भारत की गरीबी: सुरजीत भल्ला की कल्पनाओं का कोई अंत नहीं

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) के कार्यकारी निदेशक भल्ला ने ऐलान किया है कि मोदी सरकार द्वारा मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने के चलते, भारत 2020 में अत्यधिक गरीबी दूर करने के करीब पहुंच गया था और असामनता पिछले 40 सालों में अपने न्यूनतम स्तर पर थी। वह जिस दिन यह कह रहे है, वह दिन अप्रैल-फूल बनाने का नहीं है।
आईएमएफ के एक नए पेपर में कहा गया है कि 2020 में भारत में अत्याधिक गरीबी का स्तर लगभग खत्म हो गया था। फोटो: विकास चौधरी
आईएमएफ के एक नए पेपर में कहा गया है कि 2020 में भारत में अत्याधिक गरीबी का स्तर लगभग खत्म हो गया था। फोटो: विकास चौधरी
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सुरजीत भल्ला, उबाऊ और भावशून्य अर्थशास्त्र को भी अपनी कल्पनाओं से चौंकाने वाला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। नए लोगों के लिए वह ऐसे जाने-माने अर्थशास्त्री हैं, जो चीजों को लेकर लोगों से अलग सोच रखते है, जो मोदी-समर्थक हैं, जो ऐसे कुत्ते की तलाश में रहते हैं, जो भौंकता नहीं और जो गरीबी के आंकड़ों से सिर्फ इसलिए छेड़छाड़ करते हैं ताकि मनचाहे नतीजे निकाल सकें। 

आधिकारिक तौर पर वह अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) में भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान जैसे देशों के लिए कार्यकारी निदेशक हैं। वह कुछ समय के लिए देश के प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकर परिषद के सदस्य भी रहे थे, जिस पद से उन्होंने दिसंबर 2018 में इस्तीफा दे दिया था।

उनका ताजा पेपर (दस्तावेज) 'पेंडामिक पॉवर्टी एंड इनइक्वालिटी: एविडेंस फ्रॉम इंडिया' शीर्षक से आईएमएफ की वेबसाइट पर ‘ आईएमएफ वर्किंग पेपर’ सेक्शन में प्रकाशित किया गया है।
 
इस तरह के पेपर, आमतौर पर लोगों की टिप्पणियों और चर्चाओं को हासिल करने के लिए जाने जाते हैं। जैसा कि आईएमएफ ने दोहराया है कि इस पत्र में व्यक्त विचार ‘जरूरी नहीं कि आईएमएफ, इसके कार्यकारी बोर्ड या आईएमएफ प्रबंधन के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हों।’

इस पेपर के सहयोगी लेखक करण भसीन और अरविंद विरमानी है। इस पेपर के बारे में दावा किया गया है कि यह ‘भारत में गरीबी पर (और शायद दुनिया में कहीं और भी ?) किसी तरह के खाद्य-हस्तांतरण और सब्सिडी के स्पष्ट प्रभाव को मापने वाला अपनी तरह का पहला दस्तावेज है।
 
इसमें जांच की गई है कि राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम 2012 और महामारी-विशिष्ट राहत कार्यक्रम के तहत प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना ने महामारी के दौरान अत्यधिक (एक्सट्रीम) गरीबी और असमानता के स्तर को किस तरह कम किया है। दस्तावेज के दावे एक तरह से राष्ट्रीय उत्सव का आह्वान करते लगते हैं।

पेपर यह स्थापित करता है कि - ‘महामारी से पहले के साल यानी 2019 में भारत में अत्यधिक गरीबी 0.8 फीसदी की हद तक कम हो गई थी। उसके बाद खाद्य-हस्तांतरण जैसी योजना ने यह सुनिश्चित करने में महती भूमिका निभाई कि यह दर महामारी वाले साल यानी 2020 में भी उसी स्तर पर बनी रहे। इसमें आगे कहा गया कि भारत में 2019 में अत्यधिक गरीबी (क्रय शक्ति समता (परचेजिंग पावर पैरिटी) 1.9 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम) 1 फीसदी से भी कम थी और यह महामारी वर्ष 2020 के दौरान भी उसी स्तर पर बनी रही।

इस पेपर के मुताबिक, भारत में अत्यधिक गरीबी पिछले तीन सालो में एक फीसदी के बराबर या उससे कम थी। इसमें दावा किया गया है - ‘महामारी के साल यानी 2020-21 में भारत में अत्यधिक गरीबी अपने न्यूनतम स्तर 0.8 फीसदी पर थी। यही नहीं, महामारी से पहले, देश अत्यधिक गरीबी दूर करने के बिल्कुल करीब पहुंच चुका था।

केवल अत्यधिक गरीबी ही नहीं, असमानता को मापने वाले गिनी गुणांक के हिसाब से असामनता भी चालीस सालों के न्यूनतम स्तर तक पहुंच गई थी। इसकी वजह महामारी-काल के दौरान सरकार द्वारा शुरू की गई खाद्य सब्सिडी थी। इस पेपर के लेखकों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है -‘कई दशकों में पहली बार दुनिया में अत्यधिक गरीबी महामारी वर्ष 2020 में बढ़ी है।’

