लद्दाख: प्राकृतिक सौंदर्य और सांस्कृतिक धरोहर के बीच संघर्ष की कहानी
लद्दाख की संस्कृति तिब्बती-मंगोलियन और इंडो-आर्यन प्रभावों का अनूठा मिश्रण है
यहां के त्योहार, जैसे हेमिस फेस्टिवल और लोसार, सांस्कृतिक जीवंतता को दर्शाते हैं
हालांकि, पर्यटन के दबाव ने स्थानीय हस्तशिल्प और परंपराओं को बाजार के हिसाब से बदल दिया है
लद्दाखी लोग अपनी संस्कृति और पर्यावरण को बचाने के लिए नए उपाय खोज रहे हैं, जैसे होमस्टे और प्लास्टिक-मुक्त गांव
छठी अनुसूची में शामिल होने के लिए लद्दाख के लोग लगातार संघर्षरत हैं
लद्दाख, हिमालय की ऊंची चोटियों और बर्फीली घाटियों में बसा एक ऐसा क्षेत्र है, जहां प्रकृति की भव्यता, संस्कृति की समृद्धि और मानवीय संघर्ष की कहानियां एक साथ हैं। यह केवल खूबसूरत परिदृश्यों- जैसे पांगोंग त्सो की नीली झील, नुब्रा की रेतीली घाटी, या खारदुंग ला की बर्फीली चोटियां का ठिकाना नहीं है, बल्कि एक जीवंत समाज का प्रतीक है, जो अपनी पहचान, पर्यावरण और अधिकारों को बचाने के लिए जूझ रहा है।
लद्दाख को ‘एशिया का जल मीनार’ कहा जाता है, क्योंकि इसके ग्लेशियर और हिमनदीय झीलें, जैसे सिंधु, जांस्कर और श्योक नदियों का स्रोत, न केवल स्थानीय जीवन को पोषित करते हैं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की जल आपूर्ति का आधार हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित पर्यटन और राजनीतिक बदलावों ने इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र और सांस्कृतिक विरासत को खतरे में डाल दिया है।
यह लेख लद्दाख की सांस्कृतिक गहराई, पर्यावरणीय चुनौतियों और राजनीतिक आकांक्षाओं को एक मानवविज्ञानी नजरिए से प्रस्तुत करता है, जो इस क्षेत्र की आत्मा को समझने का प्रयास करता है।
सांस्कृतिक धरोहर: परंपराओं और विविधता का मेल
लद्दाख की संस्कृति तिब्बती-मंगोलियन और इंडो-आर्यन प्रभावों का अनूठा संगम है, जो प्राचीन सिल्क रोड के व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से समृद्ध हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, लद्दाख की जनसंख्या में बौद्ध और मुस्लिम प्रत्येक 46%, हिंदू 6%, और अन्य (ईसाई, सिख) 2% हैं।
लेह में तिब्बती बौद्ध धर्म, खासकर गेलुग्पा और द्रुकपा संप्रदाय प्रमुख है, जबकि कारगिल में शिया इस्लाम की गहरी जड़ें हैं। इस धार्मिक विविधता के बावजूद, लद्दाखी समाज में सामुदायिक एकता की मिसाल देखने को मिलती है। 2022 में कारगिल के शिया मुस्लिम समुदाय ने 42 साल पुराने विवाद को खत्म कर लेह में एक बौद्ध मठ के लिए जमीन दान की, जो धार्मिक सह-अस्तित्व और सामाजिक सद्भाव का प्रतीक है।
यह एकता केवल धार्मिक सहयोग तक सीमित नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और राजनीतिक चुनौतियों के खिलाफ साझा संघर्ष भी कर रही हैं। उदाहरण के लिए, लेह और कारगिल के समुदायों ने जलवायु परिवर्तन और भूमि अधिकारों के लिए संयुक्त प्रदर्शन किए हैं, जो उनकी साझा लद्दाखी पहचान को दर्शाते हैं।
लद्दाख के त्योहार इसकी सांस्कृतिक जीवंतता को उजागर करते हैं। हेमिस फेस्टिवल, जो लेह के प्राचीन हेमिस मठ में आयोजित होता है, रंग-बिरंगे नकाबपोश नृत्यों (‘चम’) के लिए विश्व प्रसिद्ध है। ये नृत्य, जो बौद्ध दर्शन के अनुसार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक हैं, स्थानीय लोगों और पर्यटकों को एक साथ लाते हैं।
