लॉकडाउन बना गरीब और आदिवासी छात्रों के लिए वरदान

देश के आईआईटी-आईआईएम के शिक्षकों सहित देश के कई शिक्षाविदों ने लॉकडाउन के दौरान दूरदराज इलाकों के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के लिए ऑनलाइन कक्षाएं शुरू की
आईआईटी और आईआईएम के शिक्षक दूरदराज के बच्चों को पढ़ा रहे हैं।
आईआईटी और आईआईएम के शिक्षक दूरदराज के बच्चों को पढ़ा रहे हैं।
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लॉकडाउन की भयानकता भारत ही नहीं दुनियाभर के स्कूल जाने वाले बच्चों नें पिछले एक साल में झेली है। और यह अब भी विश्व के कई हिस्से में झेलने के लिए मजबूर हैं। अरबों की संख्या में बच्चे स्कूल नहीं जाने के कारण न केवल उनकी मनोदशा पर कुप्रभाव पड़ा  है बल्कि वे पढ़ाई में पिछड़ भी गए हैं। लेकिन कहा जाता है कि हर रात के बाद सुबह होती है। कुछ ऐसा ही देश के पांच राज्यों के दूर-दराज इलाकों में पढ़ रहे आदिवासी और गरीब छात्रों के लिए हुआ है। यानी आखिर लंबे अंधेरे के बाद (सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का स्तर) यह लॉकडाउन उनके लिए वरदान बन गया।

      हुआ यह कि हम सभी जानते हैं कि सरकारी स्कूलों की हालात देश में कितनी बद से बदतर है। और इन स्कूलों में आने वाले छात्रों के माता-पिता की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं होती है कि वे अपने बच्चों को किसी अच्छे शिक्षक के पास भेज कर पढ़ा सकें। यही नहीं सरकारी स्कूलों में तो जब लॉकडाउन नहीं भी लगा था तब भी स्कूलों में आने वाले शिक्षकों की संख्या न के बराबर होती है। यहां पढ़ने वाले छात्रों की पढ़ाई की स्थिति का अंदाजा असानी से लगाया जा सकता है कि उनका आईक्यू कितना नीचे चला गया है। ऐसे में जब लॉकडाउन लगा तो बंगलुरु स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईएसई) में पढ़ा चुके प्रोफेसर राहुल पांडे (वर्तमान में आईआईएम लखनऊ में विजिटिंग प्रोफेसर) ने संस्थान में अपने कुछ प्रोफेसर साथियों के साथ इस बात पर विचार किया है कि देश में सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की स्थिति कम से कम साइंस के विषयों जैसे मैथ्स, फिजिक्स, कमेस्ट्री, जुलॉजी-बॉटनी और अंग्रेजी जैसे विषयों में वे बहुत ही कमजोर होते है। कारण कि इन विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षक एक तो नियमित रूप से वे अपनी कक्षाओं में आते नहीं हैं और आते भी हैं तो वे अपडेट नहीं होते हैं। ऐसे में यदि हम देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हमारे साथी प्रोफेसर हों या शिक्षाविद हों या जिन्हें ये विषय पढ़ाने का पैशन हो, वे अपने अपने क्षेत्रों में वहां की स्थानीय भाषा में ये विषय पढ़ाएं तो छात्रों को समझने में आसानी भी होगी और उनके लिए एक अवसर भी बनेगा कि वे आगे की कक्षाओं में अधिक तैयारी से जा सकेंगे। डाउन टू अर्थ से बात करते हुए राहुल पांडे ने बताया कि यदि आपने एक बार किसी भी छात्र की बुनियाद मजबूत कर दी तो वह आगे का रास्ता खुद-ब-खुद ढूढ़ लेता है। वह कहते हैं कि हर छात्र के लिए एक अदद शिक्षक की बहुत ही अधिक जरूरत होती है। वह बताते हैं कि हम शिक्षक के चुनाव में बहुत अधिक सावधानी बरतते हैं। क्योंकि छात्रों व पढ़ाई के बीच की वही एक सबसे बड़ी कड़ी है।  

