Credit: Srikant Chaudhary
Credit: Srikant Chaudhary

मनरेगा रिपोर्ट कार्ड : 2018-19 में जल संरक्षण व सिंचाई से संबंधित 18 लाख काम पूरे नहीं हो पाए

साल 2018-़19 के दौरान हुए मनरेगा के कार्यों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि मनरेगा के काम पूरे हो जाते तो सूखे से निपटा जा सकता था
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अभी देश का 50 फीसदी हिस्सा सूखा प्रभावित है और कई जिले दूसरे साल भी लगातार सूखे की चपेट में है। इसे देखते हुए, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) सूखे के असर को कम करने के साथ-साथ लोगों की आमदनी बढ़ाने का महत्वपूर्ण जरिया होना चाहिए था।   

लेकिन 2018-19 के दौरान मनरेगा के प्रदर्शन का विश्लेषण करने से पता चलता है कि मनरेगा सूखाग्रस्त जिलों की किसी भी तरह की मदद करने में विफल रहा। जल संरक्षण और सिंचाई से संबंधित कई महत्वपूर्ण कार्य या तो पूरे नहीं किए गए हैं या उन्हें स्थगित कर दिया गया, जिससे किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ। बड़ी संख्या में परिवारों को जारी किए गए जॉब कार्ड हटा दिए गए और उन्हें रोजगार से वंचित रखा गया।

2018-19 में, पानी से संबंधित लगभग 18 लाख कार्यों को छोड़ दिया गया या पूरा नहीं किया गया। सरकारों ने इन पर लगभग 16,615 करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। जो 2018-19 में मनरेगा पर कुल खर्च का एक-चौथाई के करीब है।

साल 2018-19 में सरकारों ने देश भर में लगभग 16.1 लाख घरों के जॉब कार्ड रद्द किए। जॉब कार्ड एक ऐसा डॉक्यूमेंट होता है, जिससे पता चलता है कि मनरेगा के तहत कितने रोजगार की मांग थी और कितना रोजगार मिला। 2018-19 में 65 लाख से ज्यादा व्यक्तियों का जॉब कार्ड रद्द हुए। जॉब कार्ड रद्द होने के कुछ सही कारण भी हो सकते हैं, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में जॉब कार्ड रद्द होना कोई सामान्य घटना नहीं है।

साल 2018-19 के दौरान लगभग 5.87 करोड़ घरों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की, लेकिन 5.26 करोड़ घरों को ही रोजगार मिल पाया। इसका मतलब है कि 60 लाख घरों को रोजगार नहीं मिल पाया, वह भी तब, जब उन्हें इसकी जरूरत थी।

मनरेगा के तहत एक घर में एक सदस्य को साल भर में 100 दिन के लिए रोजगार मिलता है। एक घर के सदस्य आपस में रोजगार की अदला-बदली कर सकते हैं, लेकिन 100 दिन की गारंटी से अधिक नहीं की जा सकती।

एक व्यक्ति के तौर पर देखा जाए तो 9.1 करोड व्यक्तियों को रोजगार की जरूरत थी, लेकिन 7.7 करोड़ व्यक्तियों को ही रोजगार मिल पाया।

रोजगार की मांग को पूरा करने से ज्यादा चिंता करने वाली बात यह है कि कृषि और पानी से संबंधित कार्यों को रद्द कर दिया गया, जो किसानों को सूखे के समय में जल संरक्षण में मदद कर सकते थे।

2005 में अपनी स्थापना के बाद से, मनरेगा के विभिन्न कार्य संतोषजनक तरीके से पूरे नहीं किए गए। जिससे कार्यक्रम के असफल रहने के संकेत मिलते हैं। इसमें ज्यादातर काम गांवों की उत्पादकता बढ़ाने में सहायक साबित हो सकते थे, लेकिन यह नुकसानदायक साबित हुए। इसमें से लगभग 70 फीसदी काम जल संरक्षण से जुड़े हैं।

साल 2018-19 में मनरेगा के तहत 82.6 लाख काम शुरू हुए, लेकिन केवल 26.07 फीसदी काम ही पूरे हो सके। जो पिछले पांच साल में सबसे कम है। साल 2016-17 में लगभग 96 फीसदी काम पूरे हुए थे, जबकि 2017-18 में 65 फीसदी काम पूरे हुए।

जिन राज्यों में अभी सूखा है, वहां काम पूरा होने की दर सबसे बुरी है। उदाहारण के लिए, बिहार में केवल 6 फीसदी काम पूरा हुआ। दो साल पहले, 2017-18 में केवल 20 फीसदी और 2016-17 में 78 फीसदी काम पूरा हुआ था। इसी तरह महाराष्ट्र में 2018-19 में 21 फीसदी और आंध्रप्रदेश में 36 फीसदी काम पूरा हुआ।

जहां तक सूखे से संबंधित कामों की बात है तो मनरेगा के तहत लगभग 63994 लाख रुपए की लागत से 32478 काम पूरे हुए, लेकिन 796793 काम या तो पूरे नहीं हुए हैं या स्थगित कर दिए गए। यह आंकड़ा लगभग 24 गुणा अधिक है। सरकार ने इन अधूरे या स्थगित किए गए कामों पर 67549 लाख रुपए खर्च किए।

किसानों को सीधे पानी की जरूरत को पूरा करने वाले सूक्ष्म सिंचाई (माइक्रो इरिगेशन) श्रेणी के लगभग 128250 काम पूरे हुए, जिन पर 67519 लाख रुपए खर्च किए गए। लेकिन 234054 काम या अधूरे हैं या स्थगित कर दिए गए। इन अधूरे कामों पर सरकार ने 245116 लाख रुपए खर्च किए। यह राशि पूरे हो चुके कामों के मुकाबले लगभग चार गुणा अधिक है, यानी कि इतनी बड़ी राशि ऐसे कामों पर खर्च कर दी गई, जो पूरे ही नहीं हुए।

पारंपरिक जलाशय के पुनरुद्धार श्रेणी के तहत 78904 कार्य पूरे हुए, लेकिन 124982 काम अधूरे हैं या स्थगित कर दिए गए। पूरे हो चुके कामों पर 72525 लाख रुपए खर्च किए गए, जबकि अधूरे कार्यों पर 226375 लाख रुपए खर्च कर दिए गए।

जल संरक्षण और भंडारण श्रेणी के तहत 289493 काम पूरे किए गए, जबकि 631911 काम पूरे नहीं किए गए।

इन आंकड़ों पर नजर डालने के बाद एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि सूखाग्रस्त राज्यों में बड़ी संख्या में काम शुरू किए गए, लेकिन इन्हीं राज्यों में अधिकतर काम अधूरे हैं।

इसके साथ ही, भारत के गाँवों ने खुद को सूखे से बचाने  के लिए एक और अवसर खो दिया है।

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