नर्तक रंगीन वेशभूषा और मुखौटों में बौद्ध कथाओं को जीवंत करते हैं, जैसे गुरु पद्मसंभव की कहानियां। लोसार, तिब्बती नववर्ष, लद्दाखी परिवारों को एकजुट करता है। इस दौरान लोग थुकपा (नूडल सूप), मोमो (पकौड़े), और चांग (जौ से बनी स्थानीय शराब) का आनंद लेते हैं। लोसार के दौरान घरों को सजाया जाता है, और परिवार प्रार्थना चक्र (मणि चक्र) घुमाकर और मठों में दीप जलाकर उत्सव मनाते हैं।
कारगिल में डमण्या नृत्य, ढोल और शहनाई की मधुर धुनों पर, स्थानीय परंपराओं को जीवित रखता है। इस नृत्य में पुरुष और महिलाएं पारंपरिक परिधानों में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं।
लद्दाख की कला और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक गहराई को दर्शाते हैं। थाँगक पेंटिंग, जो बौद्ध दर्शन, प्रकृति और आध्यात्मिक प्रतीकों को चित्रित करती हैं, लद्दाखी कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये पेंटिंग, जो अक्सर सूती कपड़े या रेशम पर बनाई जाती हैं, ध्यान और पूजा के लिए उपयोग होती हैं। प्रत्येक थांगक में चित्रित मंडल, बुद्ध या बोधिसत्व की छवियां और प्राकृतिक तत्व लद्दाखी जीवन के मौसमी चक्रों और आध्यात्मिक विश्वासों को दर्शाते हैं।
पश्मीना शॉल, जो चांगथांगी बकरियों के बारीक ऊन से बनते हैं, न केवल गर्माहट प्रदान करते हैं, बल्कि लद्दाखी शिल्प कौशल का प्रतीक हैं। इन शॉलों को बनाने की प्रक्रिया बहुत ही कठिन है। चरवाहे बकरियों को चराते हैं, ऊन को हाथ से काता जाता है और फिर बुनकर इसे महीन कपड़े में बदलते हैं।
इसके अलावा, लकड़ी की नक्काशी, जैसे मठों में देखे जाने वाले प्रार्थना चक्र, दरवाजे और मूर्तियां, लद्दाखी कारीगरों की बारीक कला को दर्शाती हैं। लेह के शांति स्तूप और थिक्से मठ व घरों और होटलों की नक्काशी बहुत आकर्षक और यहाँ की पहचान है।
लद्दाखी संस्कृति हमेशा से पर्यावरण के साथ गहरे तालमेल में विकसित हुई है। इसका साफ़ उदाहरण है ‘यूरा’, यानी पारंपरिक सामुदायिक जल-प्रबंधन प्रणाली। इस प्रथा में गाँव के लोग मिलकर तय करते हैं कि नहरों के जरिए पानी किस खेत में कब और कितना पहुँचे, ताकि हर खेत को पर्याप्त जल मिल सके।
यहां चुरपोन नामक जल प्रबंधक हर बारी पर पानी के वितरण की निगरानी करता है। यूरा केवल सामुदायिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि पानी बाँटने की तकनीकी पद्धति ‘जुराब’ के साथ काम करती है। जुराब के जरिए पानी को खेतों तक बराबर बाँटा जाता है, जिससे किसी के खेत में कमी न हो और बर्बादी कम से कम हो।
इस तरह यूरा और जुराब मिलकर लद्दाखी समाज में जल संरक्षण, सामाजिक सहयोग और सामुदायिक एकता सुनिश्चित करते हैं। यह प्रणाली सैकड़ों साल पुरानी है और तकनीकी के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी दर्शाती है।
उदाहरण के लिए, स्टाक और चुमाथांग जैसे गांवों में यूरा ने गंभीर जल संकट के दौरान भी खेती को संभव बनाया है। हर परिवार बारी-बारी से नहरों की देखभाल करता है, और इससे सिर्फ पानी नहीं बचता, बल्कि सामुदायिक सहयोग और पारंपरिक ज्ञान भी जीवित रहता है।
