ग्रामीण संकट: फिर से बढ़ने लगी मनरेगा में काम मांगने वालों की तादाद

पिछले कुछ महीनों से आर्थिक गतिविधियों पर कोविड-19 की वजह से पाबंदियां घटने के बावजूद इस योजना में काम की मांग बढ़ी
फोटो: माधव शर्मा
फोटो: माधव शर्मा
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पिछले साल नवंबर से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 यानी मनरेगा में काम मांगने वालों की तादाद में उछाल आया है। गौरतलब है कि कोरोना वायरस के चलते उपजी बीमारी कोविड-19 के बाद स्थितियों में सुधार के चलते पिछले साल सितंबर और अक्टूबर में इसमें काम मांगने वालों की तादाद अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच गई थी।

पिछले कुछ महीने में कोविड-19 के चलते आर्थिक गतिविधियों में पाबंदियां कम होती गई हैं। इसके बावजूद मांग का बढ़ना गांवों में लोगों के आर्थिक संकट की ओर इशारा करता है।
मनरेगा पोर्टल के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल नवंबर में 2.11 करोड़ और दिसंबर में 2.47 करोड़ परिवारों ने इस रोजगारी गारंटी योजना में काम की मांग की।
यह अक्टूबर में 2.07 करोड़ परिवारों की मांग में वृद्धि को दर्शाता है। गौरतलब है कि यह मई 2020 के बाद सबसे कम मांग वाले महीनों में से एक था, जब पूरे देश में महामारी के चलते लाॅकडाउन लगा हुआ था।

सितंबर 2021 के बाद इस योजना में काम की मांग सबसे ज्यादा दिसंबर 2021 में दर्ज की गई। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार, इस ट्रेंड की मासिक बेरोजगारी दर से भी पुष्टि होती है, जो दिसंबर में 7.91 फीसद थी। यानी सितंबर के बाद सबसे अधिक, जब यह 6.86 फीसद थी।

मांग बढ़ने का यह आंकड़ा उस समय का है, जब कोरोना वायरस के नए वेरिएंट, ओमिक्राॅन के चलते मरीजों की तादाद में बहुत ज्यादा वृद्धि नहीं आई थी। जनवरी में अब तक (7 जनवरी 2022 तक) 68 लाख परिवार मनरेगा में काम की मांग कर चुके हैं।

बीते साल के सारे महीनों में मनरेगा में काम मांगने वालों की तादाद दो करोड़ से ऊपर बनी रही। यह इस बात का संकेत है कि लाॅकडाउन के बाद आर्थिक गतिविधियों में सुधार के बावजूद हालात अभी महामारी से पहले के स्तर पर जैसे नहीं हो सके हैं। बड़ी तादाद में काम करने वाले मजदूर, जो 2020 में अपने काम करने की जगहों से गांव लौटे थे, अभी तक शहर वापस नहीं गए हैं और मनरेगा में काम मांग रहे हैं।

आमतौर पर योजना में काम मांगने वालों की तादाद केवल फरवरी से लेकर जून के बीच दो करोड़ से ऊपर जाती है और यह मई और जून में सबसे ज्यादा होती है। ऐसा 2018-19 और 2019-20 दोनों वित्त-वर्षों में पाया गया।

वित्त-वर्ष 2021, जिसके पूरे होने में अभी दो महीने बाकी हैं, मनरेगा में काम की औसत मांग 2.37 करोड़ परिवार रही है। जबकि 2019-20 में औसतन 1.88 करोड़ परिवारों ने योजना में काम मांगा था। हालांकि गुजरते वित्त-वर्ष की यह मांग, 2020-21 की मांग से कम है, जिसमें इस योजना में काम मांगने वाले परिवारों की तादाद 2.55 करोड़ थी।

मांग की तादाद के अनुपात में जहां तक काम पाने वालों का सवाल है, तो पिछले साल के अंतिम दो महीनों में काम मांगने वाले कुल 4.58 करोड़ परिवारों में से 3.53 करोड़ परिवारों को ही काम मिला। इनमें से 1.75 करोड़ परिवारों को बीते नवंबर में और 1.78 करोड़ परिवारों को दिसंबर में काम दिया गया।

मनरेगा के तहत मांग में लगातर वृद्धि, इस योजना के तहत अधिक धन के आवंटन का सवाल भी उठाती है। इस साल के बजट में इसके लिए वित्तीय आवंटन को 61,500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 73,000 करोड़ रुपये कर दिया गया था। लेकिन इस योजना में अब तक के वास्तविक खर्च 99,770 करोड़ रुपये को देखते हुए यह राशि मोटे तौर पर काफी नहीं है।

 इस राशि में मजदूरी और अन्य दूसरे घटकों के रूप में किए जाने वाले लंबित भुगतान भी शामिल हैं। 11,569 करोड़ बकाया भुगतान में से 1,552 करोड़ रुपये मजदूरों की मजदूरी के हैं।

जो राज्य यह मानते हैं कि यह योजना, रोजगार पैदा करने के लिए है, उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा में हर साल सृजित रोजगार दिवसों की सीमा को पहले ही पार कर लिया है, जबकि इस वित्त- वर्ष के पूरा होने में अभी ढाई महीने से ज्यादा का वक्त बाकी है। केंद्र के नियम के मुताबिक, मनरेगा में काम मांगने वाले को साल में कम से कम सौ दिन काम दिया जाना जरूरी है।

नवंबर में 80 सामाजिक-कार्यकर्ताओं के एक समूह ने महामारी के बाद मनरेगा में मांग में वृद्धि के बावजूद योजना में धन की भारी कमी को लेकर आवाज उठाई थी। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुला पत्र लिखकर उनसे योजना के लिए वांछित फंड को जारी कराने की मांग की थी। पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘धन की कमी के चलते काम की मांग को दबाया जाता है और इससे मजदूरों को उनकी मजदूरी के भुगतान में देरी होती है। ये इस अधिनियम का उल्लंघन हैं और इससे आर्थिक सुधारों में भी बाधा पड़ती है।’
 

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