महामारी में मनरेगा ने दिया साथ, लेकिन उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं योजना

रिपोर्ट से पता चला है कि इस दौरान मनरेगा के तहत काम करने वाले औसतन केवल 36 फीसदी परिवारों को 15 दिनों के भीतर उनका मेहनताना मिल पाया था
महामारी में मनरेगा ने दिया साथ, लेकिन उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं योजना
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इसमें कोई शक नहीं कि महामारी में मनरेगा ने बहुत से लोगों को सहारा दिया था। लेकिन इसके बावजूद यह योजना उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतरी है। पता चला है कि 2020-21 के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 के तहत पंजीकृत काम करने के इच्छुक सभी जॉबकार्ड धारकों में से लगभग 39 फीसदी परिवारों को एक भी दिन का काम नहीं मिला था।

इतना ही नहीं, रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि इस दौरान औसतन केवल 36 फीसदी परिवारों को 15 दिनों के भीतर उनका मेहनताना मिल पाया था, जोकि इस योजना के क्रियान्वयन में मौजूद खामियों को उजागर करता है।

यह जानकारी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा कोविड-19 और मनरेगा पर जारी नई रिपोर्ट “एम्प्लॉयमेंट गारंटी ड्यूरिंग कोविड-19: रोल ऑफ मनरेगा इन द ईयर आफ्टर द 2020 लॉकडाउन” में सामने आई है। यह रिपोर्ट अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, और मध्य प्रदेश के आठ ब्लॉकों में 2000 परिवारों पर किए सर्वेक्षण पर आधारित है।

यह सर्वेक्षण नवंबर से दिसंबर 2021 के बीच चार राज्यों के आठ ब्लॉकों में किया गया था जिनमें बिहार में फूलपरास (मधुबनी), छतपुर (सुपौल), कर्नाटक में बीदर (बीदर), देवदुर्ग (रायचूर), मध्य प्रदेश में खालवा (खंडवा), घाटीगांव (ग्वालियर), महाराष्ट्र में वर्धा और सुरगना (नासिक) शामिल थे।

हालांकि रिपोर्ट में यह भी माना है कि यदि इन खामियों को नजरअंदाज कर दें तो मनरेगा ने महामारी के दौरान सबसे कमजोर परिवारों की आय को होने वाले नुकसान से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पता चला है कि मनरेगा से बढ़ी हुई आय ब्लॉक आधार पर 20 से 80 फीसदी के बीच आय को हुए नुकसान को भरने में सक्षम थी। वहीं पांच में से 3 परिवारों का कहना है कि मनरेगा ने उनके गांव के समग्र विकास में सकारात्मक योगदान दिया है।

इस बारे में अजीज प्रेमजी विश्वविद्यालय और इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता राजेंद्रन नारायणन का कहना है कि हमारे अध्ययन से पता चलता है कि श्रमिक मनरेगा की आवश्यकता और उपयोगिता को कितना महत्व देते हैं। 80 फीसदी से ज्यादा परिवारों ने सिफारिश की है कि मनरेगा के तहत प्रति वर्ष हर व्यक्ति को 100 दिनों का रोजगार दिया जाना चाहिए।

इस रिपोर्ट में मनरेगा के लिए फण्ड की कमी को भी उजागर किया गया है। एक रूढ़िवादी अनुमान से पता चला है कि लॉकडाउन के बाद सर्वेक्षण किए गए ब्लॉकों में काम की वास्तविक मांग को पूरा करने के लिए तीन गुना राशि आबंटित की जानी चाहिए थी।

भुगतान में देरी है योजना के लिए एक बड़ी समस्या

केंद्र सरकार ने 2020-21 में मनरेगा के लिए 110,351.85 करोड़ रुपए की धनराशि जारी की थी। वहीं 2019-20 में इस योजना के तहत 71,046.28 करोड़ रुपए जारी किए गए थे। गौरतलब है कि नवंबर 2021 में 80 सामाजिक-कार्यकर्ताओं के एक समूह ने महामारी के बाद मनरेगा में मांग में वृद्धि के बावजूद योजना में धन की भारी कमी को लेकर आवाज उठाई थी।

उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुला पत्र लिखकर उनसे योजना के लिए वांछित फंड को जारी कराने की मांग की थी। पत्र में उन्होंने लिखा था कि, “धन की कमी के चलते काम की मांग को दबाया जाता है और इससे मजदूरों को उनकी मजदूरी के भुगतान में देरी होती है। ये इस अधिनियम का उल्लंघन हैं और इससे आर्थिक सुधारों में भी बाधा पड़ती है।“

वहीं इस बारे में ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने लोकसभा में जानकारी दी थी कि वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान कुल 389 करोड़ दिनों के बराबर रोजगार दिया गया था। जो 2019-20 की तुलना में 47 फीसदी ज्यादा है। वहीं 2020-21 के दौरान कुल 1.89 करोड़ नए जॉबकार्ड जारी किए गए थे। सिंह के अनुसार 2020-21 में कुल 7.55 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया गया था, जोकि पिछले वर्ष की तुलना में 38 फीसदी अधिक है।

वहीं हाल ही में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा जारी रिपोर्ट स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट 2021 में भी इस बात की पुष्टि की गई है कि पिछले साल लॉकडाउन और महामारी के दौरान मनरेगा ने ग्रामीण इलाकों को संकट से बचाया था।

यह योजना 2020 में एक करोड़ से ज्यादा प्रवासी और स्थानीय श्रमिकों के लिए जीविका का प्रमुख साधन बनकर सामने आई थी। हालांकि समय से भुगतान न मिलने की वजह से श्रमिकों का काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था। रिपोर्ट के अनुसार भारत में मनरेगा के तहत भुगतान में देरी का मामला बीते पांच वर्षों में बढ़ता गया है। देश में मनरेगा के तहत भुगतान में 16 से 30 दिनों की देरी का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है।

हाल में नीति आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल-3’ के अनुसार 2020 में जब देशभर में कोरोनावायरस का कहर जारी था, तो मजदूरों ने मनरेगा के तहत जितना काम मांगा था, उसके मुकाबले उन्हें 78.6 फीसदी काम ही मुहैया कराया जा सका था।

देखा जाए तो कम मजदूरी और भुगतान में देरी के बावजूद, मनरेगा ने महामारी के दौरान स्पष्ट रूप से स्थिति को बेहतर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसने सबसे कमजोर परिवारों के लिए आय सुरक्षित की थी। लेकिन साथ ही यह पूरी तरह से परिवारों की रक्षा करने में सक्षम नहीं थी क्योंकि या तो यह उनकी मांग को पूरा कर पाने में असमर्थ थी। ऐसे में यह जरूरी है कि इन मुद्दों पर सरकार गंभीरता से विचार करे, जिससे इस योजना का ज्यादा से ज्यादा लोग पूरा लाभ उठा सकें।

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