‘मैं यूक्रेन में अपनी दोस्त के लिए कोई अनोखा और कीमती तोहफा तलाश कर रही थी, तभी एक डॉक्यूमेंट्री के जरिए मुझे अरनमुला कन्नडी के बारे में पता चला। मैं अपना तोहफा तैयार कराने के लिए आपको एक ऑर्डर देना चाहती हूं।’ दुर्लभ धातु-मिश्रित दर्पण बनाने का काम करने वाले श्री पार्थसारथी हैंडीक्राफ्ट मिरर सेंटर में तीसरी पीढ़ी की कलाकार सुधाम्मल से जब मॉस्को से फोन पर किसी ने यह कहा, तो उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। हालांकि यह पहली बार नहीं था, जब उन्हें विदेश से कोई ऑर्डर मिल रहा था।
अरनमुला कन्नडी (शाब्दिक अर्थ - अरनमुला का दर्पण) केरल के पत्तनंतिट्टा जिला मुख्यालय के एक छोटे से शहर अरनमुला में बना एक हस्तनिर्मित धातु-मिश्रित धातु-दर्पण है। यह केरल का ऐसा पहला उत्पाद है, जिसे 2005 में जीआई यानी जियोग्राफिकल इंडीकेशन का टैग मिला था। ये खास और दुर्लभ दर्पण अरनमुला में रहने वाले विश्वकर्मा समुदाय के बेहतर ढंग से प्रशिक्षित पांरपरिक परिवारों के बहुत थोड़े से लोग करते हैं।
ये लोग पीढ़ियों से इसके लिए एक गुप्त धातु-मिश्रण फॉर्मूले का उपयोग करते रहे हैं। मांग के अनुसार, इनके हर दर्पण का आकार अलग होता है। इसलिए उसे बनाने में पर्याप्त समय लगता है और इसके लिए काफी कोशिश भी करनी होती है।
सामान्य कांच के दर्पणों में पीछे के प्रतिबिंब के विपरीत, इस दर्पण की विशिष्टता इसका सामने का प्रतिबिंब है। केरल में इस दर्पण का सांस्कृतिक महत्व भी है, क्योंकि इसे धार्मिक त्योहारों या शुभ अवसरों और समारोहों के दौरान प्रदर्शित की जाने वाली आठ शुभ वस्तुओं (अष्टमंगल्या) में से एक माना जाता है।
वैसे तो इस दर्पण को अपने संरक्षक के लिए समृद्धि, भाग्य और संपत्ति लाने वाला माना जाता है लेकिन यह बात इस कीमती दर्पण को तैयार करने वालों कलाकारों पर लागू नहीं होती। एक हस्तनिर्मित उत्पाद होने के चलते, अरनमुला कन्नडी को तैयार करना, पूरी तरह से श्रमसाध्य काम है।
मजदूरी बढ़ने के साथ ही इसमें लगने वाले कच्चे माल की कीमतें भी बढ़ने से इसके शिल्पकारों के लिए अपना जीवन चलाना मुश्किल हो गया है। केरल में 2018 और 2019 में आई बाढ़ और फिर उसके बाद कोरोना महामारी ने इस काम पर बहुत बुरा असर डाला है। बाढ़ ने उनकी उन वर्कशॉपों को पूरी तरह तबाह कर दिया, जिसमें उनका तैयार माल, कच्चा माल और सांचे रखे थे।
हालांकि बाढ़ के बाद उन्हें फिर से अपने घर बनाने के लिए तो सरकार की तरफ से कुछ आर्थिक मदद मिली लेकिन वर्कशॉपों को दोबारा बनाने और अपना काम फिर शुरू करने के लिए उन्हें कोई सरकारी समर्थन नहीं दिया गया।
सुधाम्मल बताती हैं, - ‘बाढ़ के पहले मेरे यहां तीन मजदूर काम करते थे लेकिन अब मैं अकेले सारा काम संभालती हूं क्योंकि मजदूरों को वेतन देने की अब मेरी हैसियत ही नहीं है।’
बाढ़ और कोरोना जैसी अप्रत्याशित वजहों से पिछले कुछ सालों में अरनमुला कन्नडी की बिक्री तेजी से कम हुई है। हालात और खराब न हो इसके लिए इसे बनाने वालों को सरकार द्वारा चलाए जाने वाले हैंडीक्राफ्ट डवलपमेंट कार्पोरेशन से बड़ी मदद की दरकार है। कार्पोरेशन से कोई मदद न मिलने के चलते कई शिल्पकारों ने उसे अपने उत्पाद बेचना बंद भी कर दिया है।
हालांकि शिल्पकारों ने आपस में समन्वय बनाने और अपने उत्पादों को सामूहिक रूप से बाजार में बेचने के लिए ‘विश्वकर्मा अरनमुला धातु-दर्पण निर्माण सोसाइटी’ बना रखी है। फिर भी, वे अपने लिए कच्चे माल को सब्सिडी पर पाने और काम के लिए सस्ती पूंजी जुटाने में सरकारी सहयोग जुटाने में नाकाम रहे हैं।
एमबीए कर शिल्पकार के रूप में काम कर रहे निरंजन के मुताबिक, ‘यह दर्पण बनाने में सबसे महत्वपूर्ण तत्व के रूप में ‘टिन’ नाम की जिस धातु का उपयोग होता है, उसे इन दिनों बाहर के देशों से आयात करना पड़ रहा है। जिसके चलते इसकी कीमत बढ़ गई है।’ निरंजन ने पारंपरिक शिल्प को बचाने के अपने जुनून के कारण दर्पण बनाने का पारिवारिक व्यवसाय अपनाया था।
अरनमुला दर्पण की विरासत को जिंदा रखने के लिए, और ज्यादा युवाओं को इस अद्वितीय शिल्प निर्माण को सीखना होगा। हालांकि निरंजन जैसे युवा शिल्पकारों का कहना है कि आर्थिक लाभ, वित्तीय सहायता, प्रोत्साहन और मान्यता की कमी के कारण कोई भी युवा इस पारंपरिक काम को नौकरी की तरह करने को तैयार नहीं है।
यह खराब हालत केवल अरनमुला कन्नडी की ही नहीं है बल्कि केरल की दूसरी उत्कृष्ट कलाओं जैसे नेट्टोर पेट्टी, चुंदन वल्लम और पाय्यन पवित्र मोथिरम का भी यही हाल है। ये सभी विलुप्त होने के कगार पर हैं।
इन शिल्पकारों के लिए यह गर्व और खुशी की बात हो सकती है कि दोनों देशों बीच चल रहे युद्ध के दौर में रूस से कोई यूक्रेन में अपनी दोस्त को प्यार और शांति का तोहफा देने के लिए अरनमुला दर्पण को चुने। हालांकि अगर कोई उनसे पूछे कि ये दुर्लभ कला और उस पर निर्भर उनका व्यवसाय कब तक चलेगा, तो उनके चेहरे पर एक दर्द भरी मुस्कान उभर आती है।
इन कुशल कारीगरों के हाथों में यह शिल्प सुरक्षित तो है, लेकिन उनका खुद का अस्तित्व सरकार द्वारा बनाई जाने वाली नीतियों और उसके समर्थन पर निर्भर करता है। यदि विश्वकर्मा कारीगरों जैसे इन कुशल शिल्पकारों का इस पारंपरिक व्यवसाय से छिटकना जारी रहता है, तो कभी उत्कृष्ट और प्रसिद्ध रही केरल की यह दुर्लभ कला धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाएगी।
लेखक इंस्टीटयूट ऑफ सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बेगलुरू से जुड़े हैं