लद्दाख का खाना सिर्फ भूख मिटाने का जरिया नहीं, बल्कि वहाँ के लोगों के देशज ज्ञान और अनुभव का नतीजा है। ऊँचाई, ठंडा मौसम और खेती की सीमित जमीन के बावजूद उन्होंने ऐसा खान-पान अपनाया है जो ताक़त भी देता है और माहौल के हिसाब से पूरी तरह फिट बैठता है। सत्तू (जौ का आटा), गुर-गुर चाय (याक मक्खन और नमक वाली चाय), खोलक (जौ और मटर का मिश्रण) और त्सम्पा (भुना जौ), ये सब इसके उदाहरण हैं।
सत्तू को पानी या चाय में घोलकर खाया जाता है, जो तुरंत ताक़त देता है। गुर-गुर चाय याक के दूध और मक्खन से बनी होती है, इसमें नमक भी डाला जाता है, जिससे ठंडे मौसम में शरीर को गर्मी मिलती है। खोलक और त्सम्पा जैसे व्यंजन रोज़ाना के भोजन का हिस्सा हैं और पूरी तरह स्थानीय संसाधनों पर आधारित हैं। लद्दाखी लोग देशज ज्ञान के बल पर मौसम की चुनौतियों से भी निपटते हैं। उदाहरण के तौर पर, वे गर्मियों में पालक, गोभी जैसी सब्ज़ियाँ सुखाकर रखते हैं ताकि सर्दियों में काम आ सकें।
यह तकनीक पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है और बताती है कि कैसे स्थानीय लोग प्राकृतिक संसाधनों का सोच-समझकर इस्तेमाल करते हैं। असल में, लद्दाख का खाना एक तरह का जीवंत देशज ज्ञान है, जिसमें ज़मीन, मौसम और जीवन का गहरा रिश्ता दिखाई देता है। यह हमें यह भी सिखाता है कि प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर ही लंबे समय तक जीने का रास्ता निकाला जा सकता है।
लद्दाख की संस्कृति और परंपराओं पर पर्यटन का दबाव साफ नजर आता है। 2022 में करीब साढ़े चार लाख पर्यटक यहाँ आए। इतनी बड़ी संख्या ने स्थानीय हस्तशिल्प और परंपराओं को बाज़ार के हिसाब से बदल दिया।
थांगक पेंटिंग और पश्मीना शॉल, जो कभी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गहराई से जुड़े थे, अब ज्यादातर स्मृति-चिह्न (सॉवेनियर) बनकर बिक रहे हैं। लेह के बाजारों में नकली थाँगक और मशीन से बने पश्मीना शॉल आसानी से मिल जाते हैं, जिससे असली कारीगरों की आजीविका पर सीधा असर पड़ रहा है।
लद्दाखी लोग अपनी पहचान और संस्कृति को बचाने के लिए नए रास्ते तलाश रहे हैं। लेह, नुब्रा घाटी और अन्य स्थानों में होमस्टे इसका अच्छा उदाहरण हैं। यहाँ पर्यटक स्थानीय परिवारों के साथ रहते हैं, उनका खाना खाते हैं और उनकी जीवन-शैली को करीब से समझते हैं।
कई बार तो परिवार उन्हें खुद थुकपा, स्क्यु (स्थानीय पास्ता), गुर-गुर चाय और चांग (जौ की बनी पारंपरिक शराब) बनाना भी सिखाते हैं। नुब्रा के सुमूर और तुरतुक गांवों में होमस्टे चलाने वाले परिवारों ने इसे एक तरह का सांस्कृतिक आदान-प्रदान बना दिया है। इससे न केवल संस्कृति जीवित रहती है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था भी मजबूत होती है।
लद्दाख आर्ट्स एंड मीडिया ऑर्गनाइजेशन (एलएएमओ) जैसे संगठन भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। वे कार्यशालाएं आयोजित करते हैं, जिनमें युवाओं को थाँगक पेंटिंग और लद्दाखी लोक संगीत सिखाया जाता है। यह प्रयास पारंपरिक कला और संगीत को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का एक जरिया है।
सिर्फ संस्कृति ही नहीं, पर्यावरण को बचाने के लिए भी कई पहलें हो रही हैं। नुब्रा और जंस्कार के कुछ गांवों ने खुद को प्लास्टिक-मुक्त घोषित किया है। जैसे सुमूर गांव में पर्यटकों को पुन: उपयोग वाली पानी की बोतलें और कपड़े के थैले साथ रखने के लिए प्रेरित किया जाता है। इससे प्लास्टिक का कचरा कम होता है और सफाई बनी रहती है।
