मजबूरी बना मनरेगा, नगर पालिका में शामिल नहीं होना चाहते राजस्थान के दो गांव के लोग

सरकार ने राजस्थान के गोलूवाला निवादान और गोलूवाला सिहागान को मिलाकर नगर पालिका घोषित कर दिया था, लेकिन ग्रामीणों ने हाईकोर्ट से स्थगनादेश ले लिया
राजस्थान के गोलूवाला गांव के लिए मनरेगा योजना रोजगार का एक बड़ा साधन बन गई है। फोटो: अमरपाल वर्मा
राजस्थान के गोलूवाला गांव के लिए मनरेगा योजना रोजगार का एक बड़ा साधन बन गई है। फोटो: अमरपाल वर्मा
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एक ओर जहां देश में गांवों से शहरों की तरफ पलायन बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर राजस्थान में दो गांव ऐसे भी हैं, जहां के लोग अपने ग्रामीण परिवेश में ही बसे रहना चाहते हैं। उन्हें अपने गांवों का दर्जा बदला जाना पसंद नहीं है।

वे चाहते हैं कि उनके गांव को गांव ही रहने दिया जाए। हनुमानगढ़ जिले के गोलूवाला सिहागान और गोलूवाला निवादान गांवों के ग्रामीण चाहते हैं कि उन्हें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और ग्रामीण विकास तथा सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न योजनाओं का लाभ मिलता रहे। इसके लिए उन्होंने  दोनों गांवों को मिला कर नगर पालिका बनाने को भी अस्वीकार कर दिया है।

गोलूवाला निवादान और गोलूवाला सिहागान पीलीबंगा पंचायत समिति क्षेत्र में पड़ते हैं। पास-पास बसे इन दोनों गांवों की अलग ग्राम पंचायत है। ग्रामीणों का कहना है कि करीब बीस साल पहले तक तो दोनों गांव अलग-अलग दिखाई पड़ते थे, लेकिन आबादी बढऩे के बाद ये गांव एक-मेक हो गए हैं।

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राजस्थान के गोलूवाला गांव के लिए मनरेगा योजना रोजगार का एक बड़ा साधन बन गई है। फोटो: अमरपाल वर्मा

 राजस्थान सरकार ने सवा साल पहले दोनों गांवों की पंचायतों का अस्तित्व समाप्त कर नगर पालिका का गठन कर दिया। कहा गया कि अब गांव का शहरी तर्ज पर विकास होगा। शुरू में तो किसी को अजीब नहीं लगा लेकिन चंद दिनों के बाद नगर पालिका शुरू होने पर जैसे ही मनरेगा के तहत काम देना बंद कर दिया गया तो ग्रामीण उद्वेलित हो उठे। उन्होंने नगर पालिका बनाने का विरोध शुरू कर दिया। गांव से लेकर जिला मुख्यालय तक धरने-प्रदर्शन किए जाने लगे।

 गोलूवाला सिहागान के निवासी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तहसील कमेटी के सदस्य जगदीश सारस्वत कहते हैं, ‘‘मनरेगा ग्रामीणों के लिए बड़ा सहारा है। इससे युवा से लेकर बड़े-बुजुर्ग तक को आजीविका मेंं मदद मिलती है। इसके बंद होने पर मजदूरों में नाराजगी स्वाभाविक थी। कई दिनों तक जब सरकार ने सुनवाई नहीं की तो ग्रामीणों ने राजस्थान हाई कोर्ट मेंं याचिका दायर की। कोर्ट ने 25 जुलाई 2023 को स्थगन आदेश जारी कर दिया, जिस पर नगर पालिका ने काम करना बंद कर दिया और दोनों ग्राम पंचायतों ने पूर्ववत काम करना शुरू कर दिया।’’

यह मामला अभी भी हाई कोर्ट में लंबित है। समय-समय पर कोर्ट में तारीख पड़ रही है। ग्रामीण कानूनी लड़ाई में डटे हुए हैं। नगर पालिका बनाने पर कोर्ट का स्थगन आदेश बरकरार है। लिहाजा, गांव में पंचायतों के कामकाज में कोई बाधा नहीं है लेकिन फिर भी जरा सा अंदेशा होते ही लोग असहज हो जाते हैं।

ग्रामीण बलविन्द्र खरोलिया कहते हैं, ‘‘तीन-चार महीने पहले राज्य सरकार ने ‘गोलूवाला नगर पालिका’ में अधिशासी अधिकारी की नियुक्ति के आदेश जारी कर दिए। इससे मनरेगा श्रमिकों में आक्रोश हो गया। हालांकि बाद में यह पता चलने पर कि यह आदेश स्थानीय निकाय विभाग के अधिकारियों की गफलत के चलते जारी हो गया था, श्रमिकों ने राहत की सांस ली।’’

