जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्यों हो रही है राजनीति

हर बार ही यह एक विशेष आबादी होती है, जिसे कम करने की आवश्यकता होती है
जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्यों हो रही है राजनीति
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केंद्र सरकार देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करनी चाहती है। डाउन टू अर्थ ने इस मुद्दे का व्यापक विश्लेषण किया। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या सच में जरूरी है? । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा: जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या आबादी वाकई विस्फोट के कगार पर है? । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, महत्वपूर्ण सवालों पर नहीं हो रही बहस । चौथी कड़ी में पढ़िए कि दुनिया भर में इस पर किस तरह की राजनीति हो रही है-  

जनसंख्या विस्फोट हो चुका है और इस तथ्य पर कोई तर्क नहीं हो सकता। 1800 ईसवीं तक विश्व की आबादी को एक बिलियन (अरब) तक पहुंचने में लाखों साल लगे। उसके बाद यह सिर्फ 100 वर्षों के भीतर ही दोगुनी हो गई और जल्द ही छह बिलियन तक पहुंच गई। यह असाधारण वृद्धि कृषि, विज्ञान, और चिकित्सा में प्रगति से प्रेरित थी, जिसने लोगों के जीवनकाल को बढ़ाया। परिणामस्वरूप 20वीं शताब्दी में जनसंख्या नियंत्रण और इस ग्रह के सीमित संसाधनों के प्रबंधन पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया गया।

चाहे ट्रैफिक जाम से मुक्ति की बात हो, बेहतर परिवहन सुविधाएं देनी हो, या फिर बेहतर आय मुहैया कराना हो, राजनीतिक दलों के लिए सेवाओं को वितरित करने और लोगों के लिए बेहतर जीवन में बाधा उत्पन्न करने वाली समस्याओं को हल करना जरूरी है और इसी वजह से उन्होंने इस मुद्दे को उठाया है। जब नीति-निर्माता विफल होते हैं तो बढ़ती आबादी उनके लिए ढाल का काम करती है। भारत के सत्तारूढ़ दल जैसे रूढ़िवादी दलों को जनसंख्या वृद्धि के विषय में अधिक मुखर, बल्कि एक हद तक कट्टर माना गया है।

2010 में तत्कालीन ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने चुनाव अभियान के दौरान कहा कि चुनाव जीतने के लिए उन्हें गंभीर जलवायु परिवर्तन नीति की आवश्यकता नहीं। इसके बजाय, उन्होंने “सस्टेनेबल ऑस्ट्रेलिया” को अपने एजेंडे के रूप में रखा, जो कम जनसंख्या वृद्धि की वकालत करता था। उनके अभियान को इतनी सफलता मिली कि विपक्षी नेता और जलवायु परिवर्तन से इनकार करने वाले टोनी एबॉट ने दावा किया कि वह गिलार्ड की तुलना में कहीं अधिक प्रतिबद्ध हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने आप्रवासन को अपने अभियान का केंद्र बनाया। उन्होंने इस पर एक विस्तृत नीति एजेंडे की पेशकश की। उन्होंने इस डर को पूरी तरह भुनाया कि कम अमेरिकी आबादी अंततः अप्रवासियों द्वारा अधिग्रहण की ओर ले जाएगी। यूनाइटेड किंगडम में प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले 2016 में बोरिस जॉनसन ने यूरोपीय संघ छोड़ने के अभियान का नेतृत्व किया। उस समय और उसके बाद से ही प्रवासन ब्रेक्जिट पर सार्वजनिक बहस का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया। प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले भाषण में जॉनसन ने जोर देकर कहा कि वह अनियमित प्रवासन दिशानिर्देशों को सख्त बनाएंगे। ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो ने जलवायु परिवर्तन के लिए जनसंख्या वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया है।

