भारत की आधी आबादी के पास कामचलाऊ पूंजी भी नहीं

असमानता, लोकतंत्र पर आघात करती है। यही वजह है कि सरकारों को हस्तक्षेप कर इस पर अंकुश लगाने और इस ट्रेंड को बदलने की जरूरत है। विश्व असमानता रिपोर्ट, 2022 के प्रमुख संपादक लुकास चांसेल से इस विषय पर रिचर्ड महापात्रा ने बात की
भारत में आर्थिक-वृद्धि पूरी तरह से असमान रही है। फोटो: विकास चौधरी
भारत में आर्थिक-वृद्धि पूरी तरह से असमान रही है। फोटो: विकास चौधरी
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पेरिस स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स की विश्व असमानता प्रयोगशाला के सह-निदेशक और विश्व असमानता रिपोर्ट, 2022 के प्रमुख संपादक लुकास चांसेल के मुताबिक, औसत आर्थिक वृद्धि, वितरण में असमानता को छिपा देती है। डाउन टू अर्थ से उनकी बातचीत के मुख्य अंश:

रिचर्ड महापात्रा: भारत की आर्थिक - वृद्धि की यात्रा में असमानता का क्या स्तर रहा है ?
लुकास चांसेल: भारत में आर्थिक-वृद्धि पूरी तरह से असमान रही है। उदारीकरण और मुक्त बाजार ने पूंजी के निर्माण, आर्थिक-वृद्धि और कुछ हद तक गरीबी कम करने की दिशा में काम किया। हालांकि औसत आर्थिक वृद्धि, वितरण में असमानता को छिपा देती है। यहां पूंजी का वितरण बहुत असमान रहा है, जिसकी वजह से इसकी पचास फीसदी से ज्यादा आबादी के पास कामचलाऊ पूंजी भी नहीं है। वैश्विक स्तर पर आज असमानता का स्तर, बीसवीं सदी की शुरुआत जैसा है। यदि आप अलग-अलग देशों की तुलना करें तो असमानता की खाई को पाटा जा रहा है। इस लिहाज से आज भारत, यूरोप के करीब पहुंच रहा है, लेकिन देश के अंदर जो असमानता है, वह गहराती जा रही है।
 
रिचर्ड महापात्रा: क्या लोकतंत्र का उभार, असमानता को रोकने में प्रभावी नहीं हो सका?
लुकास चांसेल: हमने भारत समेत कई लोकतंत्रों का अध्ययन किया है। भारत उपनिवेशवाद से बाहर आया और इसने ऐसी नीतियों को अपनाया, जिन्होंने अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने और असमानता को पाटने के लिए सरकार का हस्तक्षेप सुनिश्चित किया। पंचवर्षीय योजना, टैक्स की ऊंची दर और रणनीतिक विरासत कर ( जिसे 1985 में समाप्त कर दिया) जैसी आर्थिक प्रबंधन नीतियां इसका उदाहरण हैं। 1979 के बाद वैश्विक स्तर पर इस धारणा को स्वीकृति मिलने लगी कि टैक्स की ऊंची दर और नियंत्रण से पूंजी निर्माण में मदद नहीं मिलेगी। इसलिए असमानता, लोकतंत्र या इसकी क्षमता पर सवाल नहीं उठाती है, बल्कि लोकतंत्र में काम करते हुए हम जो चुनाव कर रहे हैं, उस पर सवाल उठाती है। असमानता लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाती है, इसलिए सरकारों को हस्तक्षेप कर इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने और इस ट्रेंड को बदलने की जरूरत है।

रिचर्ड महापात्रा: ऐसे हस्तक्षेपों को किस सीमा तक प्राथमिकता दी जानी चाहिए ?
लुकास चांसेल: लोग विरासत में मिली संपत्ति के चलते पीढ़ियों तक धन जुटाते रहते हैं। यह स्नोबॉल इफेक्ट की तरह है, जिसमें आने वाली पीढ़ियों को ज्यादा धन मिलेगा, हालांकि यह उनके केंद्रित क्षेत्र में होगा। ज्यादा पूंजी, बैंकों को उधार देने के लिए प्रोत्साहित करती है। यही वजह है कि अमीर लोगों की संपत्ति तेजी से बढ़ती है। हालांकि यह लोगों के बीच अंतर भी पैदा करती है। ज्यादातर देशों में पचास फीसदी से अधिक आबादी के पास किसी तरह की संपत्ति नहीं है। इस तरह की असमानता होने के चलते ही सरकारों को हस्तक्षेप कर इस पर फोकस करना चाहिए। सरकारी यानी जनता की पूंजी दो वजहों से कम हो रही है। पहला- सरकारें संपत्तियों और प्राकृतिक संसाधनों का कम कीमत पर निजीकरण कर रही हैं। दूसरा- सरकारें निजी क्षेत्र को ऋण अनुबंधित करती हैं, जिससे वह अधिक अमीर हो जाता है। संपत्ति के बिना, सरकारों के पास निवेश करने और खासतौर सेे ऊर्जा के क्षेत्र में जलवायु- परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए संसाधनों की कमी पड़ जाती हैं। फिलहाल सरकारों के पास संपत्तियां कम और कर्जें ज्यादा हैं। यह अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए रणनीतिक प्रबंधन की जरूरत को बतलाता है।

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