इन नतीजों के आधार पर भारत शायद एकमात्र ऐसा देश के रूप में उभर कर सामने आया है, जिसने हमेशा गरीबों की एक उच्च संख्या वाले देश के रूप में गिने जाने के बावजूद गरीबी नहीं बढ़ाई है। गौरतलब है कि भारत ने पिछले एक दशक में अपने गरीबी के स्तर को मापा नहीं है।

फिर किन नतीजों के आधार पर सुरजीत इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं ? वह और उनके साथी लेखक इसे इस तरह से व्याख्यायित करते हैं कि सामान्य घरेलू उपभोग से जुड़े खर्च वाले सर्वेक्षण गरीबी दर को कम करके आंकते हैं, उसमें ऊपर बताए गए दो सरकारी कार्यक्रमों से मिलने वाले ‘दूसरी तरह के फायदों’ को शामिल नहीं किया जाता। इसके पीछे इन लेखकों की यह मान्यता है कि खाद्य सब्सिडी वाले अनाजों से लोगों के उपभोग से जुड़े खर्च बिना अपवाद के कम हो जाते हैं।

इस तरह, एक ‘विश्वसनीय’ गरीबी के अनुमान तक पहुंचने के लिए, इन अर्थशास्त्रियों ने सब्सिडी वाले खाद्यान्न का मुद्रीकरण किया और इसे सरल शब्दों में कहें तो सब्सिडी वाले अनाज को लोगों की आय में जोड़ दिया।
 
सुरजीत और उनकी टीम ने ‘दूसरी तरह के फायदों’ की नकदी हस्तातरंण के तौर पर कल्पना की है। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? अगर यह मानकर चलें कि गरीब परिवार हमेशा उस अनाज को खुले बाजार में बेच देते हैं, जो उन्हें सरकारी कार्यक्रमों से सब्सिडी के रूप में मिलता है, तो सुरजीत की यह कल्पना तार्किक लगती है।’
 
हालांकि यह एक धारणा के रूप में कल्पना की भी अवहेलना करता है और इस धारणा के आधार पर भारत में अत्यधिक गरीबी को खत्म करने का ऐलान करना केवल एक सुव्यवस्थित पागलपन है।

खाद्य- अनाज कार्यक्रमों के प्रभाव और गरीबी के स्तर की जांच करने के लिए इस लेखक ने फरवरी में ओडिशा और छत्तीसगढ़ के तीस गांवों की यात्रा की। इस तथ्य को पूरी दुनिया में माना गया है कि कम दामों में अनाज की उपलब्धता ने अत्यधिक भूख जैसे हालात से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महामारी के दौरान भी उनसे लोगों का मदद मिली। फिर भी ज्यादातर समुदाय यह मानते हैं कि इससे उनकी गरीबी के स्तर पर कोई असर नहीं पड़ा

घरेलू स्तर पर, सब्सिडी वाले खाद्यान्न ने लोगों को खाद्य जरूरतों को पूरा करने में सक्षम बनाया है, लेकिन उनकी आमदनी की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है, खासकर महामारी के समय में तो ऐसा ही था। वैसे भी गरीबी मापने का पैमाना केवल भूख ही नहीं है।
 
अजीब बात यह है कि सुरजीत पहले खाद्य- सब्सिडी और कम दामों में अनाज वितरण जैसी योजनाओं के खिलाफ रहे हैं। उन्होनें राशन कार्ड के वितरण का प्रचार किया था और एक समय तो वह सार्वभौमिक आय के समर्थन में थे। कई मौकों पर उन्होंने तर्क दिया था - ‘ सरकार से मिलने वाले पैसों से कोई आदमी ब्रेड खरीदता है या ब्रोकली, इससे सरकार को कोई मतलब नहीं होना चाहिए।’

पिछले आम चुनाव के दौरान 2019 में उन्होंने कहा था - ‘आने वाली सरकार को कारपोरेट टैक्स में पांच फीसदी की कटौती करनी चाहिए, लोगों को पैसा देने वाली योजनाओं का विस्तार करना चाहिए और आने वाले पांच सालो में एमएसपी को खत्म कर देना चाहिए। सरकार का खेती में कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। ’  

खाद्य-सुरक्षा कानून को लेकर उनका विरोध जगजाहिर है। मनरेगा को लेकर उनकी अवहेलना भी सब जानते हैं। 2015 में उन्होंने अनुमान लगाया था कि - ‘ 2011-12 में किसी गरीब को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गरीबी से उबारने में 24,076 रुपये खर्च होते थे जबकि इसी काम के लिए मनरेगा में 40,477 रुपए लगते थे।’

अब इस दस्तावेज के जरिए वह सरकार के खाद्य-सब्सिडी कामों का महिमामंडन कर रहे हैं और बता रहे हैं कि महामारी के साल इसने देश को कैसे गरीबी से मुक्त रखा। ऐसे में उनसे यह सवाल पूछना तो बनता ही है - ‘व्हाई दिस कोलावरी डी ? 

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