खेती के क्षेत्र में भी बदलाव दिखता है। लेह के आसपास के गांवों में किसान रासायनिक खाद की जगह याक के गोबर और प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और जैविक खेती को बढ़ावा मिलता है। कुल मिलाकर, एक तरफ पर्यटन ने लद्दाख की परंपराओं और कला को बाज़ार के दबाव में बदलने की कोशिश की है, तो वहीं दूसरी तरफ स्थानीय लोग और संगठन अपनी संस्कृति, पर्यावरण और आजीविका को बचाने के लिए नए-नए उपाय भी खोज रहे हैं।
पर्यावरणीय चुनौतियां: नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र का संकट
लद्दाख का पारिस्थितिकी तंत्र विश्व के सबसे नाजुक क्षेत्रों में से एक है। इसके ग्लेशियर, जो सिंधु, जांस्कर और श्योक नदियों को पोषित करते हैं, खेती, पशुपालन और रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पानी का मुख्य स्रोत हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन ने इन ग्लेशियरों को तेजी से पिघलने पर मजबूर किया है।
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, लद्दाख के ग्लेशियर पिछले 50 वर्षों में 20-30% तक सिकुड़ चुके हैं। अनियमित बारिश और सूखे ने पारंपरिक फसलों जैसे जौ, गेहूं और मटर को प्रभावित किया है, जो लद्दाखी जीवन का आधार हैं।
उदाहरण के लिए, 2021 में लेह के आसपास के गांवों में बारिश की कमी के कारण जौ की फसल 40 प्रतिशत तक कम हो गई। इसके अलावा, गर्मियों में ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना बाढ़ का कारण बन रहा है, जिसने 2010 में लेह में भारी तबाही मचाई थी, जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गए थे।
2022 में आए 4.5 लाख पर्यटकों ने पानी और कचरे की समस्याओं को और बढ़ा दिया। लेह और नुब्रा घाटी जैसे लोकप्रिय स्थानों में संसाधनों पर दबाव बढ़ गया है, जिससे स्थानीय लोगों को पानी और बिजली की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
इस संकट से निपटने के लिए लद्दाखी समुदाय और संगठन नवोन्मेषी कदम उठा रहे हैं। कृत्रिम ग्लेशियर, जिन्हें सर्दियों में बनाया जाता है, गर्मियों में पिघलकर खेतों को पानी उपलब्ध कराते हैं। यह तकनीक, जिसे स्थानीय इंजीनियरों ने विकसित किया, जल संरक्षण का एक अनूठा उदाहरण है।
उदाहरण के लिए, स्टाक गांव में बनाए गए कृत्रिम ग्लेशियर ने 500 एकड़ से अधिक खेतों को पानी प्रदान किया, जिससे जौ, गेहूं और सब्जियों की खेती संभव हुई। ये ग्लेशियर सर्दियों में पाइपों और नहरों के जरिए पानी को ऊंचे स्थानों पर जमा करते हैं, जहां यह बर्फ के रूप में जम जाता है। गर्मियों में यह बर्फ धीरे-धीरे पिघलती है, जिससे खेतों को पानी मिलता है।
यह तकनीक न केवल जल संकट से निपटती है, बल्कि स्थानीय समुदायों को आत्मनिर्भर बनाती है। इसके अलावा, सौर ऊर्जा से चलने वाले गेस्टहाउस और बारिश के पानी को संग्रह करने की प्रणालियां टिकाऊ पर्यटन को बढ़ावा दे रही हैं। नुब्रा घाटी में प्लास्टिक बोतलों को रीसाइक्लिंग करके बैग, टाइल्स और बेंच बनाए जा रहे हैं, जिससे कचरे का प्रबंधन हो रहा है।
हालांकि, बड़े पैमाने की विकास परियोजनाएं पर्यावरण के लिए नया खतरा बन रही हैं। स्क्यांगचूतांग (पांग) में प्रस्तावित 40,000 एकड़ का सौर पार्क, जो 10 गीगावाट बिजली उत्पादन के लिए बनाया जा रहा है, चरागाह भूमि को नष्ट करेगा, जिस पर स्थानीय चांगपा चरवाहे निर्भर हैं।
ये चरागाह चांगथांगी बकरियों के लिए महत्वपूर्ण हैं, जो पश्मीना ऊन का स्रोत हैं। सौर पार्क से न केवल आजीविका प्रभावित होगी, बल्कि जैव-विविधता को भी नुकसान पहुंचेगा। उदाहरण के लिए, चांगथांग क्षेत्र में पाए जाने वाले दुर्लभ हिम तेंदुए और तिब्बती भेड़ियों का आवास खतरे में पड़ सकता है।
इसके अलावा, आर्यन वैली में यूरेनियम, ग्रेनाइट, चूना पत्थर और संगमरमर जैसे खनिजों का खनन पारिस्थितिकी तंत्र को और नुकसान पहुंचाएगा। सात जलविद्युत परियोजनाएं और 157 हेक्टेयर वन भूमि को साफ करने की योजना भी पर्यावरणीय चिंताओं को बढ़ा रही हैं।
ये परियोजनाएं ग्लेशियरों, जल स्रोतों और स्थानीय आजीविका को प्रभावित करेंगी। मिसाल के तौर पर, चरागाहों का नुकसान पश्मीना उत्पादन को कम करेगा, जो लद्दाखी अर्थव्यवस्था और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। स्थानीय लोग इसे ‘सांस्कृतिक हत्या’ कहते हैं, क्योंकि ये परियोजनाएं उनकी परंपराओं और जीवन शैली को खतरे में डाल रही हैं।
पर्यटन का पर्यावरण पर प्रभाव भी गंभीर है। लेह और पांगोंग त्सो जैसे क्षेत्रों में होटलों और गेस्टहाउसों की बढ़ती संख्या ने पानी और ऊर्जा की मांग को बढ़ा दिया है। पर्यटकों द्वारा छोड़ा गया प्लास्टिक कचरा, जैसे पानी की बोतलें और पैकेजिंग, नदियों और घाटियों को प्रदूषित कर रहा है।
2022 में, लेह में कचरा प्रबंधन की कमी के कारण स्थानीय नदियों में प्लास्टिक कचरे का स्तर 20 प्रतिशत तक बढ़ गया। इसके जवाब में, स्थानीय संगठनों ने जागरूकता अभियान शुरू किए हैं। उदाहरण के लिए, नुब्रा और जंस्कार में स्वयंसेवी समूह पर्यटकों को कचरा कम करने और स्थानीय संसाधनों का सम्मान करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
लेह में ‘लद्दाख पर्यावरण और स्वास्थ्य संगठन’ (एलईएचओ) ने कचरा प्रबंधन के लिए सामुदायिक रीसाइक्लिंग केंद्र स्थापित किए हैं, जहां प्लास्टिक को पुन: उपयोग योग्य सामग्री में बदला जाता है। ये प्रयास छोटे स्तर पर प्रभावी हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर नीतिगत बदलाव की जरूरत है।
राजनीतिक संघर्ष: स्वायत्तता और पहचान की लड़ाई
2019 में अनुच्छेद 370 और 35ए के कमजोर होने के बाद लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। इस फैसले को शुरू में लेह के स्थानीय लोगों ने स्वागत किया, क्योंकि वे जम्मू-कश्मीर की छाया से बाहर निकलना चाहते थे।
वहीं कारगिल ने इसका विरोध किया था। केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा स्वायत्तता के लिए खतरा बन रहा है। नए भूमि स्वामित्व नियमों ने बाहरी लोगों को जमीन खरीदने की अनुमति दी, जिससे स्थानीय लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान और संसाधनों के नुकसान से डर रहे हैं।
लेह और कारगिल में दो स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषदें (एलएएचडीसी) हैं, लेकिन इनके पास वास्तविक शक्ति नहीं है। लद्दाख के 6,000 करोड़ रुपए के बजट में से केवल 600 करोड़ रुपए एलएएचडीसी को मिलते हैं, बाकी का नियंत्रण केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के पास है। यह केंद्रीकृत प्रशासन स्थानीय स्वायत्तता को कमजोर करता है।
लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) ने चार सूत्री मांगें उठाई हैं: (1) संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना, जो आदिवासी क्षेत्रों को स्वायत्तता देती है; (2) लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा; (3) स्थानीय नौकरियों के लिए अलग लोक सेवा आयोग; और (4) लेह और कारगिल के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटें।
ये मांगें केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि लद्दाख की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय पहचान को बचाने की कोशिश हैं। 99 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाला लद्दाख छठी अनुसूची का हकदार है, जो भूमि, जंगल और जल जैसे संसाधनों पर स्थानीय नियंत्रण सुनिश्चित करती है।
छठी अनुसूची भारत के अन्य क्षेत्रों, जैसे मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा में सफलतापूर्वक लागू है, जहां यह आदिवासी समुदायों को उनकी जमीन और संस्कृति पर नियंत्रण देती है। उदाहरण के लिए, मिजोरम में छठी अनुसूची ने स्थानीय परिषदों को जंगल और खनन परियोजनाओं पर वीटो शक्ति दी है, जो लद्दाख के लिए भी प्रासंगिक हो सकता है।
छठी अनुसूची की मांग का ऐतिहासिक संदर्भ भी महत्वपूर्ण है। 1995 में, जब लद्दाख को स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषदें (ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल) दी गईं, तब यह उम्मीद थी कि यह स्वायत्तता का पहला कदम होगा। लेकिन वास्तव में, इन परिषदों को सीमित शक्तियां दी गईं, जैसे स्कूलों और सड़कों का प्रबंधन, जबकि भूमि और खनन जैसे बड़े फैसले जम्मू-कश्मीर सरकार के पास रहे।
2019 के बाद, यह नियंत्रण केंद्र सरकार के पास चला गया, जिसने स्थानीय लोगों की निराशा को और बढ़ा दिया। एलएबी और केडीए का गठन इस निराशा का जवाब है। इन संगठनों ने न केवल स्थानीय मांगों को उठाया, बल्कि लेह और कारगिल के बीच एकता को भी मजबूत किया।
2023 में, एलएबी और केडीए ने संयुक्त रूप से दिल्ली में एक प्रदर्शन आयोजित किया, जिसमें हजारों लद्दाखियों ने अपनी मांगों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया। यह आंदोलन धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करता है, जो लद्दाखी पहचान की ताकत को दर्शाता है।
हालांकि, केंद्र सरकार का रवैया इन मांगों के प्रति उदासीन रहा है। 2019 और 2020 में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में छठी अनुसूची का वादा किया था, लेकिन अब उससे मुकर गई है। इसके बजाय, सरकार ने कार्यकर्ताओं पर दमनात्मक कार्रवाइयां की हैं।
उदाहरण के लिए, वैकल्पिक शिक्षा संस्थानों के पट्टे रद्द किए गए और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग आंदोलन को कमजोर करने के लिए किया गया। इसके बावजूद, लद्दाखी समुदाय ने हार नहीं मानी। 2024 में, एलएबी और केडीए ने एक ‘पदयात्रा’ का आयोजन किया, जिसमें सैकड़ों लोग लेह से कारगिल तक पैदल चले, ताकि अपनी मांगों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया जा सके। यह आंदोलन न केवल राजनीतिक है, बल्कि लद्दाखी पहचान और संस्कृति की रक्षा का प्रतीक है।