जाहिर है कि इन नेताओं ने बढ़ती आबादी के लिए समाज के एक वर्ग को निशाना बनाया है। यही कारण है कि पर्यावरण पत्रकार डेविड रॉबर्ट्स ने कहा कि वह कभी भी अतिजनसंख्या के बारे में नहीं लिखेंगे। जब राजनीतिक आंदोलन या नेता जनसंख्या नियंत्रण को चिंता का एक मुख्य विषय के रूप में अंगीकार करते हैं तो कह सकते हैं कि यह कभी सही साबित नहीं होता। व्यवहार में जब भी आपको जनसंख्या के विषय पर चिंता होती है, आप बहुत बार नस्लवाद, जेनोफोबिया या यूजीनिक्स को पंख पसारते हुए पाते हैं। लगभग हर बार ही यह एक विशेष आबादी होती है, जिसे कम करने की आवश्यकता होती है।” उन्होंने लिखा।

बेबी बस्ट के दौर से गुजर रही है आधी दुनिया

वैश्विक स्तर पर, जनसंख्या पर बहस अब प्रतिस्थापन स्तर (टीईआर 2.1) से नीचे जाती आबादी के परिणामों की ओर मुड़ गई है। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग ने अपने पेपर द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट्स: द 2017 रिविजन में पूर्वानुमान जताया है कि 2030 में दुनिया की आबादी 8.6 बिलियन, 2050 में 9.8 बिलियन और इस सदी के अंत तक 11.2 बिलियन तक पहुंच जाएगी। अब इस पर बहस शुरू हो गई है।

द लिमिट्स टू ग्रोथ (1972) के सह-लेखक और नॉर्वेजियन विद्वान जोर्जेन रैंडर्स, जिन्होंने अत्यधिक जनसंख्या के कारण तबाही की चेतावनी दी थी, अब कहते हैं कि दुनिया की आबादी 2050 से पहले लगभग 9 बिलियन तक पहुंचेगी और 2100 तक गिरकर इसकी आधी रह जाएगी। बीआई नार्वे बिजनेस स्कूल, ओस्लो के जलवायु रणनीति, कानून एवं शासन विभाग में एमेरिटस प्रोफेसर रैंडर्स कहते हैं, “हुआ यह है कि दुनिया नाटकीय तरीके से प्रजनन दर को कम करने में कामयाब रही है, जो 1970 में 4.5 बच्चों के मुकाबले वर्तमान में गिरकर 2.5 बच्चे प्रति महिला तक पहुंच गई है। यह महिलाओं को अधिक शिक्षा, स्वास्थ्य और गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के अधिकार देकर संभव हो पाया।”  

ऐसा मानने वाले रैंडर्स अकेले नहीं हैं। द ह्यूमन टाइड : हाउ पॉपुलेशन शेप्ड द मॉडर्न वर्ल्ड के लेखक पॉल मॉरलैंड का कहना है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्से में प्रजनन में गिरावट दर्ज हो रही है। मेलबर्न स्थित थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर फैमिली स्टडीज की एक नई रिपोर्ट बताती है कि बहुत कम जन्मदर अब सामान्य बनती जा रही है। उप-सहारा अफ्रीका को छोड़कर, लगभग सभी देश प्रतिस्थापन-स्तर के प्रजनन से नीचे हैं या वहां तक पहुंचने वाले हैं।

संकेत स्पष्ट हैं। ब्रिटिश पत्रिका द लांसेट की 2017 की रिपोर्ट में पाया गया कि दुनिया के आधे देश “बेबी बस्ट” (जन्मदर में अचानक गिरावट) के दौर से गुजर रहे हैं, जो कि पहले के “बेबी बूम” (जन्मदर में अचानक वृद्धि) के विपरीत है। अपनी मौजूदा जनसंख्या को बनाए रखने के लिए बच्चों की संख्या अपर्याप्त है। कई देशों की आबादी में गिरावट दर्ज की जा रही है। इनमें ग्रीस (1.3 टीएफआर), बुल्गारिया (1.58 टीएफआर), हंगरी (1.39 टीएफआर), पोलैंड (1.29 टीएफआर), इटली (1.40 टीएफआर), दक्षिण कोरिया (1.26 टीएफआर) और जापान (1.48 टीएफआर) शामिल हैं। यहां तक कि विकासशील देशों में भी यह प्रवृत्ति दिख रही है। चीन में अब प्रजनन दर 1.5, और ब्राजील में सिर्फ 1.8 है। 1976 के बाद से आधिकारिक तौर पर अपनी जन्म दर बढ़ाने की कोशिश कर रहे देशों की संख्या 9 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 30 प्रतिशत हो गई है।

