विश्व के ढाई करोड़ से अधिक शराणार्थियों के पास आसरा नहीं

शराणार्थियों की स्थिति दिन-ब-दिन भयावह होती जा रही है
विश्व के ढाई करोड़ से अधिक शराणार्थियों के पास आसरा नहीं
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विश्व में दिनप्रतिदिन शराणार्थियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। हाल-फिलहाल घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में आर्थिक संकट के कारण बड़ी संख्या में श्रीलंकाई शराणार्थी तमिलनाडु के सीमावर्ती जिलों में शरण ले रहे हैं। इसके अलावा यूक्रेन में युद्ध के कारण लाखों यूक्रेनवासी अपने पड़ोसी देशों में शरण लेने पर मजबूर हैं। अंतराष्ट्रीय पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर के शरणार्थियों को सम्मान चाहिए, चाहे वे कहीं भी हों।

रिपोर्ट के अनुसार विस्थापित बच्चे और वयस्क घर लौटने या फिर से बसने के लिए दशकों तक इंतजार करते हैं। इसके लिए दुनियाभर के देशों की सरकारों को गहन अनुसंधान और इसके संबंध में नीति बनानी चाहिए। हालांकि भारत आ रहे श्रीलंकाई शराणार्थियों का मामला कोई नया नहीं है। नब्बे के दशक में भी बड़ी संख्या में श्रीलंका से शराणार्थी भारत आए थे। अब एक बार फिर से उनका आना शुरू हो गया है। इस संबंध में हालांकि तमिलनाडु सरकार ने उनके रहने  और खानापीने के लिए जरूरी इंतजामात किए हैं।

साथ ही राज्य के मुख्यमंत्री श्रीलंकाई तमिलों के लिए 12 योजनाओं की घोषणा कर चुके हैं। इन योजनाओं में उनके लिए घर बनाना और उन्हें कौशल प्रशिक्षण देना शामिल है। जबकि दूसरी ओर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के क्रूर आक्रमण के बाद से 40 लाख से अधिक लोग यूक्रेन से भाग चुके हैं। यूक्रेन के आधे बच्चे विस्थापित हो चुके हैं।

किसी नए देश में जाना या घर लौटने की प्रतीक्षा करते हुए शरणार्थी बन गए किसी व्यक्ति का क्या होता है? रिपोर्ट में बताया गया है कि औसतन एक व्यक्ति सामान्य स्थिति में एक दशक से अधिक समय तक शरणार्थी बना रहता है और युद्ध से बचकर निकलने वालों का औसत 25 वर्ष है। हर साल दुनिया के 2.66 करोड़ शरणार्थियों में से बमुश्किल से एक प्रतिशत से भी कम का पुनर्वास हो पाता है।

2017 में प्रकाशित पुस्तक “रिफ्यूज” के लेखक अलेक्जेंडर बेट्स और पॉल कोलियर ने अनुमान लगाया कि दुनिया के धनी देशों में शरण लेने वाले 10 प्रतिशत पर लगभग 75 बिलियन डॉलर खर्च करते हैं दुनिया के देश और शेष देशों में शरण लेने पर महज 90 प्रतिशत यानी सिर्फ 5 बिलियन डॉलर खर्च करते हैं। इस भयावह स्थिति में शरणार्थी कैसे रहते हैं, मेजबान देशों और उनके नागरिकों द्वारा उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है और क्या उनके पास बुनियादी मानवाधिकारों तक पहुंच है? ऐसे कई यक्ष प्रश्न हैं।

वर्तमान में लाखों यूक्रेनियन के लिए यूरोपिय देशों से मिली मदद जांच के दायरे में हैं। जैसाकि वैश्विक शरणार्थी संकट की नैतिकता पर प्रकाशित पुस्तक नो रिफ्यूज (2020) में बताया गया है कि अधिकांश विस्थापित लोगों को तीन विकल्पों का सामना करना पड़ता है। पहला शिविर, दूसरा शहरी केंद्र  या स्थायी निवास और तीसरा नागरिकता की तलाश में खतरनाक यात्राएं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से कोई भी व्यक्ति को न्यूनतम स्तर की गरिमा प्रदान नहीं करता।

