केयूर पाठक
मुझे याद है कि मेरा घर मिट्टी का था। छप्पर खपड़े का और फर्श मिट्टी का था। दीवार के लिए बांस से बने फाटक चारों तरफ लगे थे। फिर उसपर लेप भी मिट्टी का ही था। वो घर था- न गर्मियां हमें जला पाती थी, न सर्दियों में हम ठिठुरते थे। हवा, पानी और धूप सबसे घुला-मिला- वह घर था। एक तरह से घर और कुदरत के बीच एक समझौता सा था। इसने मौसम और परिवेश को ध्यान में रखा और मौसम ने भी उनका सम्मान किया।
इसे बनाने के लिए हमने कुदरती मिट्टी ली। फूस लिया बांस और लकड़ियां ली। फिर घर बना। न बिजली की जरुरत और न पंखे और एयरकंडीशनर की। अब मेरा घर कमोबेश पक्का है।
छत इसकी सीमेंट की। जमीन पत्थर की। दरवाजे लोहे के। अब पंखे और कूलर भी कम पड़ जा रहे हैं। सर्दियां कंपकंपा देती हैं और गर्मियां जान ले रही है। फिर भी हम घरों को बदल रहे हैं।
इसके रूप, बनाने के तरीके सब बदल रहे हैं। घर बनाने की कला भी हमने औपनिवेशिक प्रकार की विकसित कर ली। यह गुलाम मन (कैप्टिव माइंड) का लक्षण है। मलेशिया के समाजविज्ञानी सैयद हुसैन अलातास ने ‘कैप्टिव माइंड’ फ्रेज का प्रयोग किया था। यह पश्चिमी नए ज्ञान और तकनीक के अंधाधुंध नकल को लेकर था।
घर बनाने में हमने बिना स्थानीय सरोकारों और जरूरतों को ध्यान में रखे नए ज्ञान और तकनीक को प्रयोग किया। हमने इन्हें बनाने में पर्यावरणीय और धारणीय पक्षों को भी अनदेखा किया।
हमने अंग्रेजों की शक्ति को महसूस किया था। हम उनसे भीतर से प्रभावित हुए। हमारी चेतना तक उन्होंने कस डाली। हम आज चाहकर भी उस औपनिवेशिक दृष्टि से निकल नहीं पा रहे हैं। वैश्वीकरण के बवंडर में इसकी सम्भावना भी नहीं दिखती।
हमने उन्हें अपना आदर्श माना। उनकी बनाई चीजों को अंतिम और उनके ज्ञान को सनातन माना। घर बनाने की कला में भी हमने कोई कोताही नहीं की। हम भूल गए कि जिस आधुनिक गृह निर्माण को हम पश्चिमी कहकर अपनाते हैं, वह वस्तुतः औधोगिक क्रांति के समय पश्चिमी देशों में मजदूरों के लिए बनाई जानेवाली एक सस्ती बस्ती थी।
जिसे बनाने में पैसे और जगह कम लगती थी और अधिक से अधिक मजदूरों को रखा जा सकता था। ऐसे घर पश्चिम में भी मुख्य समाज में नहीं बनाए जाते थे। पश्चिम के पारंपरिक गृह निर्माण में भी पर्यावरणीय और अन्य पक्षों को ध्यान में रखा जाता था।
हम कैसे कह सकते हैं कि हमारे पूर्वजों की तकनीक अपरिपक्व थी, जबकि उनके बनाए घरों पर प्राकृतिक आपदाओं का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता था। इन घरों में आपदाओं के समय कम नुकसान होता था। पक्के बहुमंजिली घरों को अधिक सुरक्षित माना गया, लेकिन क्या इसने लाखों लोगों को आपदाओं से तबाह होने से बचाया!
भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में ये संकट के कारण ही बन गए। कच्चे घरों ने, पारंपरिक घरों ने इन क्षेत्रों में अधिक सार्थक भूमिका निभाई। जापान जैसे देशों ने अपने यहां पारंपरिक गृह निर्माण को अधिक प्रोत्साहित किया ताकि भूकंप से बचा जा सके।
अब घर गर्मियों में गैस-चैंबर की तरह हो गए हैं। एक दिन के लिए बिजली काट दीजिए, फिर देखिए यह कितनी बड़ी राष्ट्रीय आपदा बन जाते हैं। लोग घरों से भाग कर सड़कों पर उतर जाएंगे।
बिजली महीनों तक न आई तो जंगल की तरफ भाग जाएंगे। पहले घर अपने आप में सम्पूर्ण था। खराब मौसम से बचने के लिए घर काफी था।
अब घर अन्य तकनीकी और इलेक्ट्रोनिक गजेट्स के बिना एक जानलेवा चाहरदीवारी भर है। अब अकेले घर का बनना काफी नहीं। साथ-साथ इसे अन्य चीजों की भी जरुरत है- पंखे, एसी, कूलर, बिजली, आदि।
और यह सब हर किसी के बजट के बाहर है। बाजार आदमी की जरूरतों को बदल रहा है। इन बदली हुई जरूरतों ने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को हाशिए पर पहुंचा दिया है।
हमने घरों के स्थान पर किले बनाने शुरू कर दिए। घर परिवेश से मिलकर बनता है, किले परिवेश से कटकर। घर आसपास के जीव-अजीव के संतुलन को ध्यान में रखकर बनता है। किले शत्रु आक्रमण और उसकी शक्ति को ध्यान में रखकर।
घर बनाते समय भ्रातृत्व का भाव रहता है। इसलिए ‘स्वागतम’ लिखने की परंपरा अलग-अलग समाजों में भिन्न-भिन्न चिन्हों और भाषाओं में रही। किले बनाते समय शत्रु आक्रमण का भय होता है। इसलिए प्रवेश-निषेध मुख्य द्वार पर लिखा मिलेगा।
घर बनने बनाने के पीछे आमतौर पर दो ही कारण थे। पहला सुरक्षा और दूसरा निजता। सुरक्षा- मौसम से, जंगली जानवर, आपदा आदि से और निजता अति-सामाजिकता से।
जबतक ये दो कारण रहे घर कुदरत से लिए चीजों से मिलकर बनाए जाते थे। घर, मौसम, व्यक्ति और समाज सबके बीच एक संतुलन था, लेकिन एक तीसरे कारण के प्रचलन ने घर के स्वरुप को बदल दिया।
इसके दर्शन को बदल दिया। वो तीसरा कारण घर के एक हैसियत या शक्ति के प्रतीक में बदल जाना था।
और फिर विकसित हुआ घर को एक शक्ति केंद्र के रूप में देखने की दृष्टि- एक किले के रूप में बदलने का चलन। जिसका जितना सामर्थ्य उसने उतने बड़े किले बनाए।
घर बनाने की प्रेरणा अब नहीं रही थी। घर का भाव लुप्त हो चुका था। किले का भाव केंद्र में चला गया।
पूंजी शक्ति का प्रतीक है और यही शक्ति संरचना को तय कर रही।
घर कैसा हो, समाज कैसा हो, लोग कैसे हों, लोगों के विचार कैसे हो- ये सब वैश्विक पूंजी के इशारे से तय की जाने लगी है। परंपरागत घरों को बनाते समय उस समाज की भीतरी शक्तियां प्रेरक होती थी।
उस समाज के मूल्य और जीवन दृष्टि का प्रभाव होता था। उसकी स्थानिकता से घर बनाने की चीजें ली जाती थी। आधुनिक घरों में इसकी प्रेरणा बाहरी है। यानि वैश्विक बाजारू प्रभाव गहरा है।
इसमें किले वाली हिंसा और हैसियत का भाव भी मौजूद है। इसे बनाने बनवाने के लिए जो मैकेनिज्म है, वह वैश्विक पूंजी की शक्ति से निर्धारित है।
इसमें प्रॉपर्टी डीलर है, इसमें भू-माफिया है, और इनको संरक्षण देने वाले “सत्ता” के लोग हैं। हाथियों से टकराकर परखी गई दीवारों वाले विज्ञापन ही तय कर रहें हैं कि घर किन वस्तुओं से बने, कैसा बने।
आम आदमी अब घर नहीं बनाता, उससे घर बनवाया जाता है। घर अगर बनते तो निर्माण के सामुदायिक और स्थानीय दर्शन कार्य करते, अब चूंकि ये बनवाए जा रहे हैं, इसलिए ग्लोबल मार्केट की बेतरतीब नीति प्रभावी है।
गृह निर्माण से स्थानीय और पर्यावरणीय सरोकार गायब कर दिए गए हैं। ऐसे में घरों के भीतर तपती गर्मी और कंपकंपी वाली ठंडी ही होगी, और उसके भीतर होगी छटपटाती हुई मानवता।
(लेखक इलाहाबाद केन्द्रीय विश्विद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं)