूरी है कि लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। हालांकि, शहरी जीवन का अपना एक आकर्षण है, जिसके साथ आधुनिकता का बोध बहुत गहराई से जुड़ा है। रोजगार और शिक्षा की तलाश में मैं भी घर से बाहर हूं। समय मिलने पर जब भी उत्तराखंड में अपने गांव जाती हूं तो अपना गांव-बस्ती कहीं ज्यादा सुकून देने वाली शांत जगह लगती है। वहां रहते हुए कभी इस खूबी का अहसास नहीं हुआ। लेकिन यह एक बाहरी नजर है। पर्यटक भी इसी नजर से इन पहाड़ों को देखते हैं। इस नजर से सब कुछ खूबसूरत नजर आता है। विकास और आधुनिकता की दौड़ में गांव और इससे जुड़ी चीजों, बातों और खूबियों को अप्रासंगिक, पिछड़ी और दोयम दर्जे की करार देने वाली सभ्यता इन चीजों को अपने ड्राइंग रूम में सजाने की थोड़ी-सी दरियादिली जरूर दिखा देते हैं।
जब भी मुड़कर अपने गांव की ओर देखती हूं तो अपने आगे बढ़ने से ज्यादा एक भरे-पूरे समाज के पीछे छूट जाने का अहसास मन में भर जाता है। वे लोग जो हर साल भूस्खलन, बाढ़ जैसी त्रासदियों की मार झेलते हुए भी बाहरी दुनिया को मुस्कुराते हुए नजर आते हैं। बड़े-बड़े बांधों की राह में खोखले हो चुके पहाड़ों पर बसे ये लोग पहाड़ से विशाल ह्रदय के साथ सबका स्वागत करते हैं।
साल के आखिर में जब-जब वापस गांव का रुख करती हूं तो ये सवाल और भी तीखे होते जाते हैं। हर साल बहुत कुछ बदल जाता है, बहुत कुछ पुराना पड़ जाता है। आज से 10-15 साल पहले तक जिन गांवों में हर घर में गाय, भैंस और बैल होते थे, किसी घर में मुश्किल से ही कोई जानवर नजर आता है। सौ से ज्यादा घरों के गांव में मुश्किल से 10-12 मवेशी हैं। हां, कुछ जगह 3जी या 4जी के सिग्नल पहुंचने लगे हैं, लेकिन मवेशियों से नाता टूटता जा रहा है। या कहें कि वक्त के साथ लोगों की जरूरतें और प्राथमिकताएं बदल रही हैं।
मेरे लिए इस तरह के बदलाव आधुनिक अर्थव्यवस्था या विकास के आधुनिक मॉडल के साये में पनप रही इकहरी संस्कृति के प्रसार की निशानियां हैं। गांव के लोग भी दूध-दही-मट्ठे के लिए बाजार पर उसी तरह निर्भर होने लगे हैं, जैसे शहरों में होते हैं। गांव में किसी के यहां ज्यादा दूध-दही हो तो मक्खन और घी के लिए एडवांस में ही पैसे दे दिए जाते हैं। इसके लिए भी बारी का इंतजार करना पड़ता है। गांव से गांव वाली चीजों को ही इस तरह ओझल होते देखना एक अलग किस्म की पीड़ा और आश्चर्य की बात है।
इस बार काफी दिन बाद घर जाना हुआ तो घर की हरी सब्जी राई और सरसों खाने का बहुत मन था। कुछ अपने घर की तो कुछ चाचियों-भाभियों द्वारा दी गई। लेकिन खाने के बाद वह उत्साह अजीब निराशा में बदल गया। पहले होता यह था इन सब्जियों की खुशबू खींच ले जाती थी। अब ना सब्जी में खुशबू थी, ना पहले वाला स्वाद। पता चला कि गांव के लोगों ने खेतों में गोबर/राख डालना लगभग छोड़ दिया है। मवेशियों के घटने से गांवों में प्राकृतिक खाद की भी कमी होने लगी है और यूरिया जैसी उर्वरकों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। मुझे सब्जियों से गुम स्वाद और सुगंध की वजह तलाशने में देर नहीं लगी। न ही इसके लिए पूरी तरह गांव के लोगों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। तरक्की और आधुिनकता की जो समझ हाल के वर्षों में विकसित हुई है, यह उसी की देन है? दरअसल, गांव वही सीख रहे हैं, जिसे शहरों ने श्रेष्ठ और सही साबित किया है।