अधिकांश शरणार्थी शिविर अस्थायी होते हैं। नतीजतन, जब वे दीर्घकालिक समय तक शिविरों में बने रहते हैं तो उनके पास अक्सर पर्याप्त भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, सार्थक कार्य या सुरक्षा (विशेषकर लिंग आधारित हिंसा के खिलाफ) की बहुत अधिक कमी हो जाती है। उदाहरण के लिए कीनिया में दादाब साइट 1991 में सोमालिया में गृहयुद्ध से भाग रहे 90,000 लोगों को आश्रय देने के लिए बनाई गई थी, लेकिन आखिरी में यहां लगभग पांच लाख लोगों को रखना पड़ा। संयुक्त राष्ट के अनुसार 2015 में इनके लिए खाद्य व राशन न्यूनतम से 30 प्रतिशत कम दिया गया।

 रिपोर्ट के अनुसार इस प्रकार के 60 प्रतिशत से अधिक शरणार्थी कस्बों और शहरों में अनौपचारिक रूप से रहना पसंद करते हैं। यहां पर दस में से एक से भी कम के पास मदद होती है। ये सभी  स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल के मामले में पूरी तरह से दूर रहते हैं। कुछ शराणार्थी शरण के लिए यूरोप, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया पहुंचने की कोशिश करते हैं। लेकिन इन देशों में कड़े नियम होते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार 2014 से अब तक उत्तरी अफ्रीका और तुर्की से भूमध्यसागर पार करके इटली, स्पेन और ग्रीस जाने वाले 20,000 से अधिक प्रवासियों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा सीरिया और अफगानिस्तान में युद्ध से बचने के लिए यूरोप जाने वाले शराणार्थियों में विशेषकर महिलाओं और बच्चों को यूरोपीय देशों में प्रवेश के समय पानी की बौछारों, आंसू गैस और इसके अलावा सीमा पर तैनात गार्डों के द्वारा पीटे गए।

शरणार्थियों द्वारा शरण के लिए पूरे नियम कायदे का पालन करते हुए आवेदन करने के बाद भी उन्हें अक्सर अपमानजनक परिस्थितियों में रहना पड़ता है। रिपोर्ट के अनुसार उदाहरण के लिए ग्रीस में मोरिया शरणार्थी शिविर की तुलना एक खुली हवा में जेल से गई थी। शिविर में भीड़भाड़, स्वच्छता की भयावह स्थिति, बड़े पैमाने पर संक्रामक रोग और हिंसा होना एक आम बात थी। यही कारण है कि इस भयावह स्थिति से बचने के लिए यहां दस साल से कम उम्र के बच्चों ने आत्महत्या का प्रयास तक किया।

इन सबके मुकाबले वर्तमान में यूक्रेन के लोगों की पीड़ा भयावह है। लेकिन जिस प्रकार से इनके लिए दुनिया के कई देशों ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं, यह एक नायाब उदाहारण है। युद्ध के पहले सप्ताह के भीतर पोलैंड और अन्य पड़ोसियों ने मुफ्त ट्रेनें चलाईं और यूक्रेनी शराणार्थियों के लिए स्वागत केंद्रों का निर्माण किया, स्थानीय लोगों ने टेडी बियर के साथ उनके आगमन का स्वागत किया, शरणार्थियों को घर और खाना खिलाने के इच्छुक नागरिकों से जोड़ने के लिए सिस्टम स्थापित किए गए और नियोक्ताओं ने ऑनलाइन जॉब बोर्ड पूरे यूरोप में लगा दिए ताकि यूक्रेन के शराणार्थियों को काम मिल सके।

यहीं नहीं रूस के आक्रमण के दो सप्ताह से भी कम समय में यूरोपीय संघ ने अस्थायी सुरक्षा निर्देश को सक्रिय किया। यह प्रोटोकॉल शरण के लिए आवेदन करने की लंबी प्रक्रिया के बिना यूक्रेनी शरणार्थियों को महत्वपूर्ण सामाजिक वस्तुओं तक पहुंच प्रदान करता है। इसके अलावा इस प्रोटोकॉल से उन्हें यूरोपीय संघ में स्वतंत्र रूप से रहने, काम करने, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल के अधिकार प्राप्त होते हैं।

यह स्थिति एक वर्ष के लिए दी जाती है और बाद में तीन वर्ष तक के लिए नवीकरण कराया जा सकता है। ये अधिकार ठीक वही हैं जो वास्तव में वर्तमान में पीड़ित यूक्रेनियन को चाहिए और जिसके वे हकदार हैं लेकिन दूसरी ओर यह स्थिति दुनिया के करोड़ों शरणार्थियों के पास नहीं हैं।

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