रिपोर्टर डायरी- 11 : आदिवासी श्रमदान और पारंपरिक ज्ञान से चल रही आजीविका

जबर्रा गांव में माहुल के पत्तों का काम करतीं आदिवासी महिलाएं, फोटो : पुरुषोत्तम ठाकुर
जबर्रा गांव में माहुल के पत्तों का काम करतीं आदिवासी महिलाएं, फोटो : पुरुषोत्तम ठाकुर
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छत्तीसगढ़ के धमतरी गांव में स्थित जबर्रा गांव के मुहाने पर बहने वाली काजल नदी पर निर्माणाधीन रप्टे का निर्माण कार्य तेजी से चल रहा है। ग्रामीण बड़ी मात्रा में पर जंगली घासों को नदी पर डाल रहे हैं और जेसीबी मशीन इस पर मिट्टी का डाल रही है। इस बीच निर्माण स्थल पर जंगली घासों का एक बड़ा बोझा सिर से उतार उसे पैरों से बिछा रही 60 वर्षीय बीरझा सोरी ने डाउन टू अर्थ से कहा, यह काम तो हम हर बरस करते हैं,तभी जाकर दो पैसे की बचत हो पाती है नहीं तो दूसरी ओर अपनी जंगल की उपज बेचने जाते हैं तो हमारा आधा पैसा तो गाड़ी पर खर्च हो जाता है।

बीरझाा के घर की तरफ से आज श्रमदान का दिन है। इसलिए वह सुबह से ही आ गईं हैं ताकि अधिक से अधिक काम निपटाया जा सके। वह बताती हैं कि हमारी आधी उमर तो इस रप्टा बनाने में खर्च हो गई है। सुबह से लगातार काम करने के कारण वह थक चुकी हैं और अपना चेहरा पसीने से पोंछते हुए कहती हैं कि अब तो मैं पूरा दिन काम भी नहीं कर पाती, बताइए अभी दोपहर के एक बजे रहे हैं और मैं थक के चूर हो चुकी हैं। ध्यान रहे कि ऐसे में उनके घर से किसी दूसरे सदस्य को श्रमदान के लिए आना होगा।

रप्टा के निर्माण के शुरू होने से लेकर इसके पूरे होने तक गांव के हर घर से एक सदस्य प्रतिदिन श्रमदान के लिए आते हैं। मकराम ने बताया कि कभी-कभी अधिक लोगों की जरूरत पड़ने पर हम ग्राम वन प्रबंधन समिति में इस बात का भी निर्णय ले लेते हैं कि कुछ दिनों के लिए हर घर से दो सदस्य श्रमदान के लिए आएंगे। ग्राम वन प्रबंधन समिति इस बात का विशेष ख्याल रखती है कि श्रमदान के लिए गांव से पुरुष और महिलाओें की संख्या आधी-आधी ही होनी चाहिए। इसमें किसी प्रकार कि घटबढ़ स्वीकार्य नहीं है।  

जहां तक कितना पैसा एक घर को देना है, यह निर्णय ग्राम वन प्रबंधन समिति खर्च के हिसाब से प्रति घर पैसा निर्धारित करती है। जैसे इस बार प्रति घर 500 रुपए निर्धारित किया गया है। यदि इस राशि को सौ घरों से गुणा कर दें तो यह राशि पचास हजार हो जाती है। हालांकि रप्टा पर श्रमदान के लिए अपने घर से निकल रही धमशिला कहती हैं कि कभी तो हमें आपस अधिक धनराशि भी खर्च करनी पड़ जाती है, क्योंकि कई बार मशीनरी का किराया बढ़ जाता है।

नदी पर बन रहे रप्टा के लिए गांव वाले किसी इंजीनियर को कभी नहीं बुलाते हैं। ग्रामीण अपने पारंपरिक ज्ञान के दम पर इस रप्टे का निर्माण पिछले 24 सालों से करते आ रहे हैं। अपने घर की देहरी पर बीड़ी पी रहे रामबाहू नेताम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हमारा दादा-परदादाओं ने हमारे पिता को सिखाया कि कैसे बहती नदी को नुकसान के बिना ही रप्टा बनाना और हम उनसे सीख गए हैं। वह बताते हैं कि रप्टा हम इसलिए बनाते हैं कि ताकि नदी का पानी रप्टा के ऊपर से आसानी से निकल सके। ध्यान रहे कि जहां भी कच्चा या पक्का पक्का रप्टा बनाया जाता है, वह इस तरह से बनाया जाता है कि नदी में अधिक पानी आने कि स्थिति में वह आसानी से रप्टा के ऊपर से निकल सके।

