स्वाधीनता के बाद जब नये भारत के सपने देखे जा रहे थे - तब महात्मा गांधी ने कहा था कि राजनैतिक स्वाधीनता के बाद आर्थिक स्वाधीनता हासिल करने का मार्ग होगा, देश के भूमिहीनों को किसान बनाना।
दरअसल महात्मा गांधी जानते थे कि स्वाधीनता के संघर्ष में ग्रामीण भारत से मिले अपार जनसमर्थन और उम्मीदों के सम्मान के लिए और वास्तविक अर्थों में लाखों करोड़ों वंचितों को (भी) 'नागरिक' बनने का गौरव मिलने का मार्ग भूमि और कृषि सुधारों से ही संभव है।
वर्ष 1947 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार तब लगभग 80 फीसदी ग्रामीण जनसंख्या गरीबी और शोषण के गर्त में थी। लेकिन, आजादी हासिल होने पर अपनी जमीर और अपनी जमीन का शायद उनका भी एक सपना रहा होगा।
किसी अधूरे रह गए सपने के 75 बरस बीत जाने का अर्थ - सपने और व्यक्ति दोनों की मौत होता है।
भारत में विपन्नता के संक्षिप्त इतिहास को भारत सरकार के ही रिपोर्ट के बरअक्स देखा-समझा जा सकता है। आजादी के अमृत महोत्सव मनाते गौरवशाली देश में लगभग 56 फीसदी ग्रामीण भूमिहीनों (जनगणना रिपोर्ट 2011) के सपने और उसके यथार्थ दोनों ही उपेक्षा के किसी अंधकार में दफन हैं।
वास्तव में कृषि में कार्यशील श्रमिकों का लगभग 93.7 फीसदी भूमिहीन खेत मजदूरों, लघु और सीमान्त किसानों का है - जिनके अथक श्रम से ही 126 करोड़ जनसंख्या का पेट भरता है। लेकिन क्या समाज और सरकार को बनाए रखने वाले ये वंचित श्रमिक 'आजादी का अमृत महोत्सव' मनाने वाले गौरवान्वित नागरिकों के कतार में हैं?
आजादी के बाद समाज और सरकार ने आखिर उन करोड़ों भूमिहीनों को क्या दिया? क्या विपन्नता के अंधेरे में धकेल दिए गए उनके भी कोई अधिकार, विकास की राजनीति में कोई अर्थ रखते हैं? और सबसे महत्वपूर्ण कि इस देश को अपना कहा जा सकने वाला आखिर कौन सी पात्रता सरकार और समाज नें उन्हें दी है?
वर्ष 2017 में जारी अशोक दलवई समिति रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1951 में भूमिहीन कृषि मजदूरों की संख्या लगभग 2.7 करोड़ थी (अर्थात कुल ग्रामीण जनसंख्या 30 करोड़ का 9 प्रतिशत) जो वर्ष 1981 तक लगभग 5.6 करोड़ (अर्थात कुल जनसंख्या का 14 प्रतिशत) हो गया।
वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार लगभग 14 करोड़ (अर्थात कुल ग्रामीण जनसंख्या का 56 प्रतिशत) भूमिहीन कृषि श्रमिक है। जनगणना के मौजूदा आंकड़ों के अनुमान के आधार पर वर्ष 2022 में ग्रामीण भारत की जनसंख्या लगभग 50 करोड़ है, जिनमें बहुसंख्यक तीसरी पीढ़ी के भूमिहीन मजदूर, अपनी जमीन और अपनी जमीर के अधूरे सपने लिये विगत 75 बरसों से दो गज जमीन की प्रतीक्षा में हैं।
आप इसे भारत में भूमि और कृषि सुधारों की असफलता भी कह सकते हैं। आप इस निष्कर्ष तक भी पहुंच सकते हैं कि भूमि और कृषि सुधार स्वाधीनता के बाद से ही, राजनैतिक प्राथमिकताओं में कभी रही ही नहीं।
आप इस छद्म विश्लेषण को भी स्वीकार सकते हैं कि बढ़ती जनसंख्या की वजह से भूमि की कमी होनी ही थी। लेकिन आप इस यथार्थ को झुठला नहीं सकते कि स्वाधीनता से अब तक करोड़ों भूमिहीनों को विपन्न बनाए रखने के जिम्मेदार, सरकार और समाज दोनों ही हैं।
एक अनुमान के मुताबिक, देश के उत्पादन तंत्र का लगभग 40 फीसदी, समाज के 90 फीसदी विपन्नों के हाथों में है, लेकिन देश के आर्थिक नियोजनों में तथाकथित विपन्नों का योगदान लगभग अदृश्य ही है।
प्रधानमंत्री आवास योजना उन लोगों के लिए है - जिनके पास अपना घर कहा जा सकने वाली जमीन है। किसान सम्मान निधि भी उन किसानों के लिए है, जिनके पास अपनी जमीन है।
स्वामित्व योजना उनके लिये है, जिनके अपने घरौंदे हैं और आज भूमि सुधारों के नाम पर संचालित सबसे महत्वपूर्ण योजना 'नेशनल लैंड रिकॉर्ड मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम' के भी केंद्र में वही लोग हैं, जिनके पास अपनी जमीन का अधिकार है। जाहिर है कि किसी भी योजना के केंद्र में भूमिहीन हैं ही नहीं।
वर्ष 2012 में भूमि अधिग्रहण के मसलों पर गठित 'संसदीय समिति' की तत्कालीन अध्यक्षा श्रीमती सुमित्रा महाजन ने सरकार से सीधे सवाल पूछा था कि - जब भारत सरकार, कहीं भी सीधे पूंजी अथवा श्रम के अधिग्रहण में शामिल नहीं है, तब उसे भूमि के अधिग्रहण का दायित्व क्यों लेना चाहिए?