राहुल पांडे ने बताया कि वर्तमान में हम पांच राज्यों, तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, मणिपुर और केरल में ऑन लाइन कक्षाएं चला रहे हैं। उन्होंने बताया कि स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पढ़ाने का तोर-तरीका वहां पढ़ाने वाले शिक्षक स्वयं तैयार करते हैं। वह बताते हैं कि शिक्षक एक ऐसा सिलेबस तैयार करते हैं ताकि बच्चे को पूर्व स्थिति से बेहतर किया जा सके। इसके बाद जब नियमित कक्षाओं में होने वाली परीक्षाओं की भी तैयारी भी वही शिक्षक करवाता है ताकि छात्र नियमित रूप से अगली कक्षाओं में जाने के लिए परीक्षाएं पास कर सकें। वर्तमान में इन राज्यों में लगभग 18 शिक्षक ऑनलाइन पढ़ा रहे हैं और इसके अलावा बंगलूरु में एक कक्षा आनलाइन न होकर वहां बकायदा एक शिक्षक सरकारी स्कूल में पढ़ रहे बच्चों के घर के पास ही एक अलग कमरा लेकर पढ़ते हैं। राहुल ने बताया कि हम सभी इन कक्षाओं का नियमित रूप से अवलोकन भी करते हैं यदि किसी प्रकार की कमीबेसी होती है तो उसे दूर करने के लिए स्थानीय शिक्षक व वहां पढ़ रहे बच्चों के साथ विचार कर सुलझाने की कोशिश की जाती है।

ऑनलाइन पढ़ाई और गरीब बच्चे कैसे पढ़ेंगे? यह सवाल हर किसी के जेहन में आता है कि गरीब आदमी के पास दो जून का  खाना तो नसीब होता नहीं है स्मार्ट फोन कहां से आएगा और उसका बच्चा उसे लेकर पढ़ पाएगा। इन सभी सवालों पर राहुल कहते हैं कि यह सही है कि गरीब आदमी के पास स्मार्ट फोन कहां से लाएगा। इसके लिए हमने यह तरकीब निकाली है। काफी सोच विचार के बाद यह बात भी सामने आई है कि अब तक देश में जहां कहीं भी ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है और यहां हमें यह भी देखना  होगा ये ऑनलाइन पढ़ाई अधिकांत: निजी स्कूलों में ही संभव हो पा रही है। वह बताते हैं कि हमने इनका आंकलन किया तो पाया कि फोन से या लेपटॉप के सामने बैठकर पढ़ने वाले बच्चों की स्थित वन-वे जैसी है। एक शिक्षक बोलता जा रहा है दूसरी ओर छात्र बस उसकी बात सुन रहे हैं, अपनी ओर से किसी प्रकार की बहुत अधिक एक्टीविटी नहीं कर रहे हैं। ऐसे में हमने जिस भी राज्य के शिक्षक ने पढ़ाने की रूचि दिखाई तो इसके लिए हमने उन इलाकों में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन के साथ संपर्क किया और उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी की आप अपने इलाके के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे छात्रों को एकत्रित कर एक कमरे बैठाएं और वहां पर एक छोटा प्रोजेक्टर लगाने की व्यवथा की ताकि छात्रों को आसानी से शिक्षक के साथ-साथ उसके द्वारा लिखे जाने वाले शब्द भी आसानी से दिखाई दें। राहुल ने बताया कि हमने छात्रों व शिक्षक के बीच एक तरफा संवाद नहीं रखा यानी केवल शिक्षक ही नहीं बोलता रहेगा बल्कि छात्र को भी इस लायक तैयार किया जाएगा कि वह शिक्षक की बातों पर सवाल-दर-सवाल कर सके। यानी बातचीत दोनों तरफ से होनी चाहिए। हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है कि छात्रों को सिखाने की क्वालिटी उच्च स्तर पर हो। वह बताते हैं कि इस प्रकार की कक्षाओं में केवल सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले छात्र ही नहीं शामिल हें बल्कि ड्रापआउट हो चुके बच्चों से लेकर पलायन करने वाले माता-पिता के बच्चे आदि भी शामिल हैं।

डाउन टू अर्थ ने ऐसी ही एक कक्षा अटेंड भी की। इस कक्षा की शिक्षिका बंगलूरू में थीं और वह केरल के एलप्पी जिले के एक दूरदराज गांव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रही थीं और वह भी उन्हीं की मलयाम भाषा में। इसमें यह देखने में आया कि बच्चे आसानी से न केवल उनकी बातों को ग्रहण कर पा रहे थे बल्कि बीच-बीच में वे बिना किसी भय के सवाल भी कर ले रहे थे।

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