काजल नदी पर जबर्रा गांव क आदिवासियों द्वारा बनाए गए पुल के कारण आसपास के 15 ग्राम पंचायतों को गरियाबंद जिला और नगरी ब्लॉक पहुंचने में आसानी होती है। ग्रामीणों को इस रप्टा के निर्माण के बाद औसतन 36 से 40 किलीमीटर दूरी हाट-बाजार से कम हो जाती है। क्योंकि जबर्रा गांव से धमतरी मुख्यालय की दूरी 61 किलोमीटर है और नगरी व गरियाबंद की दूरी 10 से 12 किलोमीटर पड़ती है।

रामबाहू ने बताया कि गांव में छह माह का खर्चा जंगल की उपज से चलता है। यहां कोई भी आदमी निजी क्षेत्र में काम नहीं करता है। जबर्रा जैसे बड़े गांव में केवल आदमी को सरकारी नौकरी मिली है, वह भी चपरासी की अन्यथा सभी ग्रामीणों की आजीविका जंगल पर ही पूरी तरह से निर्भर है। ग्रामीण जंगल की उपज अक्टूबर से लेकर मार्च तक एकत्रित करते हैं। रामबाहू ने बताया कि हम अपनी जंगल की उपज का केवल 20 प्रतिशत ही सरकार को बेचते हैं बाकि 80 फीसदी उपज हाट बाजार में जा कर बेचते हैं। इसका कारण बताते हुए बेंदापानी गांव की मीना नेताम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सरकार जो खदीद करती है वह हमारे खाते में डालती है और यह बहुत देर से आता है साथ ही हमारे गांव में कोई पढ़ा लिखा नहीं है, ऐसे में हमारे लोगों को खाताबही न तो देखना आता है और न वाचना।

कई ग्रामीणें ने शिकायत की है कि ऐसे में खाते में आए पैसे को वे ठीक से गिन नहीं पाते है, जो बैंक वाले ने दिए वहीं लेकर आ गए। उनको मालूम ही  नहीं कि उनके खाते में कितने पैसे आए और कितना उन्हें मिला। मीना कहती हैं कि ऐसे विपरीत हालात में हमें अपनी जीविका चलाने के लिए तुरंत कैश की जरूरत होती है इसलिए हम हाट में जाकर अपनी उपज बेंचते हैं। मीना गांव में सड़क किनारे कपड़े फैलाकर जंगल से खोदकर लाए गए दो प्रकार के जीमीकंद बेंच रही हैं, एक का भाव 40 रुपए है और यह आसानी से मिल जाता है जबकि दूसरे का नाम करुकांदा है, वे इसे 60 रुपए किली बेच रही हैं, क्योंकि यह मुश्किल से मिलता है। वह कहती हैं कि हमारे लिए कैश जरूरी है, सरकार भी यदि हमारी उपज का कैश दे तो हम उसी को देंगे।

 गांव की अधिकांश महिलाएं ही जंगलों में जाकर जंगली उपज एकत्रित करने का काम करती हैं और वे ही उसे बेचने लायक बनाती हैं। इसके बाद ही पुरुषों का काम शुरू होता है कि उसे निजी बाजार में जाकर बेचना है या ग्राम वन प्रबंधन समिति को बेचना है। ध्यान देने की बात है कि खुले बाजार में बेचने से आदिवासियों का अपनी उपज का अधिक पैसे मिलने की संभावना होती है जबकि सरकारी समर्थन मूल्य निश्चित होता है। इस  संबंध में कृषणा नेताम ने बताया कि सरकार जब हमारी उपज की खरीद करती है तो उसके कई चोंचले होते हैं, कभी तो कह देगी तुम्हारे बनाए गए पत्तल पूरी तरह से सूखे नहीं है इसलिए बड़ी मात्रा में हमारे बनाए गए पत्तल रद्द कर देती है। इसके अलावा अन्य  वनोउपज में वह मीनमेख निकालकर बड़ी मात्रा में उपज को रद्दी बना देती है। यही कारण कि अधिकांश ग्रामीण खुले बाजार में जाकर अपनी उपज बेचना पसंद करते हैं और इससे उनको तुरंत नकदी मिल जाती है। 

छत्तीसगढ़ सरकार 2024-25 के दौरान राज्य में भर में 67 प्रकार की वनोपज खरीद रही है। जब यह 2001 में  राज्य बना था तब सरकारी खरीद के तौर पर सरकार केवल 7 प्रकार की वनोपज ही लेती थी। जबर्रा गांव में वर्तमान में 2024-25 के दौरान इस क्षेत्र में पाई जाने वाली 19 प्रकार की वनोपज की सरकार खरीद करती है।   

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