लोकसभा 2024 : पोस्टकार्ड से प्रवासी श्रमिकों को मतदान का न्यौता, श्रमिक कह रहे किराए का पैसा नहीं

गोंडा जिले में रेलवे स्टेशन पर दूसरे प्रदेश जाने के लिए श्रमिकों की लाइने लगने लगी हैं। प्रवासी श्रमिक वापस काम के लिए दिल्ली-मुंबई, राजस्थान की तरफ जा रहे हैं
A computer center  in Raniyapur, Shravasti, to assist migrant workers and local labourers with digital paperwork. The area is predominantly inhabited by the Tharu tribe. Photo: Vivek Mishra / CSE
A computer center in Raniyapur, Shravasti, to assist migrant workers and local labourers with digital paperwork. The area is predominantly inhabited by the Tharu tribe. Photo: Vivek Mishra / CSE
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लोकसभा चुनाव का पहला चरण नजदीक है, उन क्षेत्रों को लक्ष्य किया जा रहा है जहां न्यूनतम मतदान हुए हैं। मतादताओं की भागीदारी बढाने की कोशिश भी होगी। हालांकि, इसके बावजूद लोकतंत्र के इस पर्व में सभी की भागीदारी सुनिश्चित करना संभव नहीं होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में जहां लोग रोजाना की जिंदगी को चलाने के लिए दूसरे राज्यों में काम के लिए चले जाते हैं। 

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने हाल  ही में कहा कि उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां सर्वाधिक मतदाता है हालांकि वहां का मतदान प्रतिशत काफी कम है। इसलिए टर्नआउट इंप्लीटेशन प्लान (टीआईपी) के  तहत उत्तर प्रदेश में 22 जिलों को चिन्हित किया गया है जहां मतदाताओं को मतदान के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रेरित किया जाएगा। 

लोकसभा 2019 में जहां मतदान 60 फीसदी से कम हुआ उन्हीं जिलों में प्रवासी श्रमिकों की संख्या काफी ज्यादा है और इन जिलों के ज्यादातर श्रमिक बरसात से पहले मार्च से जून तक बाहर यानी दूसरे राज्यों में काम पर ही रहेंगे। इनका लौटना मुश्किल होगा।

2019 में उत्तर प्रदेश की 13 ऐसी लोकसभा सीट थी जिन पर मतदान 55 फीसदी से भी कम था। इसमें फूलपूर (48.57 फीसदी), कानपुर (51.39 फीसदी), इलाहाबाद (51.75 फीसदी), श्रावस्ती (52.02 फीसदी), गोंडा (52.11 फीसदी), डुमरियागंज (52.26 फीसदी), प्रतापगढ़ (53.36 फीसदी), भदोही (53.45 फीसदी), लखनऊ (54.78 फीसदी), अमेठी (54.05 फीसदी), संतकबीरनगर (54.15 फीसदी), बलिया (54.35), कौशांबी (54.56 फीसदी) शामिल हैं।

वहीं, 60 फीसदी से कम मतदान वाली लोकसभा सीट में जौनपुर(55.77 फीसदी), सुल्तानपुर (56.37 फीसदी), उन्नाव  (56.47), फतेहपुर (56.79 फीसदी), शाहजहांपुर (56.15 फीसदी), रायबरेली(56.34 फीसदी), रॉबर्टगंज (57.37 फीसदी), बहराइच (57.24 फीसदी), बस्ती (57.19 फीसदी) आजमगढ़ (57.56 फीसदी), देवरिया (57.9 फीसदी), वाराणसी (57.13 फीसदी), अकबरपुर (58.13 फीसदी) जालौन (58.49 फीसदी), इटावा (58.52 फीसदी),  हरदोई (58.54 फीसदी), गाजीपुर (58.88 फीसदी), गोरखपुर (59.81 फीसदी), फैजाबाद (59.69 फीसदी) जैसी प्रमुख सीटें शामिल हैं।

कोरोनाकाल में प्रवासी श्रमिकों का जो आंकड़ा एकत्र किया गया था उसके मुताबिक पूरे प्रदेश में करीब 40 लाख लोग वापस लौटे थे। इनमें सर्वाधिक प्रवासी श्रमिकों की संख्या तराई और पूर्वांचल के जिलों की ही थी।

बीते लोकसभा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद (55 फीसदी) को छोड़कर अन्य सभी जिलों की लोकसभा सीट में वोटिंग प्रतिशत 60 से ऊपर था, वहीं बुंदेलखंड क्षेत्र के जिलों में भी अच्छी वोटिंग हुई थी। हालांकि, इन तराई और पूर्वांचल के जिलों में वोटिंग प्रतिशत कम रहा था। इस बार ऐसे ही जिलों में वोटिंग पर फोकस किया जा रहा है।

गोंडा जिले में रेलवे स्टेशन पर दूसरे प्रदेश जाने के लिए श्रमिकों की लाइने लगने लगी हैं। प्रवासी श्रमिक वापस काम के लिए दिल्ली-मुंबई, राजस्थान की तरफ जा रहे हैं। कम मतदान वाले जिलों में शामिल गोंडा जिला में खासी लोकप्रिय कैसरंगज लोकसभा सीट पर मतदान 54.39 फीसदी हुआ था। इस लोकसभा सीट के करनैलगंज स्थित छिरास शुकुलपुरवा गांव के शिवम शुक्ला का कहना है कि गोंडा जिला का रेलवे स्टेशन एक जंक्शन हैं जहां से श्रमिकों को दिल्ली, मुंबई, लखनऊ आदि शहरों में आने-जाने के लिए सुविधा होती है। इसलिए जिले में अच्छा खासा पलायन होता है।

