इलेस्ट्रेशन : योगेंद्र आनंद
इलेस्ट्रेशन : योगेंद्र आनंद

क्या विकास के सिद्धांत से परे जा चुका है मानव?

अब मनुष्य खुद तय कर रहा है कि उसे जीवित रहना है या नहीं और किस रूप में विकास करना है
Published on

क्या हमारा समाज प्रकृति से कटता जा रहा है? यह बात मानव प्रजाति के लिए सच प्रतीत हो रही है। लेकिन सवाल यह है कि जिस प्रकृति से हमने विकास किया, हम उससे किस हद तक कटे हैं? पहली नजर में यह एक दार्शनिक प्रश्न लगता है। फिर भी, यदि इसकी माप हो तो कौन-सा तरीका इस्तेमाल किया जाए?

यूनिवर्सिटी ऑफ डर्बी, यूके के स्कूल ऑफ साइकोलॉजी में नेचर कनेक्टेडनेस (प्रकृति से जुड़ाव) के अध्ययन में लगे प्रोफेसर माइल्स रिचर्डसन ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने मनुष्यों और प्रकृति के बीच घटते संबंध को मापने की कोशिश की है। उनके निष्कर्ष बताते हैं कि 1800 से अब तक यानी सवा दो सौ सालों में मानव का प्रकृति से जुड़ाव 60 प्रतिशत तक घट चुका है।

रिचर्डसन ने एक मॉडल का इस्तेमाल किया जो लोगों की पर्यावरण से घनिष्ठता को परिभाषित करता है। उन्होंने कहा, “यह एक्सटिंक्शन ऑफ एक्सपीरियंस  यानी अनुभव के विलुप्त होने की धारणा पर आधारित है। इसका मतलब है कि जब लोग प्रकृति से दूर होते हैं तो उनका उससे जुड़ाव कम होता है और यह कमी अगली पीढ़ी में भी पहुंच जाती है।”

उन्होंने इस जुड़ाव को शब्दों के प्रयोग के आधार पर आंका। यह देखा कि आज हम प्रकृति से जुड़े शब्द कितनी बार इस्तेमाल करते हैं और पीढ़ियों से यह कितना बदला है। चूंकि 1800 के दशक में सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं थे, इसलिए उन्होंने सांस्कृतिक स्रोतों का सहारा लिया। इसके लिए उन्होंने नदी और फूल जैसे प्रकृति से जुड़े शब्दों के पुस्तकों में प्रयोग की आवृत्ति को संकेतक के रूप में लिया।

उन्होंने कहा, “जब इनके प्रयोग को समय के साथ देखा जाता है तो करीब 60 प्रतिशत की स्पष्ट गिरावट नजर आती है। खासकर 1850 से जब औद्योगिकीकरण और शहरीकरण तेजी से बढ़ने लगा।” उनके अनुसार, “यह शहरीकरण, पीढ़ीगत बदलाव और हमारे जीवन से रोजमर्रा की प्रकृति के चुपचाप मिटने की कहानी है।”

लेकिन प्रकृति से “अनुभव की विलुप्ति” की इस कहानी के समानांतर एक किस्सा और भी है। यह किस्सा है इंसान का प्रकृति पर उपनिवेश जमाना, उसे नियंत्रित करना और ग्रह पर असंतुलन लाने वाली शक्तियां थोपना जो पहले कभी नहीं हुआ।

सन 2020 में इजरायल के वीजमैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि मानव-निर्मित वस्तुएं (कचरे को छोड़कर) अब धरती पर सभी जीवित प्राणियों के कुल भार से अधिक हो चुकी हैं। और यह लगातार बढ़ रहा है। हर हफ्ते इतनी नई मानव-निर्मित वस्तुएं बनाई जाती हैं जिनका कुल भार 7.7 अरब लोगों के शरीर के वजन के बराबर है।

अध्ययन के सह-लेखक रॉन मिलो कहते हैं, “हम अब यह बहाना नहीं बना सकते कि हम अनकों में सिर्फ एक छोटी-सी प्रजाति भर हैं। हमारी मौजूदगी ग्रह पर असहनीय बोझ बन चुकी है और हम धरती की प्राकृतिक व्यवस्था पर पूरी तरह हावी हो चुके हैं।”

स्पष्ट है कि छठे सामूहिक विलुप्तिकरण का कारण मनुष्य ही हैं। साथ ही जलवायु में प्राकृतिक रूप से नहीं बल्कि पहली बार किसी प्रजाति द्वारा बदलाव भी इंसानों ने ही किया है।

विकासवाद एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें परिस्थिति, अस्तित्व की जरूरतें और संयोग, सब मिलकर अनुकूलन और जैविक विकास को आगे बढ़ाते हैं। मनुष्य भी इसी प्रक्रिया का परिणाम है। लेकिन किसी भी प्रजाति ने कम-से-कम दर्ज इतिहास में ग्रह पर इतना गहरा प्रभाव नहीं डाला।

कई लोग मानते हैं कि मनुष्य अब प्राकृतिक विकासवादी सिद्दांतों से परे हो चुका है। उसने अपनी नियति तय करने की ताकत प्राकृतिक दुनिया से छीन ली है।

प्रख्यात विकासवादी जीवविज्ञानी स्टीफन जे गोल्ड ने अपने निबंध द स्पाइस ऑफ लाइफ में लिखा था, “प्राकृतिक वरण अब लगभग अप्रासंगिक हो चुका है। इंसानों में पिछले 40,000 या 50,000 वर्षों से कोई जैविक परिवर्तन नहीं हुआ है। हम जिस्म और दिमाग से वही हैं। हमने इन्हीं के सहारे सभ्यता और संस्कृति खड़ी की है।”

यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि मनुष्य ने वैज्ञानिक आविष्कारों और संगठित प्रयासों से बीमारियों जैसे सामूहिक हत्यारों/ शिकारियों को लगभग मात दे दी है। मानो अब “योग्यतम की उत्तरजीविता” (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) का नियम हमारे लिए लागू नहीं होता। अब मनुष्य खुद तय कर रहा है कि जीवित रहना है या नहीं और किस रूप में विकास करना है।

अब हम स्वयं को केवल तभी मिटा सकते हैं, जब प्रजनन ही बंद कर दें। दूसरे शब्दों में, अब यह योग्यतम की उत्तरजीविता  नहीं रही, बल्कि योग्यतम का यह फैसला है कि वह प्राकृतिक दुनिया से बाहर जहां प्रजनन केवल नस्ल को बनाए रखने का एक माध्यम भर है, वहां जीवित रहना चाहता है या नहीं। 

Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in