
24 अप्रैल 1993—वह ऐतिहासिक दिन, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक ढांचे को जड़ों तक मजबूत करने की नींव रखी गई। इस दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज और लोकतंत्र को अंतिम छोर तक पहुंचाने के सपने को पूरा करने के लिए भारतीय संविधान में 73वां और 74वां संशोधन किया गया और पंचायती राज और नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा मिला। देखते ही देखते 32 साल बीत गए, लेकिन क्या इन 32 सालों में इस दिशा में ठोस और प्रभावी बदलाव आ पाया? इसकी सच्चाई देश के संसद भवन से मात्र 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांधी ग्राम घासेड़ा में जाकर देखी जा सकती है। सवाल उठ सकता है कि आखिर घासेड़ा ही क्यों? तो इसका सीधा सा जवाब है कि घासेड़ा वो गांव है, जहां के लोगों को गांधी ने एक ऐसा सपना दिखाया था, जिसे आंखों में लिए लोग अभी उस सपने के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं।
दरअसल 19 दिसंबर 1947 को महात्मा गांधी इस गांव में पहुंचे थे। उनके साथ पंजाब के तत्कालीन पहले मुख्यमंत्री डॉ. गोपीचंद भी थे। गांधी इस गांव से पाकिस्तान रवाना होने वाले मेव मुस्लिमों को समझाने आए थे। भारत-पाक विभाजन के बाद मेव मुस्लिम बड़ी तादात पाकिस्तान जाना चाहते थे और आसपास के इलाकों के मेव मुस्लिम घासेड़ा में इकट्ठा हुए थे। इस बात की जानकारी मिलने पर गांधी उन्हें मनाने यहां पहुंचे और मेव समाज से अपील की कि वे भारत से न जाएं। अपने संबोधन में गांधी ने कहा था, “मेव भारतीय संघ के नागरिक हैं और यह सरकार का कर्तव्य है कि वह शिक्षा की सुविधा और बसने के लिए स्थान उपलब्ध कराकर मेवों के पुनर्वास में मदद करे।” महात्मा गांधी का यह भाषण गांधी सर्व वेबसाइट पर खंड 90 में उपलब्ध है। उस समय गोपीचंद ने भी स्थानीय लोगों को सरकार की ओर से हरसंभव सुविधा उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया था। परंतु लगभग 78 साल बाद भी गांव घासेड़ा में पानी-सफाई जैसी मूलभूत सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। गांव के लगभग हर घर में लोगों ने अपने खर्च पर सीमेंट के कुएं बनाए हुए हैं। लोग टैंकरों से पानी मंगवाते हैं और इन कुओं में खाली करवा देते हैं। जो पांच से सात दिन चलता है। कुओं से पानी निकालने के लिए लोगों ने हैंडपंप लगाए हुए हैं। हर परिवार ने औसतन 50 हजार रुपए से अधिक खर्च किया हुआ है। इसके अलावा सप्ताह में एक टैंकर मंगाने का खर्च 1,200 रुपए आता है।
खास बात यह है कि केंद्र सरकार की बहुप्रचारित योजना हर घर नल के तहत साल 2021 में गांव के लगभग सभी घरों में नल की टोंटी लगा दी गई है, लेकिन गांव में पाइप लाइन तक नहीं बिछी हैं, जिस वजह से ये नल दिखावटी साबित हो रहे हैं। गांव के युसूफ खान अपने घर में नल दिखाते हुए डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि जब घर में नल लगा था तो बड़ी उम्मीद जगी थी कि दशकों पुरानी पानी की समस्या से निजात मिल जाएगी, लेकिन कुछ ही दिन बाद यह उम्मीद टूट गई। उनकी गली में पाइप लाइन के लिए नाली भी खोदी गई, परंतु कुछ समय तक जब पाइप नहीं डाले गए तो लोगों ने गड्ढे बंद कर दिए। गांव के बुजुर्ग आज भी याद करते हुए कहते हैं कि जब गांव में महात्मा गांधी आए थे, तब उनका भाषण सुनने वाले एक ही व्यक्ति जीवित हैं, लेकिन अब वो इतने बुजुर्ग हो चुके हैं कि बोल नहीं पाते हैं, लेकिन गांव के लगभग सभी लोगों को अपने बुजुर्गों की बताई बातें अभी भी याद हैं। गांव की 65 वर्षीय जमीला कहती हैं, “मेरे पिता अकसर बताते थे कि गांधी जी बहुत सफाई पसंद थे, लेकिन हमारे गांव की हालत देख लीजिए, पूरे गांव में गंदगी ही गंदगी मिलेगी। यह हाल तब है, जब गांव को गांधी ग्राम के नाम से जाना जाता है।” तब फिर इस गांव के लिए ग्राम पंचायत का क्या मायने हैं? लगभग 70 वर्षीय सर्ईद कहते हैं, “पंचायतों का एक ही मायना है कि सरपंच बनने के लिए चुनाव में सिर फुटोव्वल और सरपंच बनने के बाद उस व्यक्ति का अमीर हो जाना। ग्रामीणों को उसका कोई फायदा नहीं मिलता।”
