झारखंड में आरटीई का खुला उल्लंघन : 8000 से अधिक सरकारी प्राथमिक स्कूल जहां सिर्फ एक शिक्षक

एकल स्कूलों पर जारी रिपोर्ट में कहा गया कि झारखंड में 2016 से अब तक किसी भी नए शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई है, बच्चों का मानसिक विकास भी संकट में
झारखंड के लातेहार जिले के मनिका प्रखंड में एक जनसुनवाई के दौरान स्कूल शिक्षा पर जारी एक नई रिपोर्ट - एकल शिक्षक स्कूलों का संकट
झारखंड के लातेहार जिले के मनिका प्रखंड में एक जनसुनवाई के दौरान स्कूल शिक्षा पर जारी एक नई रिपोर्ट - एकल शिक्षक स्कूलों का संकट
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झारखंड के प्राथमिक स्कूलों में बच्चों से लेकर शिक्षक तक सभी हर दर्जे की प्रताड़ना झेल रहे हैं।8000 से अधिक स्कूल यानी राज्य के एक तिहाई से अधिक सरकारी प्राथमिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे पर चल रहा है। इन स्कूलों में आने वाले ज्यादातर वंचित तबके के छात्र-छात्राएं न सिर्फ समुचित शिक्षा और मौलिक अधिकारों से वंचित हैं बल्कि जातिगत भेदभाव के भी शिकार हैं। कहीं स्कूलों में शिक्षक नशे में पाए गए तो कहीं पर दिव्यांग शिक्षक को कोई सहूलत नहीं दी गई है। वहीं, स्कूली छात्राओं को खराब संरचना वाले स्कूलों के कारण खुले में शौच के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

झारखंड के लातेहार जिले के मनिका प्रखंड में एक जनसुनवाई के दौरान स्कूल शिक्षा पर जारी एक नई रिपोर्ट “एकल शिक्षक स्कूलों का संकट” में यह बात उजागर हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वंचित तबकों के बच्चों की पढ़ाई के लिए एकमात्र साधन इन स्कूलों की बदहाली दरअसल शिक्षा के मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है।

स्कूलों के सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट को नरेगा सहायता केंद्र, मनिका के लिए पल्लवी कुमारी और सायंग गायकवाड़ ने तैयार किया है। यह सर्वेक्षण 2025 की शुरुआत में मनिका स्थित नरेगा सहायता केंद्र द्वारा किया गया था, जिसमें मनिका प्रखंड के 55 एकल-शिक्षक स्कूलों में से 40 स्कूलों को शामिल किया गया।

इन 40 एकल शिक्षक स्कूलों सर्वेक्षण में पाया गया कि मनिका के एकल स्कूलों में औसतन 59 छात्र हैं। कुछ स्कूलों में यह संख्या 100 से अधिक है। वहीं बिछलीडाग गांव के एक स्कूल में 144 छात्र मिले। रिपोर्ट के अनुसार, यह शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट , 2009) के मुताबिक तय प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक-छात्र अनुपात का खुला उल्लंघन है। इसके मुताबिक प्रत्येक 30 छात्रों पर कम-से-कम एक शिक्षक होना चाहिए। इसके साथ ही, हर प्राथमिक विद्यालय में कम से कम दो शिक्षक अनिवार्य हैं।

सर्वे रिपोर्ट में पाया गया कि अधिकतर स्कूलों में शिक्षक संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) पर नियुक्त हैं। इनमें से 78 फीसदी शिक्षक 40 वर्ष से अधिक आयु के हैं और केवल 15 फीसदी महिलाएं हैं। सर्वे में पाया गया कि शिक्षकों को अक्सर रिकॉर्ड तैयार करने और अन्य गैर-शैक्षणिक कार्यों, जैसे बच्चों के लिए एपीएएआर नंबर बनाने में लगा दिया जाता है। यानी शिक्षक शिक्षा देने जैसे बुनियादी काम से कोसो दूर रहते हैं।

सर्वेक्षण में पाया गया कि ज्यादातर स्कूल में शिक्षण कार्य जैसी गतिविधि संचालित नहीं हो रही थी। रिपोर्ट के मुताबिक, जिन विद्यालयों का सर्वे किया गया उस समय उन विद्यालयों में 87.5 फीसदी स्कूलों कोई भी सक्रिय शिक्षण कार्य नहीं हो रहा था। इन स्कूलों में न केवल शिक्षकों की संख्या कम है, बल्कि उनकी उपस्थिति और सक्रियता भी चिंताजनक है जबकि केवल एक-तिहाई नामांकित बच्चे उपस्थित पाए गए थे।

स्कूलों में शिक्षकों की अनुपस्थिति इतनी सामान्य हो चुकी है कि छात्रों का पढ़ाई से जुड़ाव टूटता जा रहा है। कुछ स्कूलों में शिक्षक शराब के नशे में पाए गए, जिससे बच्चों का मनोवैज्ञानिक विकास भी खतरे में है।

