खनन प्रभावित क्षेत्रों में रहने वालों के हितों की रक्षा के लिए जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) ट्रस्ट स्थापित किए गए। डीएमएफ में अब तक लगभग 36,000 करोड़ रुपए एकत्र किए गए हैं। डीएमएफ ट्रस्ट देश भर के 21 राज्यों के 571 जिलों में स्थापित किए गए हैं। क्या डीएमएफ का पैसा सही से खर्च किया जा रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इसकी पड़ताल की, इस पड़ताल के आधार पर डाउन टू अर्थ ने रिपोर्ट्स की एक सीरीज शुरू की। इसकी पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि डीएमएफ से दूर होगी खनन प्रभाावितों की गरीबी । पढ़ें, अगली कड़ी-
जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) की स्थापना खदान और खनिज (विकास और नियामक) एमेंडमेंट एक्ट (एमएमडीआर एमेंडमेंट एक्ट) के तहत गैर लाभकारी ट्रस्ट के रूप में देश के हर खनन वाले जिलों में हुई थी। इसका एक स्पष्ट मकसद है, उन लोगों और इलाकों के हित और लाभ के लिए काम करना जहां खनन कार्यों को वजह से प्रभाव पड़ता हो।
यह राशि कितना भी समय बीतने के बाद भी बिना नियमों की बाधा के उपयोग के लायक बनी रहती है। देश भर में पिछले पांच साल से अधिक समय में डीएमएफ की राशि 36,000 करोड़ तक पहुंच गई है। इस कोष की विशालता इस तथ्य के साथ समझी जा सकती है कि राशि का 73 प्रतिशत यानि ₹26,000 करोड़ में सिर्फ पांच राज्य ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान की भागीदारी है।
इसका चौथाई हिस्सा सिर्फ ओडिशा से है जहां लौह अयस्क के बड़े खदान हैं। डीएमएफ कोष का निर्माण खनन कंपनी से वसूले गए रॉयल्टी के एक हिस्से से होता है। यह हिस्सा 2015 के पहले के लीज पर 30 प्रतिशत और बाद के लीज पर 10 प्रतिशत है।
एमएमडीआर एमेंडमेंट एक्ट में डीएमएफ को पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 (पेसा), वन अधिकार कानून 2006 और संविधान के 5वीं और छठी अनुसूची से जोड़ने का प्रावधान है। इससे डीएमएफ की राशि के इस्तेमाल में निर्णय लेने, योजना बनाने और उसकी निगरानी करने में लोगों की सहभागिता सुनिश्चित की गई है।
इस तरह के प्रावधान और बड़े कोष की वजह से डीएमएफ खनन से प्रभावित क्षेत्र और समाज में बड़े पैमाने पर सुधार करने में सक्षम है और इससे समाज द्वारा संचालित स्वशासी व्यवस्था को भी मजबूती मिलती है। लेकिन, क्या असल में डीएमएफ अपनी क्षमता और लक्ष्य के मुताबिक काम कर रहा है?
वित्तीय लेखाजोखा पर एक नजर
कोयले के अलावा लौह अयस्क, बॉक्साइट, चूना पत्थर जैसे खनिज 48 प्रतिशत तक डीएमएफ में योगदान देते हैं। इसकी बड़ी वजह ओडिशा के क्योंझर और सुंदरगढ़, झारखंड के पश्चिमी सिंघभूम के बड़े लौह अयस्क के खदान हैं। क्योंझर जिला डीएमएफ में ₹4000 करोड़ इकट्ठा करने वाला देश भर में एक बड़ा जिला है। कोयला खनन वाले जिलों का प्रतिशत 42 है। देशभर के जिलों में ₹ 30,000 करोड़ का प्रावधान विभिन्न विकास कार्यों के लिए किया गया है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने डीएमएफ के क्रियान्वयन पर 13 जिलों को केंद्र में रखकर अपनी एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें इसके द्वारा किए गए खर्च की दिशा देखी गई है। इस रिपोर्ट का शीर्षक "जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ): लागू होने की स्थिति और अच्छे कार्य" है। इसके मुताबिक डीएमएफ का ज्यादातर पैसा ढांचागत (इंफ्रास्ट्रक्चर) विकास पर खर्च किया गया।
दरअसल, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों ने ढांचागत विकास पर 55 प्रतिशत की राशि खर्च की, जो कि प्रधानमंत्री खनिज क्षेत्र कल्याण योजना के निर्देशों का सीधा-सीधा उल्लंघन है। इस योजना का निर्देश है कि डीएमएफ के 40 फीसदी तक का इस्तेमाल ही ढांचागत विकास, ऊर्जा और जल संरक्षण और सिंचाई के लिए किया जा सकता है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि अधिकतर राज्यों ने पेयजल सुविधा को उच्च प्राथमिकता दी। झारखंड ने इसके लिए सबसे अधिक पैसे जारी किए। झारखंड सरकार ने निश्चय किया था कि पहले तीन साल इन पैसों का उपयोग पेयजल की आपूर्ति और सफाई के लिए किया जाएगा। यह राशि डीएमएफ फंड का 77 प्रतिशत है। एक और राज्य उत्तरप्रदेश ने पेयजल के लिए करीब 45 प्रतिशत राशि का प्रावधान किया है।