और वह भी तब, जबकि भूमि उत्पादन के उन सबसे महत्वपूर्ण साधनों में है, जिस पर समाज के सबसे वंचितों की सबसे अधिक निर्भरता है।
आखिर निजी, सरकारी अथवा अर्ध-सरकारी उद्यमों के लिए - स्वयं सरकार को भूमि अधिग्रहण क्यों करना चाहिये? जब दुनिया के आर्थिक शक्तियों अमरीका, जापान और कनाडा तक में भूमि अधिग्रहण सरकार के माध्यम से नहीं होता - तब भारत जैसे देश में जहां बहुसंख्यक लोग भूमि और कृषि आधारित जिन्दगी जीते हैं और जिनकी आजीविका और अस्मिता भी भूमि से जुड़ी हो, वहां मुनाफा कमाने वालों के पक्ष में किसी औपनिवेशिक कानून के माध्यम से भूमि अधिग्रहण करना क्या जायज है?
महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानने वाले भारत में, जो सरकार और समाज - करोड़ों भूमिहीनों को किसान नहीं बना पाया - आखिर उन्हें लाखों किसानों को भूमिहीन बना देने का विशेषाधिकार किसने दे दिया?
क्या इस देश में भूमि अधिग्रहण कानून का उपयोग, अधिग्रहित भूमि को भूमिहीनों के मध्य बांटने के लिये भी कभी होगा? यदि नहीं - तो 2013 के तथाकथित नये भूमि अधिग्रहण कानून को लागू करने वालों के उद्देश्य, मानसिकता और तौर-तरीकों में भी कोई सकारात्मक परिवर्तन आयेगा - इस पर संदेह किया ही जाना चाहिए।
आजादी के बाद से भूमि सुधारों को असफल बनाने का संगठित अपराध, समाज और सरकार दोनों ने ही किया है। 128 बरसों के (औपनिवेशिक और अब आधुनिक) भूमि अधिग्रहण कानून और 75 बरसों के भूमि सुधार कानूनों के बावजूद यदि भारत में भूमिहीनों की जनसंख्या पूरी दुनिया में सबसे अधिक है - तो यह निःसंदेह राजनैतिक नकारापन, प्रशासनिक नाकामी, न्यायिक निष्क्रियता और संसदीय पराजय का शोकपर्व है।
आजादी के अमृत महोत्सव के आलोक में डूबे विशेषाधिकार हासिल किये कुछ लोगों को निःसंदेह उत्सव मनाने की आजादी है - होनी भी चाहिये।
लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि हम उस आधी आबादी को ही विस्मृत कर दें - जिसे (भी) अपने देश में दो गज जमीन मिलनी ही चाहिए, ताकि वह भी अपनी जड़ों को इस देश और अपने गांव में महसूस तो कर सके।
आजादी के अमृत महोत्सव की सार्थकता, समाज के सबसे उपेक्षित पायदान पर खड़े लोगों का सम्मान और उन्हें उनके अधिकार देने का अवसर हो सकता है।
आज आजादी के अमृत महोत्सव में भारत के 56 प्रतिशत भूमिहीनों को अपनी जमीन और अपनी जमीर का सरकारी अवदान नहीं बल्कि स्वाभिमानपूर्वक अधिकार चाहिए।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)