देश में 2,69,057 ग्राम पंचायतें हैं। संविधान में इन्हें तीसरी सरकार का दर्जा दिया गया है, लेकिन क्या ये पंचायतें अपना यह संवैधानिक दायित्व ठीक ढंग से निभा पा रही हैं और क्या सच में सरकारों ने पंचायतों को उनके अधिकार सौंप दिए हैं? एक ताजा रिपोर्ट में पता चला है कि पिछले एक दशक में भारत में पंचायतों के विकेंद्रीकरण में कुछ प्रगति हुई है, लेकिन अभी तक केवल 43.9 प्रतिशत लक्ष्य ही हासिल किया जा सका है, जो 2013-14 में 39.9 प्रतिशत था। दरअसल भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (आईआईपीए) ने फरवरी 2025 में राज्यों में पंचायतों को हस्तांतरण की स्थिति पर एक रैंकिंग रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट का मुख्य उद्देश्य यह आकलन करना है कि भारत के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पंचायतों को कितनी शक्तियां और संसाधन सौंपे गए हैं। यह रिपोर्ट पंचायतों की स्वायत्तता और सशक्तिकरण की स्थिति को मापती है, जिससे यह समझा जा सके कि वे स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने और उन्हें लागू करने में कितनी सक्षम हैं। इस रिपोर्ट में समग्र (ओवरऑल) के अलावा छह अलग–अलग आयामों पर आधारित रैंकिंग जारी की गई। इसमें ढांचा, कार्य, वित्त, कर्मचारी, क्षमता निर्माण व जवाबदेही शामिल है। इन छह आयामों पर आधारित सूचकांक में कर्नाटक को पहला स्थान दिया गया है। देखें, पेज- विकेंद्रीकरण सूचकांक: ओवरऑल
“स्टेटस ऑफ डिवोल्यूशन टु पंचायत इन स्टेट्स 2024” शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में इस बात का विस्तार से अध्ययन किया गया है कि भारत के अलग-अलग राज्यों में पंचायतें अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में कितनी सक्षम हैं। पंचायतों को उनके काम करने के लिए जरूरी ताकत (अधिकार) और साधन (पैसे, कर्मचारी आदि) कितने दिए गए हैं। पंचायतों को पूरी तरह से स्वतंत्र और मजबूत स्थानीय सरकारें बनाने के लिए अब भी किन बातों पर काम करने की जरूरत है। रिपोर्ट में एक ऐसा तरीका (सूचकांक) अपनाया गया है जिससे यह पता चलता है कि कौन-सा राज्य पंचायतों को अधिकार देने में कितना अच्छा काम कर रहा है। इसके अलावा, पंचायतों को सौंपी गई शक्तियों के अलग-अलग पहलुओं को समझने के लिए उप-सूचकांक (सब-इंडेक्स) भी बनाए गए हैं। इनसे यह जाना जा सकता है कि किसी राज्य की पंचायतें किस क्षेत्र में बेहतर हैं और किसमें उन्हें सुधार की जरूरत है।
आइए, सबसे पहले जानते हैं कि इस सूचकांक की शुरुआत कैसे हुई। दरअसल साल 2004 में पंचायती राज संस्थाओं को शक्तियों और संसाधनों के हस्तांतरण के अध्ययन की नींव रखी गई थी। साथ ही, साल दर साल एक विकेंद्रीकरण सूचकांक भी विकसित करने का निर्णय लिया गया, ताकि राज्यों को पंचायतों को अधिक अधिकार सौंपने के लिए प्रेरित किया जा सके। सूचकांक की गणना के लिए शुरुआत में ‘3एफ’ आयाम का उपयोग किया गया, जिसमें यह मापा गया कि राज्यों ने पंचायतों को कितने कार्य (फंक्शन), कितनी वित्तीय शक्ति (फाइनेंस) और कितने सरकारी कर्मचारी (फंक्शनरी) सौंपे हैं। लेकिन साल 2008 में एक महत्वपूर्ण बदलाव करते हुए चौथा एफ ‘फ्रेमवर्क’ (ढांचा) को जोड़ा गया। ‘फ्रेमवर्क’ आयाम जांचता है कि राज्य व केंद्र शासित क्षेत्रों ने राज्य निर्वाचन आयोग, नियमित पंचायत चुनाव, राज्य वित्त आयोग और जिला योजना समितियों की स्थापना जैसे संवैधानिक अनिवार्य प्रावधानों को पूरा किया है या नहीं। इन अनिवार्य शर्तों को पूरा करने वाले राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को ही सूचकांक के आकलन में शामिल किया जाता था। 2012 में और दो आयाम जोड़े गए। एक- जवाबदेही, दूसरा- क्षमता निर्माण। इन छह आयामों के आधार पर रिपोर्ट तैयार करना और सूचकांक जारी करने का दायित्व भारतीय लोक प्रशासन संस्थान को सौंपा गया। आइए, इन छहों आयामों के आधार पर जानते हैं कि देश और राज्यों में पंचायत विकेंद्रीकरण की क्या स्थिति है?
