अगले महीने खत्म हो रहे वित्तीय वर्ष 2019-20 में अब तक बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के सिर्फ आठ मजदूरों को मनरेगा के तहत सौ दिनों का रोजगार मिल पाया है। महात्मा गांधी के नाम पर चल रहे इस रोजगार गारंटी स्कीम की यह दुर्दशा उस जिले में है, जहां से गांधी ने 1917 में देश के पहले सत्याग्रह की शुरुआत की थी। यह वही इलाका है, जहां के राजा ने आज से चार सौ साल पहले भीषण अकाल को नियंत्रित करने के लिए मनरेगा जैसी ही योजना शुरू की थी और कई पोखरे और मंदिरों का निर्माण करा कर लोगों को रोजगार मुहैया कराया था। मगर आज उस जिले में बार-बार यह चर्चा होती है कि मनरेगा बंद हो गया है। यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी चंपारण जिले की नहीं है, पूरे बिहार में पिछले कुछ सालों से मनरेगा दम तोड़ता नजर आ रहा है। 2010-11 इस योजना की वजह से बिहार में रिवर्स माइग्रेशन का दावा किया जाता था, आज फिर से राज्य भीषण पलायन की चपेट में है।
पिछले साल जनवरी महीने में पश्चिमी चंपारण के नौतन प्रखंड में युवाओं ने बेरोजगारी और मनरेगा के तहत काम नहीं मिलने के सवाल पर आंदोलन किया था। इस साल 7 जनवरी को वामदलों के बंद के दौरान पूरे बिहार में मनरेगा के तहत रोजगार नहीं मिलने का सवाल उठा।
मौजूदा वित्तीय वर्ष में 6 फरवरी तक बिहार राज्य में सिर्फ 11097 लोगों को सौ दिनों का रोजगार दिया जा सका है। यह आंकड़ा मनरेगा की सरकारी वेबसाइट पर दर्ज है। इसी साइट पर दर्ज आंकड़े बताते हैं कि वित्तीय वर्ष 2015-16 में इसी बिहार में 57,482 लोगों को सौ दिनों का रोजगार दिया गया था। एक अन्य रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2010-11 में यह आंकड़ा तीन लाख लोगों तक का था। यह ट्रेंड साफ-साफ बताता है कि बिहार में लोगों को न्यूनतम सौ दिनों का रोजगार उपलब्ध कराने की दर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। वर्ष 2010-11 में बिहार में 10.33 करोड़ मानव दिवस का रोजगार सृजित हुआ था, जबकि मौजूदा वित्तीय वर्ष में जनसंख्या वृद्धि के बावजूद यह 10.77 करोड़ मानव दिवस पर ही पहुंचा है। 2015-16 मे बिहार में औसतन मजदूरों को 45.16 दिनों का रोजगार मिलता था, जो इस वित्तीय वर्ष में 40.3 दिन रह गया है। पिछले पांच-छह सालों से मनरेगा की मजदूरी दर 176 रुपये के आसपास ठहरी हुई है, जबकि बाजार में अकुशल मजदूरी की दर 350 रुपये तक पहुंच गयी है।
ये आंकड़े साफ-साफ बताते हैं कि 2010-11 में बिहार में मनरेगा की जो स्थिति थी, उससे राज्य अभी पीछे चला गया है। 2010-11 में मनरेगा के तहत जो अच्छे काम बिहार में हुए थे, उसकी वजह से राज्य के श्रम विभाग ने तब आंकड़े जारी करके कहे थे कि बिहार में रिवर्स माइग्रेशन हो रहा है। कहा गया था कि 2008 से 2012 के बीच राज्य में पलायन की दर में 38 से 40 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गयी है। इसका असर पंजाब की खेती पर भी पड़ा था। तब मीडिया में खबरें आयी थी कि पंजाब के किसान बिहार के सुदूर गांवों में मजदूरों की तलाश में पहुंच रहे हैं, वे उन्हें मोबाइल और कलर टीवी गिफ्ट करने का ऑफर दे रहे हैं।
मगर महज चार-पांच सालों में स्थिति बिल्कुल उलट गयी। 2017-18 में पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ गयी। 2018 के जून महीने के एक सप्ताह में राज्य के छोटे से रेलवे स्टेशन सहरसा से दो करोड़ रुपये के रेल टिकट कटे. उस वक्त वहां टिकट लेकर मजदूर पांच-पांच दिन तक बैठे रहते थे, उन्हें ट्रेन में जगह नहीं मिलती. इसके कारण रोज स्टेशन पर हंगामा होता था।
जानकार बताते हैं कि इसके लिए राज्य में मनरेगा के बजट आवंटन में हो रही कटौती जिम्मेवार है। अकसर राज्य के मंत्रियों द्वारा शिकायत की जाती है कि एक तो राज्य के आवंटन में कटौती की जाती है, दूसरा जो आवंटन तय होता है, उसका भी पूरा भुगतान नहीं होता। इस साल केंद्रीय बजट में मनरेगा के आवंटन में जो कटौती की गयी है, जाहिर है उसका असर बिहार में इस साल के मनरेगा पर भी पड़ेगा।
बिहार में आर्थिक मसलों के जानकार और एएन सिंहा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, राज्य में एक दौर वह भी था जब यहां मनरेगा के तहत रोजगार पाने वाले लोगों की कुल संख्या के सात फीसदी मजदूरों को सौ दिनों का रोजगार सुनिश्चित किया जाता था, पिछले साल यह घट कर 0.6 फीसदी पहुंच गया। अब तो यह और भी घट गया होगा। वह कहते हैं कि बिहार बाढ़ औऱ सुखाड़ की वजह से ऐसा राज्य है, जिसको मनरेगा की सबसे अधिक जरूरत है। यहां कृषि विकास दर भी निगेटिव हो गयी है, उद्योग पहले से नहीं हैं। ऐसे में मनरेगा अगर नहीं कारगर हो रही तो इसका नतीजा भारी पलायन के रूप में दिखेगा। पहले से ही नोटबंदी और जीएसटी की वजह से बिहार के मजदूर बेरोजगारी का भारी दंश झेल रहे हैं। इस वक्त तो केंद्र सरकार को भी मनरेगा का बजट काफी बढ़ा देना चाहिए था. मगर इस बजट में राशि घटाये जाने की सूचना है।