शिक्षकों पर प्रशासनिक काम का इतना दबाव है कि वे सप्ताह में औसतन 10 घंटे कागजी कार्यों में बिता रहे हैं। डिजिटल नवाचार के नाम पर लाया गया एपीएएआर आईडी कार्यक्रम उनकी चुनौतियों को और गहरा कर देता है। दस्तावेज़ों की त्रुटियां, आधार और यूडीआईएसई+ में मेल न होना, और बच्चों की आईडी अस्वीकृत हो जाना आम बात है। शिक्षक अब शिक्षा से अधिक समय कंप्यूटर स्क्रीन और कार्यालयों के चक्कर काटने में बिता रहे हैं।

बच्चों की दुर्दशा

सर्वेक्षण के मुताबिक, इन स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग 84 फीसदी छात्र अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदायों से आते हैं, जिन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जाति आधारित भेदभाव स्कूल शिक्षा प्रणाली में एक गहरे निहित और लगातार अनदेखे किए जाने वाले संकट के रूप में मौजूद है, जिसका सबसे अधिक प्रभाव वंचित और हाशिए पर मौजूद समुदायों के बच्चों पर पड़ता है।

इस सर्वेक्षण में पाया गया कि एकल शिक्षक स्कूलों में कार्यरत 40 शिक्षकों में से 12 सामान्य वर्ग, 10 अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), 4 अनुसूचित जाति (एससी) और 14 अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय से थे। जातीय प्रतिनिधित्व के इस विविध स्वरूप के बावजूद, स्कूलों के वातावरण में भेदभावपूर्ण व्यवहार स्पष्ट रूप से देखा गया । मनिका प्रखंड के जिन स्कूलों का सर्वेक्षण किया गया, उनमें 84 फीसदी छात्र अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी समुदायों से आते हैं। इन छात्रों ने अक्सर शिक्षकों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का सामना किया—जो न केवल मौखिक रूप से बल्कि व्यवहारिक रूप से भी प्रकट होता था।

रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ शिक्षक छात्रों के प्रति अपमानजनक और रूढ़िवादी टिप्पणियां करते सुने गए, जैसे कि: "ये बच्चे इसलिए नहीं पढ़ते क्योंकि ये एक खास जाति से हैं।" इस तरह के वक्तव्य न केवल व्यक्तिगत पूर्वाग्रह को उजागर करते हैं, बल्कि कक्षा के भीतर एक संरचनात्मक असमानता को भी वैधता प्रदान करते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि जातिगत भेदभाव का यह वातावरण छात्रों के आत्मसम्मान, प्रेरणा और संपूर्ण शैक्षणिक अनुभव को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। इसलिए इसे पहचानने और 'समान अवसर की शिक्षा नीति को दस्तावेजों से बाहर जमीन पर लागू करने की बात पर जोर दिया गया है।

मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता खराब पाई गई; जैसे कि निर्धारित योजना के अनुसार अंडे नहीं परोसे जाते हैं। वहीं, इन्हीं कारणों से बच्चों की उपस्थिति भी स्कूलों में कम पाई जा रही है। सर्वेक्षण के दिन सिर्फ एक-तिहाई नामांकित छात्र ही उपस्थित पाए गए।

स्कूलों में अधोसंरचना की स्थिति भी अत्यंत जर्जर है। 82.5 फीसदी स्कूलों में कामकाजी शौचालय नहीं हैं। स्वच्छ पानी और पर्याप्त कक्षाओं का भी अभाव है। यह स्थिति विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के लिए बड़ा अवरोधक है।

मध्याह्न भोजन योजना की गुणवत्ता रिपोर्ट के मुताबिक बेहद खराब है। कई स्कूलों में अंडे नहीं दिए जाते, गैस के बजाय लकड़ी से खाना बनता है, और रसोइयों को महीनों से वेतन नहीं मिला है। इससे बच्चों की पोषण स्थिति और उपस्थिति दोनों प्रभावित होती है।

मनिका की आबादी में 72 फीसदी हिस्सा अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों का है, और महिला साक्षरता दर केवल 47 फीसदी है। ऐसे में जब सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी विकट है, तो शिक्षा की समावेशिता और समानता का सपना दूर की कौड़ी बन जाता है।

यह रिपोर्ट बच्चों के अधिकार, नीतियों की घोषणाओं और जमीनी हकीकत के बीच भयावह अंतर को दिखा रही है। रिपोर्ट बताती है कि इन 40 स्कूलों में आरटीई मानदंडों के अनुसार 99 शिक्षकों की जरूरत है, जबकि सिर्फ 40 ही शिक्षक मौजूद हैं।

राज्य सरकार ने 2017 से प्राथमिक शिक्षकों की नियुक्ति नहीं की है, और भले ही हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए नियुक्तियों का आदेश दिया हो, वादा किए गए 26,000 पद भी जरूरत से कम हैं।

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