इसके अलावा स्वास्थ्य और शिक्षा पर डीएमएफ का ज्यादा पैसा खर्च किया गया। लेकिन इस पैसे से बड़े अस्पतालों के भवन और स्कूल के क्लासरूम बनाए गए। इस रिपोर्ट में यह तथ्य को भी सामने आया कि कुछ खर्च पोषण और आमदनी बढ़ाने जैसे उपायों पर हुए हैं, लेकिन वे बिल्कुल नए हैं। अधिकतर खर्च निर्माण संबंधी गतिविधियों पर ही केंद्रित हैं।
दायित्वों से दूर भागते राज्य
राज्यों की समीक्षा से सामने आया कि डीएमएफ का पैसा खर्च तो किया जा रहा है, लेकिन कुछ मूलभूत दायित्वों की पूर्ति अभी भी नहीं हो रही।इस फंड के खर्च में प्रभावित इलाकों के लोगों की भागीदारी काफी कम है। इस योजना को निगरानी करने वाली संस्था में सांसद, विधायक और जिले के अधिकारी ही ज्यादातर शामिल होते हैं। छत्तीसगढ़ एकलौता राज्य है, जहां ग्राम सभा का सदस्य अगस्त 2019 में कानून में बदलाव की वजह से इस निगरानी तंत्र का हिस्सा होता है।
डीएमएफ एक गौर लाभकारी ट्रस्ट होता है और इसमें खनन से प्रभावित लोगों या इसके असल हितग्राही की पहचान स्पष्ट होनी चाहिए। प्रधानमंत्री खनिज क्षेत्र कल्याण योजना में भी यही कहा गया है। हालांकि, किसी भी जिले ने इसके असल हितग्राही की पहचान नहीं की है।
सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक विस्थापित हुए लोग, जिनका खनन की वजह से रोजगार छिन गया या वो लोग जिन्हें किसी विशेष मदद की जरूरत हो सकती है को हितग्राही के तौर पर पहचान की जानी चाहिए थी, लेकिन यह पहचान नहीं की गई। यह तब हुआ जब प्रधानमंत्री खनिज क्षेत्र कल्याण योजना में इसके लिए साफ निर्देश हैं।
खनन से सीधे तौर पर प्रभावित क्षेत्रों का परिसीमन भी अंदाजे से किया गया है, इसके लिए किसी पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया गया। रिपोर्ट बताती है कि ओडिशा के सभी जिलों ने सीधे प्रभावित क्षेत्र के रूप में 10 किलोमीटर के दायरे को प्रभावित मान लिया है, जबकि राजस्थान में, पूरे जिलों को सीधे प्रभावित माना जा रहा है।
योजना के लिहाज से खस्ताहाल डीएमएफ
मझौले और बड़े स्तर की योजना के निर्देशों के बावजूद ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के किसी भी जिले में आगे की कोई योजना नहीं बनी है। रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि जन भागीदारी से बना जवाबदेह तंत्र भी कमजोर है। वित्तीय ऑडिट के अलावा और किसी भी तरह की निगरानी जैसे सामाजिक या प्रदर्शन के आधार पर डीएमएफ का ऑडिट नहीं होता है।
छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्य ने ऐसे प्रावधान जरूर किए हैं, लेकिन इसका पालन नहीं हो रहा है। दूसरे राज्य में ऐसे प्रावधानों की भी कमी है। डीएमएफ के बारे में बुनियादी प्रावधानों को छोड़कर और कोई भी जानकारी जनता के समक्ष नहीं है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि रामगढ़ और क्योंझर मात्र ऐसे दो जिले हैं, जहां डीएमएफ के प्रावधान, उसकी समिति और ऑडिट रिपोर्ट की जानकारी उनकी वेबसाइट पर दी गई है।
प्रधानमंत्री खनन क्षेत्र कल्याण योजना के निर्देशों में कहा गया है कि डीएमएफ की एक वेबसाइट होनी चाहिए, जिसमें समितियों, खनन से प्रभावित इलाकों और लोगों की जानकारी, डीएमएफ की योजना, बजट, प्रावधान और कार्य की प्रगति, बैठकों के मिनट्स और एक्शन रिपोर्ट के साथ इसमें आ रही बाधाओं की जानकारी भी देनी है। ऐसा न होने की स्थिति में यह निर्देशों का उल्लंघन है।
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