हाल की एक और चिंता पांच नए जिलों की घोषणा है—शम, नुब्रा, चांगथांग, जंस्कार और द्रास। यह कदम सतह पर प्रशासनिक सुधार लगता है, लेकिन स्थानीय लोग इसे कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा देने और परिसीमन के जरिए जनसांख्यिकी बदलने की रणनीति मानते हैं। नए जिले संसाधनों के केंद्रीकरण को बढ़ा सकते हैं और छठी अनुसूची की मांग को कमजोर कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, चांगथांग में सौर पार्क और खनन परियोजनाएं बाहरी मजदूरों को ला सकती हैं, जो लद्दाख की जनसांख्यिकी को बदल सकती हैं। यह स्थानीय लोगों के लिए ‘सांस्कृतिक नरसंहार’ का खतरा है, क्योंकि यह उनकी पहचान और आजीविका को प्रभावित करेगा।
नौटोर प्रथा और भूमि का संकट
लद्दाख में भूमि का मुद्दा हमेशा संवेदनशील रहा है। पहले अनुच्छेद 370 के तहत बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीदना मुमकिन नहीं था, जिससे स्थानीय लोगों की सुरक्षा बनी रहती थी। हरी सिंह राज्य के समय से ही स्थानीय प्रशासन ने नौटोर जैसी पारंपरिक प्रथाओं को संरक्षित किया था, ताकि बंजर भूमि को खेती और आजीविका के लिए इस्तेमाल किया जा सके। यह प्रथा सदियों से स्थानीय समुदाय की आजीविका और सांस्कृतिक पहचान का आधार रही है। लेकिन अब नए नियमों ने यह सुरक्षा हटा दी है, और स्थानीय लोगों में चिंता बढ़ गई है।
‘नौटोर’ प्रथा लद्दाखी कृषि और संस्कृति का एक अहम हिस्सा रही है। इसके तहत बंजर जमीन को खेती के लिए तोड़ा और उपजाऊ बनाया जा सकता था। इससे किसानों को जौ, गेहूँ और सब्जियाँ उगाने में मदद मिलती थी और यह उनकी आत्मनिर्भरता का मूल आधार बनती थी।
उदाहरण के लिए, नुब्रा और जंस्कार के कई गांवों में नौटोर से बनाई गई जमीन ने स्थानीय लोगों की रोज़ी-रोटी और पारंपरिक भोजन की सुरक्षा में बड़ा योगदान दिया। पहले यह प्रथा तहसीलदार स्तर पर संचालित होती थी, जो स्थानीय जरूरतों और परिस्थितियों को समझते थे।
अब इसे डिप्टी कमिश्नर के नियंत्रण में लाया गया है, और 15 अप्रैल 2022 के आदेश के अनुसार केवल वही भूमि के उपयोग की पुष्टि करेंगे। स्थानीय लोग इसे भूमि हड़पने की रणनीति मानते हैं, क्योंकि अब बड़े कॉर्पोरेट और बाहरी हितों को प्राथमिकता मिलने की संभावना बढ़ गई है।
नौटोर केवल आर्थिक महत्व ही नहीं रखती, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान से भी जुड़ी है। जो जमीन नौटोर के तहत खेती के लिए तैयार होती थी, उसी पर उगाई जाने वाली फसलें लद्दाखी भोजन और त्योहारों का आधार होती हैं।
अगर यह प्रथा कमजोर हो जाती है, तो न केवल किसानों की आजीविका प्रभावित होगी, बल्कि उनकी संस्कृति और परंपराएं भी संकट में पड़ सकती हैं। नौटोर प्रथा लद्दाख में भूमि, आजीविका और संस्कृति के बीच एक अनोखे संतुलन का प्रतीक रही है।
हरी सिंह के समय से लेकर आज तक, यह प्रणाली स्थानीय समुदाय की आजीविका और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करती आई है। नए नियमों ने इसे चुनौतीपूर्ण बना दिया है, और यह दिखाता है कि कैसे बाहरी हस्तक्षेप स्थानीय जीवनशैली और अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है।
लद्दाख का भविष्य: एकता और टिकाऊ विकास
लद्दाख वर्तमान में परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती का सामना कर रहा है। जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित पर्यटन और कॉर्पोरेट हितों ने इसकी नाजुक पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक पहचान पर दबाव डाला है। इसके बावजूद, लद्दाखी समुदाय अपनी पहचान और संसाधनों की सुरक्षा के लिए सक्रिय और एकजुट है। लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के साझा प्रयास, कृत्रिम ग्लेशियर, सौर ऊर्जा और होमस्टे जैसी टिकाऊ पर्यटन पहल इसका जीवंत उदाहरण हैं।