पंचायतों का ढांचा यानी फ्रेमवर्क केरल में सबसे मजबूत है। आईआईपीए ने 83.56 अंकाें के साथ केरल को पहला स्थान दिया है। केरल के बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, मध्य प्रदेश, ओडिशा व राजस्थान का नंबर आता है। सूचकांक में फ्रेमवर्क को 10 अंक दिए गए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243(के) में व्यवस्था है कि पंचायत चुनावों की निगरानी, दिशा-निर्देशन और नियंत्रण की जिम्मेदारी राज्य निर्वाचन आयोग की होती है। लेकिन कई राज्यों में पंचायत चुनावों की तिथियों को निर्धारित करने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग को राज्य सरकार से परामर्श करना पड़ता है, जिससे चुनाव प्रक्रिया में देरी और राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना बढ़ जाती है। यहां तक कि निर्वाचन क्षेत्रों के सीमांकन व अलग-अलग वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण में भी राज्य सरकारों का दखल दिखाई देता है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान में भारत में दो संवैधानिक निकाय भारतीय निर्वाचन आयोग और राज्य निर्वाचन आयोग अलग-अलग चुनावों के लिए मतदाता सूचियां तैयार करते हैं, जिससे दोहराव, मानव संशोधनों का दुरुपयोग व अनावश्यक खर्च होता है, इसलिए सुझाव दिया गया कि एक साझा मतदाता सूची के लिए स्पेशल परपज व्हीकल (एसपीवी) की स्थापना की जाए।
पंचायतों के माध्यम से कार्यों का विकेेंद्रीकरण एक महत्वपूर्ण पहलू है। विकेंद्रीकरण सूचकांक में कार्यों (फंक्शन) को 15 अंक दिए गए हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243जी पंचायतों को स्वशासी संस्थाओं के रूप में कार्य करने का अधिकार देता है। राज्य सरकारों की जिम्मेवारी है कि वे 11वीं अनुसूची के अंतर्गत सभी 29 विषयों पर पंचायतों को पूर्ण शक्तियां प्रदान करें, इसमें जल आपूर्ति, स्वच्छता, सड़क निर्माण, प्राथमिक शिक्षा, कृषि विकास, कचरा प्रबंधन, प्राथमिक स्वास्थ्य जन्म-मृत्यु पंजीकरण जैसे प्रमुख विषय हैं। रिपोर्ट के मुताबिक केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु ने 29 में से अधिकांश विषयों पर कार्य पंचायतों को सौंपे हैं, जिससे ये पंचायत सशक्त और आत्मनिर्भर बनी हैं। इनके अलावा अन्य राज्यों ने अभी तक सभी 29 कार्य पंचायतों को नहीं सौंपे हैं।
विकेंद्रीकरण का सबसे अहम हिस्सा है पंचायतों की वित्तीय दशा में सुधार। भारत के संविधान में पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय सशक्तिकरण प्रदान करने के लिए तीन प्रमुख अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद 243एच में राज्य विधानसभाओं को यह अधिकार दिया गया है कि वे पंचायतों को कर, शुल्क, टोल और फीस लगाने, एकत्र करने और उनका उपयोग करने की अनुमति दें। राज्य सरकारें इन करों को पंचायतों को सौंप सकती हैं। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें पंचायतों को अनुदान प्रदान कर सकती हैं और पंचायतों के लिए अलग कोष की व्यवस्था कर सकती हैं। अनुच्छेद 280(3)(बीबी) में केंद्रीय वित्त आयोग को यह दायित्व सौंपा गया है कि वह राष्ट्रपति को सिफारिश करे कि राज्यों की समेकित निधि को कैसे बढ़ाया जाए। यह सिफारिश राज्य वित्त आयोगों द्वारा दी गई सिफारिशों के आधार पर की जाती है। अनुच्छेद 243-आई में राज्यपाल को यह निर्देश दिया गया है कि वह हर पांच वर्षों में राज्य वित्त