कार्ल मार्क्स: पर्यावरण पर कही गई उनकी बातें, आज भी काम की हैं

पर्यावरण पर कार्ल मार्क्स के यादगार बयानों का एक संक्षिप्त संकलन
Illustration: Tarique Aziz
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विश्व आज कार्ल मार्क्स का 204वां जन्मदिन मना रहा है, हालांकि दिलचस्प यह है कि ऐसा करते हुए उसका मूड उत्सव वाला होते हुए भी असामान्य है। दरअसल पर्यावरण और पूंजीवाद की रेखा पर गहरे ध्रुवीकरण के समकालीन संदर्भ ने मार्क्स की पर्यावरण-विरोधी सिद्धांतवादी के रूप में बहुचर्चित धारणा में एक नया आयाम जोड़ा है।

पर्यावरण के मुद्दों पर उनकी समझ को लेकर काफी कुछ लिखा गया है। ब्रिटिश पर्यावरण पत्रिका, इकोलॉजिस्ट ने उनके बारे में लिखा है: ‘ ‘पर्यावरणविदों ने मार्क्स में तो खूबियों को पाया, लेकिन उनके पारिस्थितिकी के विश्लेषण में नहीं।’

पर्यावरण पर किए गए उनके अवलोकन के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर बात करते हैं।

  • ‘किसान, औद्योगिक पूंजीपति और खेतिहर मजदूर जिस जमीन का दोहन करते हैं, उससे वे उस तरह से बंधे नहीं हैं जिस तरह से कपास और ऊन के लिए कारखानों में नियोक्ता और श्रमिक उस उत्पाद से जुड़े हैं, जिसका वे निर्माण करते हैं। वे केवल अपने उत्पादन की कीमत और मौद्रिक उत्पाद के प्रति लगाव महसूस करते हैं।’
  • - ‘प्रकृति मनुष्य का अजैविक शरीर है, ऐसा कहा जाता है। यानी कि प्रकृति वहां तक भी है, जहां तक मानव शरीर नहीं है। मनुष्य प्रकृति से जीता है, अर्थात प्रकृति उसका शरीर है, और यदि उसे मरना नहीं है तो उसे इसके साथ निरंतर संवाद बनाए रखना चाहिए। जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य का शारीरिक और मानसिक जीवन प्रकृति से जुड़ा हुआ है, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि प्रकृति स्वयं से जुड़ी हुई है, क्योंकि मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है।’
  • - ‘मछली का ‘मूलतत्व’ उसके ‘पानी’ होने में है। इसी तरह ताजे पानी में रहने वाली मछली का ‘मूलतत्व’ उसके ‘नदी का पानी’ होने में है। हालांकि ‘नदी का पानी’ मछली के अस्तित्व के लिए शायद तब लंबे समय तक उपयुक्त नहीं रहता। दरअसल जैसे ही नदी को उद्योग की सेवा के लिए बनाया जाता है, जैसे ही यह रंगों और अन्य अपशिष्ट उत्पादों द्वारा प्रदूषित होती है और इसके पानी का दिशा-निर्देशन, स्टीमर द्वारा तय किया जाता है, यह अस्तित्व के लिए उपयुक्त माध्यम नहीं रह जाती। ऐसे ही जैसे ही इसका पानी नहरों में भेजा जाता है, तो वहां साधारण जल निकासी मछली को उसके अस्तित्व के माध्यम से वंचित कर सकती है।’
  • - ‘हम पहले से मानकर चलते हैं कि श्रम, जिस रूप में है, उसमें यह विशेष रूप से एक मानवीय विशेषता है। एक मकड़ी ऐसे जाले बुनती है, जो किसी बुनकर का काम लगें। एक मधुमक्खी अपने छत्ते को इस तरह से बनाती है कि उसे देखकर शिल्पकार शरमा जाएं। लेकिन सबसे बुरे शिल्पकार को भी सबसे बेहतर मधुमक्खी से जो बात अलग करती है, वह यह कि एक शिल्पकार, धरातल पर कुछ करने से पहले उसका खाका अपने दिमाग में तैयार करता है।’
  • - ‘ लंदन में वे यानी नीति-नियंता इससे बेहतर कुछ नहीं कर ही नहीं सकते कि 45 लाख लोगों के मलमूत्र को काफी पैसा खर्च कर पर टेम्स नदी में मिलने दें।’
  • - ‘एक पाउंड कोयले और लकड़ी का जलना, न केवल हवा में ऐसे तत्वों को दोबारा जन्म दे सकता है जो लकड़ी और कुछ स्थितियों में कोयले के पुर्नउत्पादन में सक्षम हों, बल्कि इन दोनों के दहन की प्रक्रिया हवा में ऐसी नाइट्रोजन को घोलती है ब्रेड और मांस के उत्पादन में काम आती है।’
  • - ‘कोई एक समाज, एक देश या एक साथ अस्तित्व रखने वाले कई समाज साथ आकर भी इस धरती के मालिक नहीं हो सकते। वे केवल इस पर कब्जा जमाने वाले, इसका फायदा उठाने वाले हैं और उन्हें वसीयत में इस धरती को विकसित हालत में आने वाली पीढ़ियों को सौंपना है।’
  • - ‘भूमि पर लागू, सहयोग अब एक तर्कसंगत आधार पर खुद को पुनः स्थापित करता है, क्योंकि अब दासप्रथा, जमीन पर अधिपात्य और निजी संपत्ति के मूर्खतापूर्ण रहस्यवाद द्वारा धरती के साथ तादातम्य नहीं बनाया जा सकता।’

कहा जाता है कि जब वैज्ञानिकों ने मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन पर सिद्धांत बनाना शुरू किया, उस समय मार्क्स केवल 16 साल के थे। उनके लेखन ने हमेशा मानव समाज के प्रकृति से दूर होने के खतरों पर जोर दिया। यह ठीक वैसा ही था, जैसा आज हो रहा है।

( नोट: उपरोक्त उद्धरण इतिहासकारों द्वारा विभिन्न प्रकाशित पत्रों और मार्क्स के कुछ निबंधों से भी लिए गए हैं )

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