जेम्स फोर्ड और जूलिया लुईस के अनुसार, “सामुदायिक ज्ञान और पारंपरिक प्रथाएँ प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का सबसे स्थायी तरीका हैं।” लद्दाख में यूरा, जुराब और नौटोर जैसी पारंपरिक व्यवस्थाएँ इसे सिद्ध करती हैं। ये प्रथाएं न केवल जल और भूमि के संरक्षण में मदद करती हैं, बल्कि सामाजिक सहयोग और सामुदायिक एकता को भी मजबूत करती हैं। उदाहरण के लिए, स्टाक और चुमाथांग जैसे गांवों में यूरा और जुराब ने गंभीर जल संकट के दौरान भी खेती को संभव बनाया।
लद्दाख का अनुभव केवल स्थानीय संदर्भ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर स्वदेशी समुदायों के संघर्षों के साथ मेल खाता है। यह ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों, कनाडा के फर्स्ट नेशन्स और अमेज़न की जनजातियों की परिस्थितियों के समान है, जहां समुदाय अपनी जमीन, संस्कृति और अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। छठी अनुसूची, पूर्ण राज्य का दर्जा और स्थानीय नियंत्रण की मांग स्थानीय आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। इसके लिए नीतिगत बदलाव और वैश्विक समर्थन दोनों आवश्यक हैं।
स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर बढ़ाना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए, वैकल्पिक शिक्षा मॉडल, जिसमें पारंपरिक और आधुनिक ज्ञान का मिश्रण हो, युवा पीढ़ी को उनकी संस्कृति से जोड़ सकते हैं। टिकाऊ पर्यटन को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ और कृत्रिम ग्लेशियर, सौर ऊर्जा तथा जैविक खेती जैसी पहलें बड़े पैमाने पर लागू करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं का सहयोग जरूरी है।
जैसा कि मानवविज्ञानी मिहेल फ्लोरी कहते हैं, “स्थायी समुदाय वही है जो संकट में भी अपनी संस्कृति और संसाधनों को बचाने की क्षमता रखता है।” लेह और कारगिल के बीच धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद साझा अनुभव और संघर्ष ने समुदाय को एकजुट रखा है। यह एकता न केवल लद्दाख के लिए, बल्कि विश्व के उन सभी समुदायों के लिए प्रेरणा है, जो अपनी पहचान और संसाधनों की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं।
यह स्पष्ट है कि लद्दाख को केवल लदाखी ही बचा सकते हैं। उनकी स्थानीय समझ, पारंपरिक ज्ञान और सामूहिक प्रयास ही इस क्षेत्र की संस्कृति, पर्यावरण और संसाधनों की रक्षा की सबसे स्थायी नींव हैं।अतः लद्दाख का भविष्य टिकाऊ विकास और सांस्कृतिक संरक्षण पर निर्भर करता है। इसके लिए संस्कृति, पर्यावरण और स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देना अनिवार्य है। लद्दाख यह स्पष्ट करता है कि प्रकृति, संस्कृति और सामूहिक संघर्ष केवल चुनौतियां ही नहीं हैं, बल्कि एकजुटता, नवाचार और टिकाऊ विकास की संभावनाएँ भी उत्पन्न करते हैं।
(जनजातीय अध्ययन में पीएचडी और पोस्टडॉक्टरल फ़ेलोशिप प्राप्त डॉ. गुंंजन सिंह हाल ही में लद्दाख की यात्रा से लौटी हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ के लिए यह विशेष लेख लिखा है)