आयोग का गठन करें। यह आयोग पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करे। घासेड़ा गांव के पूर्व सरपंच एवं वर्तमान सरपंच इमरान के पिता आशु बताते हैं कि गांव के पास आय के केवल दो साधन है। एक-तालाबों को मछली पालन के लिए किराए पर देना और दूसरा पंचायती जमीन को खेती के लिए किराए पर देना। दोनों ही साधनों से आमदनी लगातार घट रही है। तालाब पर पानी खारा होने के कारण मछलियां मर जाती हैं और सिंचाई का साधन न होने के कारण लोग खेती भी नहीं करना चाहते हैं। केंद्रीय पंचायत मंत्रालय के पोर्टल में दी गई जानकारी के मुताबिक, घासेड़ा पंचायत की साल भर की अपनी आमदनी 50 हजार रुपए है। विकेंद्रीकरण सूचकांक में हरियाणा की स्थिति अच्छी है। हरियाणा का समग्र स्कोर राष्ट्रीय औसत से नीचे है।
पंचायतों के पास अपने आमदनी की हालत क्या है, इसका अंदाजा जनवरी 2024 में भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए “पंचायती राज संस्थाओं का वित्त” शीर्षक से एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में देश की पंचायतों की कुल आय लगभग ₹35,350 करोड़ रही। इनमें केवल ₹740 करोड़ (1 प्रतिशत) कर राजस्व के रूप में जुटाए गए, जबकि ₹1,500 करोड़ गैर-कर राजस्व था। कुल राजस्व का 80 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार से मिले अनुदानों से और 15 प्रतिशत राज्य सरकारों से प्राप्त अनुदानों से आया। औसतन एक पंचायत ने ₹21,000 कर राजस्व और ₹73,000 गैर-कर राजस्व अर्जित किया, जबकि केंद्र से ₹17 लाख और राज्य से ₹3.25 लाख प्रति पंचायत अनुदान मिला। यही वजह है कि आईआईपीए ने सिफारिश की है कि संयुक्त स्थानीय सरकार निधि स्थापित की जाए।
“फंक्शनरीज” यानी काम करने वाले कर्मचारी अधिकारी, इंटरनेट कनेक्टिविटी जैसी स्थिति के मामले में भी पंचायतों की स्थिति बहुत ज्यादा ठीक नहीं है। आईआईपीए की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात, तमिलनाडु और केरल इस आयाम में सबसे ऊपर हैं। पंचायतों के पास पक्की इमारतें, कंप्यूटर, इंटरनेट जैसी सुविधाएं होनी चाहिए ताकि वे प्रभावी ढंग से काम कर सकें। कई राज्यों में यह सुविधाएं विकसित की गई हैं, लेकिन कई पिछड़े हुए हैं। दिल्ली से साठ किमी दूर घासेड़ा में पंचायत भवन नहीं है। इंटरनेट कनेक्टिविटी दूर की बात है। सफाई के लिए केवल सात कर्मचारी हैं। आईआईपीए की रिपोर्ट ही बताती है कि एक ग्राम सचिव औसतन 17 ग्राम पंचायतों का काम संभालता है। सुझाव दिया गया है कि वरिष्ठ कर्मचारियों की भर्ती राज्य लोक सेवा आयोग और अन्य कर्मचारियों के लिए एक अलग आयोग द्वारा की जानी चाहिए। पंचायत कर्मचारियों को राज्य कैडर से जोड़ा जाना चाहिए ताकि वे पदोन्नति पा सकें।
पंचातयों के विकेंद्रीकरण को सुदृढ़ बनाने के लिए शेष दो आयामों क्षमता निर्माण व पारदर्शिता को लेकर भी राज्यों की ओर से कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
अधिकांश राज्यों में पंचायत प्रतिनिधियों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रमों की व्यवस्था नहीं की गई है, जिससे वे नीतिगत निर्णयों, वित्तीय प्रबंधन और योजना निर्माण में दक्ष नहीं हो पाते। पारदर्शिता के अभाव में पंचायतों में भ्रष्टाचार और संसाधनों के दुरुपयोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। सूचना का अधिकार कानून होते हुए भी ग्राम स्तरीय जानकारी जनसाधारण को उपलब्ध नहीं कराई जाती।