जगदीश सारस्वत कहते हैं, ‘‘दोनों पंचायतों में करीब तीन हजार जॉब कार्ड हैं, जिनमें करीब छह हजार लोगों के नाम दर्ज हैं। इनमें से आधे लोग एक्टिव श्रमिक हैं, जो मनरेगा में मजदूरी करने जाते हैं। मनरेगा से मिलने वाले भुगतान से ही इन श्रमिकों की दाल-रोटी चलती है। साल में सौ दिन काम कर लेने वाले श्रमिकों को श्रमिक कल्याण बोर्ड की विभिन्न योजनाओं का लाभ अलग से मिलता है।

ग्रामीणों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना भी बड़ा सहारा है, जिसके बूते पर उनके पक्के मकान बन पा रहे हैं। सामाजिक सुरक्षा व कल्याण की अन्य योजनाओं का भी उन्हें लाभ मिलता है। नगर पालिका बनते ही यह सब बंद हो जाएगा। गोलूवाला सिहागान में 13 और सिहागान में 19 वार्ड हैं, जिनमें से केवल दो वार्ड ही साधन-संपन्न लोगों के हैं।’’

वैसे तो सभी जातियों के लोग मनरेगा में काम करते हैं लेकिन ज्यादा तादाद अनुसूचित जाति एवं पिछड़ी जातियों के लोगों की हैं।  साठ वर्षीय मनरेगा श्रमिक चावली नायक कहती हैं, "पंचायत के कारण मनरेगा के तहत हमें काम मिलता है। मैं, मेरे पति और बेटा मनरेगा कार्य पर जाते हैं। नगर पालिका बन गई तो हम क्या करेंगे क्योंकि हमारे पास तो खेती-बाड़ी की जमीन भी नहीं है।"

45 वर्षीय मनरेगा श्रमिक जमना नायक कहती हैं, "मैं मनरेगा में जाती हूं। मेरे पति अन्यत्र मजदूरी करते हैं। हम दोनों मिलकर हमारे दोनों बच्चों को पढ़ा रहे हैं। मनरेगा जारी रहनी चाहिए, हमने नगर पालिका से क्या लेना है?"

65 वर्षीय सरस्वती मेघवाल विधवा हैं। उनके दो शादीशुदा बेटे मजदूरी कर अपना पेट पालते हैं। बेटी की भी शादी हो चुकी है। सरस्वती कहती हैं,‘‘ मैं मनरेगा में काम करती हूं। इससे मेरे हाथ में पैसा आता है। मुझे जरूरत के समय किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ते। पिछले साल जब मनरेगा बंद कर दी गई तो मेरे सामने मुश्किल खड़ी हो गई थी। गांव मेंं नगर पालिका की जरूरत नहीं, मनरेगा की है। मनरेगा जारी रहनी चाहिए।’’

मनरेगा मेट रामपाल नायक कहते हैं कि हम गांव मेंं नगर पालिका बनाने के पक्ष मेंं नहीं हैं। इससे मनरेगा बंद होने से सबसे बड़ा नुकसान गरीबों को होना है। पीएम आवास योजना बंद हो जाएगी। शहर घोषित होने से कई तरह के टैक्स वसूले जाएंगे। मनरेगा श्रमिक सुभाष मेघवाल कहते हैं कि मैं, मेरे पिता व मां मनरेगा में काम करते हैं। हमारे घर राशन मनरेगा की बदौलत ही आता है। हमें दुकानदार उधार भी दे देते हैं क्योंकि उन्हें पता है मनरेगा से पैसा मिलते ही हम चुका देंगे।

यहां के दुकानदार एवं व्यापारी नगर पालिका के पक्ष मेंं हैं। व्यापार मंडल के अध्यक्ष राकेश ढाका कहते हैं कि यहां सडक़ें टूटी हुई हैं। पानी की निकासी के प्रबंध नहीं हैं। यदि नगर पालिका बन जाती है तो ज्यादा बजट मिलेगा। इससे जहां विकास का मार्ग प्रशस्त होगा, वहीं समस्याओं का समाधान भी हो पाएगा।

गोलूवाला निवादान पंचायत के ग्राम विकास अधिकारी सुशील कुमार सिद्ध कहते हैं कि हाई कोर्ट के स्थगन आदेश के बाद ग्राम पंचायत ने फिर से काम करना शुरू कर दिया था। मनरेगा के तहत श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है। अन्य योजनाओं का लाभ भी पात्र ग्रामीणों को मिल रहा है।

गोलूवाला सिहागान की सरपंच बिंदू सारस्वत कहती हैं कि ग्राम पंचायत के पास सीमित साधन होते हैं। अगर विकास के लिहाज से देखें तो नगर पालिका ही बेहतर है मगर मनरेगा श्रमिकों की समस्या अपनी जगह सही है। नगर पालिका बनने पर मनरेगा बंद हो जाएगी। यूं तो इंदिरा गांधी शहरी रोजगार योजना है लेकिन उसमें मनरेगा जितना काम नहीं मिल पाएगा। पीएम ग्रामीण आवास योजना के फायदे से भी वंचित होना पड़ेगा।

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