केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय के वेब डैशबोर्ड पर 7 जून 2022 को एक दिलचस्प आंकड़ा दिखाई दिया। इसमें कहा गया कि 2022-23 में देशभर की तमाम ग्राम पंचायतों द्वारा विकास योजनाएं बनाने के लिए 2,61,203 ग्रामसभाएं निर्धारित की गई हैं।
ग्रामसभा गांव के सभी मतदाताओं की एक सभा होती है। निर्वाचित पंचायत सदस्य इस सभा के प्रति जवाबदेह होते हैं। ग्रामसभा की बैठकें स्थानीय शासन को स्थानीय स्तर पर चलाने और विकास योजनाओं की लागू करने की केंद्र सरकार की कवायद का हिस्सा हैं। इसकी प्रत्येक बैठक में ग्रामीण विभिन्न विकास कार्यक्रमों की समीक्षा करते हैं और साथ ही तय करते हैं कि ग्रामीणों के हित में कौन से विकास कार्य कराए जाने चाहिए।
ग्रामसभा के मूल में निर्णय लेने की क्षमता है। यह सभा शिक्षा, रोजगार, जल और स्वच्छता से जुड़ी पंचवर्षीय योजनाएं बनाती है और 200 से अधिक योजनाओं का कार्यान्वयन और उसके लाभार्थियों को प्रमाणित करती है। बोरवेल का कनेक्शन किसे मिलेगा, गरीबी रेखा वाले परिवारों में किसका नाम जोड़ा जाएगा जैसे निर्णय भी इसके अधिकार क्षेत्र में हैं। यह सभा गांव में चार से पांच स्थायी समितियों का गठन करती है।
उदाहरण के लिए केवल महिलाओं की समिति जल परियोजनाओं को प्रमाणित करती है। इस सभा के पास कार्यपालक, पर्यवेक्षण और कार्यकारी शक्तियां होती हैं। ग्रामीण योजनाओं के लिए इसकी मंजूरी अनिवार्य है और यह विकास कार्यों की निगरानी करती है। ये खूबियां इस पंचायती राज व्यवस्था को विकेंद्रीकृत शासन और लोकशाही के सबसे बड़े प्रयोग के रूप में पेश करती है।
ग्रामसभा की बैठक किसी भी दिन बड़े पेड़ के नीचे, पंचायत भवन, स्थानीय विद्यालय के बरामदे अथवा साफ की गई गोशाला में हो सकती है। 30 साल पहले 1992 में हुए संवैधानिक संशोधन ने केंद्रीय, राज्य स्तरीय और स्थानीय शासन की त्रिस्तीय लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की थी। इसी संशोधन से ग्रामसभा का गठन हुआ और उसे ऊर्जा मिली। ये ग्रामसभाएं प्राचीन भारत की ग्रामीण शासन व्यवस्था की झलक दिखाती हैं।
एस राधाकृष्णन ने 20 जनवरी 1947 को संविधान सभा की बहस के दौरान ग्रामीण गणराज्यों की शासन व्यवस्था के बारे में बताते हुए कहा, “जब कुछ व्यापारी उत्तर से दक्षिण में गए तो दक्कन के एक राजकुमार का प्रश्न था कि आपका राजा कौन है? तब व्यापारियों का जवाब दिया था कि हममें से कुछ ग्रामसभाओं द्वारा शासित हैं और कुछ राजाओं द्वारा।”
महात्मा गांधी ने ऐसी ग्रामसभाओं द्वारा स्वशासित गांवों की पुरजोर वकालत की थी। हालांकि दूसरी तरफ भीमराव आंबेडकर ने इसके उलट गांव को स्थानीयता की सडांध, अज्ञानता का गढ़, संकीर्णता और सांप्रदायिकता से भरा हुआ बताया। संविधान सभा गांवों की पारंपरिक शासन व्यवस्था को कानूनी रूप देने में असफल रही। हालांकि संविधान की धारा 40 कहती है, “राज्य ग्राम पंचायत को पुनर्व्यवस्थित करें और उन्हें ऐसे अधिकार दें जिससे वह स्वशासन की इकाई के रूप में काम कर सकें।” संवैधानिक संशोधन ने पंचायत को अमलीजामा पहनाया।
शुरुआत में निर्वाचित पंचायत सदस्यों ने ग्रामसभा का विरोध किया और उसकी शक्तियों को कम करने की कोशिश की। ग्रामसभा की प्रत्यक्ष निगरानी के बगैर पंचायती राज व्यवस्था सरपंच राज बनकर रह गई और विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था की भावना नष्ट हो गई। लेकिन कर्नाटक जैसे राज्यों ने 1980 के दशक में ग्रामसभा की भूमिका को मूर्तरूप देना शुरू किया।
निर्वाचित सदस्यों द्वारा प्रगति रिपोर्ट देने के लिए ग्रामसभा की बैठकों को अनिवार्य बना दिया गया। केरल ने भी लोगों की मांग को देखते हुए ग्रामसभा के माध्यम से विकेंद्रीकृत व्यवस्था कायम कर दी। ग्रामसभा इसके मूल में रही। सरकार ने 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों में ग्रामसभा की दो बैठकों को अनिवार्य बना दिया।
चूंकि मौजूदा समय में पंचायतें 1.5 लाख करोड़ रुपए से अधिक की ग्रामीण विकास से जुड़ी विकास योजनाएं कार्यान्वित कराती है, इसलिए सरकारों ने निर्वाचित सदस्यों व योजनाओं से जुड़े सरकारी अधिकारियों की निगरानी की जिम्मेदारी ग्रामसभाओं को देनी शुरू कर दी है।
कोई भी संस्थान समय के साथ परिपक्व होता है। पंचायत को त्रिस्तरीय व्यवस्था में सबसे भ्रष्ट मान जाता है। सभी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली ग्रामसभा का उदय प्रत्यक्ष भागीदारी से विकेंद्रीकृत व्यवस्था की जरूरत को रेखांकित करता है। 30 साल की पंचायती राज व्यवस्था में अगर किसी बात का जश्न मनाना हो तो ग्रामसभा के उदय का जश्न मनाइए।