विजुअल स्टडीज, स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वाईएस अलोने ने डाउन टू अर्थ को बताया, ‘ पुराने और नए अशोक स्तम्भ में कोई तुलना ही नहीं है। मूल रचना में जो गौरव और भव्यता है, वह बिल्कुल अद्भुत है। नया अशोक स्तम्भ मूर्ति कला की भाषा में बीसवीं सदी की रचना ज्यादा नजर आता है।’
मूल भाव के रूप में शेर
प्राकृतिक इतिहासकारों ने डाउन टू अर्थ को इस बारे में बताया कि प्राचीन भारत के छवि-चित्रण में शेर का इतना महत्व क्यों था।
महेश रंगराजन ने अपने पेपर ‘रियासत के प्रतीक से लेकर संरक्षण चिन्ह तकः भारत में शेर का एक राजनीतिक इतिहास’ में दर्ज किया है - भारत में मानव- कल्पना पर अपनी शक्ति में शेर का प्रतिद्वंद्वी शायद केवल बाघ था।’
उन्होंने कहा कि अशोक स्तम्भ, उन स्तम्भों में से एक है, जो मौर्य काल से जुड़े हैं। प्राचीन काल में स्रामाज्यवादी राजशाही से जुड़े जानवरों में हाथी, शेर, सांड और घोड़े शामिल हैं।
वह आगे कहते हैं, - इतिहासकार उपिंदर सिंह के प्राचीन राजशाही के काम में हाथी ऐसा जानवर है, जिसका प्रतीक के तौर पर व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है, फिर भी निश्चित तौर पर शेर बहुत महत्वपूर्ण है।
राजसी गौरव के साथ शेर का जुड़ाव पुराना है।
रंगराजन ने कहा, ‘बुद्ध का एक नाम ‘ शाक्य सिम्हा’ है, जिसका अर्थ है - शाक्यों का शेर। सारनाथ में बुद्ध के पहले उपदेश को सिम्हानाद यानी सिंह के गरजने के नाम से जाना जाता है। यानी कि हमारी कल्पना में शेर की जड़ें गहरी हैं।’
उन्होंने बताया कि ये जड़ें केवल पाली भाषा में ही नहीं बल्कि संस्कृत, अरबी, फारसी और तमिल में भी थीं। इन सभी भाषाओं के साहित्य में शेर बहुत महत्वपूर्ण है।
भारत में शेरों के ऊपर ‘ द स्टोरी ऑफ एशियाज लायंस’ लिखने वाले दिव्यभानुसिंह चावदा ने बताया कि प्राचीन भारत के छवि-चित्रण में बाघ की बजाय शेर इतना महत्वपूर्ण क्यों था।
उनके मुताबिक, ‘शेर घास के मैदानों और झाड़ियों के जंगलों का निवासी है। यह एक मिलनसार जानवर है जो प्राइड्स नाम के समूहों में रहता है। यह इंसानों के द्वारा आसानी से देखा जा सकता है।’
दिखाई देने के चलते ही इसे चौपायों जानवरों का राजा और जमीन के शासक के बराबर माना जाता था। चावदा कहते हैं- ‘ संस्कृत में शेर के लिए मृगराज, मृगेंद्र और मृगदीप जैसे शब्द हैं।’
संविधान सभा की बहसों में राष्ट्रीय प्रतीक के तौर अशोक स्तम्भ का वर्णन किया गया था।
हालांकि आधिकारिक तौर पर संविधान ने इसे उस तरह से कभी राष्ट्रीय प्रतीक का दर्जा नहीं दिया, जिस तरह से तिरंगे को दिया गया है, तिरंगे को संविधान सभा में काफी विस्तृत समीक्षा के बाद अपनाया गया था।