शहरीकरण इस गिरावट का एक महत्वपूर्ण कारण है, क्योंकि पहली बार ऐसा दौर आया है जब आज अधिकतर आबादी शहरों में रह रही है। यूनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क, आयरलैंड में बायोकेमेस्ट्री के प्रोफेसर विलियम रेविले कहते हैं, “ग्रामीण इलाकों में बच्चा खेत पर काम करके परिवार की मदद कर सकता है, लेकिन शहरों में एक बच्चा आर्थिक दायित्व बन जाता है। शहरों में महिलाओं पर अधिक बच्चे पैदा करने का सामाजिक दबाव भी कम होता है। मीडिया, स्कूलों और गर्भनिरोधकों तक उनकी पहुंच बढ़ जाती है।”

डारेल ब्रिकर इससे सहमति जताते हैं। समाज का जितना अधिक शहरीकरण होता है और महिलाओं का उनके शरीर पर जितना अधिक नियंत्रण हासिल होता है, वे उतने ही कम बच्चे पैदा करती हैं।

2016 के बाद से पोलैंड प्रति बच्चा प्रति माह 100 पाउंड का भुगतान कर रहा है और वहां गर्भपात विरोधी सख्त कानून लागू है। हंगरी ने भी कोशिश की है। दक्षिण कोरिया कर प्रोत्साहन, बेहतर शिशु देखभाल, आवास लाभ, बच्चे पैदा करने के लिए विशेष अवकाश, इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन के लिए सहायता और उदार अभिभावकीय अवकाश जैसी सुविधाओं के माध्यम से अपनी अनिश्चित प्रजनन दर को दोबारा बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। चीन भी अब अपने लोगों से अधिक बच्चे पैदा करने की उम्मीद करता है। लेकिन कहीं भी कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ा है, जिससे यह संदेह भी बढ़ा है कि क्या गिरावट के बाद आबादी को प्रतिस्थापन-स्तर पर वापस लाया जा सकता है।

ब्रिकर कहते हैं कि एक बार गिरावट के बाद प्रजनन दर को दोबारा बढ़ाना असंभव नहीं है, लेकिन केवल इजरायल ही ऐसा कर पाया है। कुछ सरकारों ने बच्चों की संख्या बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है, जहां दंपती बच्चों की देखभाल के लिए भुगतान और अन्य सुविधाओं का लाभ उठाने को तैयार हैं, लेकिन वे देश भी प्रजनन क्षमता को प्रतिस्थापन स्तर तक वापस लाने में कभी कामयाब नहीं हुए। इसके अलावा यह कार्यक्रम आर्थिक मंदी के दौरान बहुत महंगे और निरंतर चलने वाले साबित हुए।

जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए उपभोग एक प्रमुख कारक के तौर पर उभरा है। पृथ्वी की वार्षिक शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता में मनुष्य का हिस्सा 42 प्रतिशत है। हकीकत में ग्रह के 50 प्रतिशत भूभाग का उपयोग मानव की ओर से किया जा रहा है। 1798 में अंग्रेजी विद्वान थॉमस माल्थस ने कुल उपलब्ध भोजन की तुलना में अधिक जनसंख्या पर बात की थी। उन्होंने खाद्य आपूर्ति को संतुलित करने के लिए जनसंख्या नियंत्रित करने पर चर्चा की। 1972 की पुस्तक द लिमिट्स टु ग्रोथ में लेखकों ने तर्क दिया कि या तो सभ्यता या फिर विकास समाप्त होना चाहिए। यह तब की बात है, जब भारत ने जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए सबसे कड़े कदम उठाए और चीन ने एक बच्चे की नीति लागू की।

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