गांव में छुट्टी मनाने आए हरीशचंद्र का कहना है कि आखिरी बार 2014 लोकसभा चुनाव में मतदान किया था। इसके बाद से कभी नहीं किया। वह पंजाब, राजस्थान और गुजरात जैसी जगहों पर काम करने के लिए जाते हैं। वह कहते हैं कि ज्यादातर राजस्थान के गंगानगर में किन्नू पैकिंग या फिर अन्य जगहों पर फलों की पैकिंग व अन्य निर्माण कार्यों के लिए जाते हैं।

हरीशचंद्र बताते हैं कि ठेकेदार श्रमिकों की मांग करते हैं। ऐसे में गांव से जो भी श्रमिक मिल जाते हैं उनसे 3 से 4 महीने के लिए काम पर चले जाते हैं। अप्रैल में काम के लिए निकल जाएंगे इस बीच लोकसभा चुनाव के लिए आना मुश्किल होगा। गांव के एक और श्रमिक नरेंद्र कुमार भी लोकसभा चुनाव में अपनी भागीदारी न कर पाने की असमर्थता जाहिर करते हैं।   

इसी तरह सीतापुर, बलरामपुर और लखीमपुर जैसे जिलों में भी प्रवासी श्रमिकों ने लोकसभा चुनाव में शामिल न हो पाने की मजबूरी जाहिर की। ज्यादातर जगहों पर प्रवासी श्रमिकों से न सिर्फ अधिक काम लिया जाता है बल्कि उनकी दिहाड़ी या उनका मजदूरी ठेकेदार रोककर रखता है। जब काम खत्म होता है तब वह उन श्रमिकों को पैसा देते है। ऐसे में बीच में श्रमिकों को काम छोड़कर कहीं जाने की मंजूरी नहीं मिलती है।

गुजरात के भरूच में अहमदाबाद से मुंबई की रेल लाइन का निर्माण कार्य में श्रम करने वाले बहराइच के मुकेरिया गांव के बेचेलाल जायसवाल बताते हैं कि सारे काम अब ठेके पर होते हैं। ठेकेदार जैसा कहता है वैसा ही श्रमिकों को करना पड़ता है। श्रमिकों का शोषण किया जाता है क्योंकि हमारा कोई संगठन नहीं है। कोई राजनीतिक पार्टी हम पर ध्यान नहीं देती है।

तराई हो या पूर्वांचल के गांव ज्यादातर श्रमिक अब ठेकेदारों के साथ काम पर जाते हैं। ठेकेदारों के जरिए उन्हें काम मिलता है।

लखीमपुर जिले के धौरहरा लोकसभा सीट में बेलतुआ गांव में 50 फीसदी घरों में श्रमिक दिल्ली-हरियाणा की तरफ काम करने के लिए जाते हैं। ग्रामीणों ने बताया कि उनके पास मतदान के लिए बीच में आना संभव नहीं होगा।

वहीं, बहराइच के प्रवासी श्रमिक रमेश गौतम कहते हैं कि मार्च से जून का महीना उनके लिए काफी अहम होता है, क्योंकि इस दौरान बाहर काम मिलता है। इसके बाद बरसात शुरू हो जाती है और उस दौरान खेतों में भी काम करना होता है। ऐसे में यदि मतदान का समय जून-जुलाई के बाद होता तो वह भागीदारी जरूर करते।

बिहार से गोंडा जिले में रूई और गद्दा व रजाई का काम करने वाले पांच श्रमिकों का एक टोला पहुंचा है। इसी टोले में शामिल मोहम्मद इजराइल कहते हैं कि वह अलग-अलग राज्यों में काम करने के लिए जाते रहते हैं। लोकसभा चुनाव में मतदान के सवाल पर वह कहते हैं कि उनके गांव में कोई मजदूरी नहीं है ऐसे में वह अपनी यहां कि मजदूरी छोड़कर वापस कैसे जा सकते हैं। मौका मिला तो जाएंगे अन्यथा किराया-भाड़ा लगाकर नहीं जाएंगे।

चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के जिन जगहों पर मतदान बढाने के लिए निर्णय लिया है उसमें इस बार प्रवासी श्रमिकों पर भी ध्यान देने की बात कही है। मिसाल के तौर पर श्रावस्ती के सहायक निर्वाचन अधिकारी छोटेलाल बताते हैं कि प्रवासी श्रमिकों की सूची तैयार की जा रही है। इन सभी प्रवासी श्रमिकों से संपर्क किया जाएगा और उन्हें मतदान के लिए बुलाया जाएगा।

जिलों में प्रवासी श्रमिकों को मतदान के लिए बुलाने के लिए पोस्टकार्ड के जरिए भी प्रवासी श्रमिकों को संपर्क करने की रणनीति बनाई गई है। हालांकि, ज्यादातर प्रवासी श्रमिक हर पांच से छह महीनों में अपना ठिकाना बदल देते हैं। ऐसे में यह काम कैसे किया जाएगा यह संशय भरा है।

जहां न्यूनतम मतदान था वहां संभव है कि मतदान प्रतिशत बढ़ जाए लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 में यह तय हो गया है कि ज्यादातर प्रवासी श्रमिक मार्च से जून के बीच बाहर काम पर ही रहेंगे और वह अपना काम बीच में छोड़कर मतदान के लिए अपने गांव और शहर नहीं लौट पाएंगे। 

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