डाउन टू अर्थ खास: आवारा कुत्ते, इंसानों के दोस्त या दुश्मन?

इस बात से सभी सहमत हैं कि आवारा कुत्ते समस्या हैं, लेकिन उनकी बढ़ती संख्या सीमित रखने की नीतियों को लेकर मतभेद है
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा / सीएसई
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा / सीएसई
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जानवरों की कुछ प्रजातियों के साथ मनुष्य की आत्मीयता होती है। शायद यही वजह है कि आवारा कुत्ते, बंदर और कबूतर हमेशा से भारतीय जीवन का हिस्सा रहे हैं। मगर, हाल के दशकों में शहरों में इनकी संख्या में भारी इजाफा हुआ है और इनकी तादाद इतनी अधिक बढ़ गई है कि मानव सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया है। कुत्ते व बंदर के काटने से रेबीज जैसे जूनोटिक रोग व कबूतर की बीट के चलते फेफड़े से संबंधित बीमारियों में जिस तरह की बढ़ोतरी हो रही है, वैसी पहले कभी नहीं हुई। शहरों में रहने वाली इन प्रजातियों के व्यवहार में भी काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। ये शहरी व्यवस्था के अनुरूप खुद को ढाल रहे हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए उनकी संख्या को नियंत्रित करना शायद पर्याप्त नहीं है। इसके लिए मानव को अपने व्यवहार में भी बदलाव की जरूरत है ताकि ये उदार जानवर शहर के लिए खतरा न बनें। आज की इस कड़ी में पढ़िए, क्या आवारा कुत्ते इंसानों के मददगार साबित हो रहे हैं या मुसीबत बन गए हैं?

11 अप्रैल की सुबह 11 साल का आदर्श घर से मार्केट के लिए निकला, पर कभी घर नहीं लौटा। पुलिस ने रात में उसका शव उत्तर प्रदेश के महाराजगंज स्थित शास्त्री नगर इंटरमीडिएट कॉलेज के ग्राउंड से बरामद किया। आदर्श पर आवारा कुत्तों ने दिनदहाड़े हमला कर उसका दाहिना हाथ और चेहरा बुरी तरह नोंच दिया था। ऐसी ही घटना इस साल फरवरी में हैदराबाद में चार साल के बच्चे के साथ पेश आई थी। वह कार सर्विस सेंटर के पार्किंग एरिया (जहां उसके पिता सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं) में खेल रहा था, तभी कुत्तों ने हमला कर दिया। हमले की यह घटना सीसीटीवी कैमरे में कैद हो गई, जो अब भी वायरल है।

भारत में साल 2022 में कुत्तों के काटने के कुल 19.2 लाख मामले दर्ज किए गए यानी कि रोजाना कुत्तों ने 5,200 लोगों को काटा। साल 2019 में या देश में कोविड-19 की दस्तक से पहले कुत्तों के काटने की 72.8 लाख घटनाएं हुईं थीं। इस तरह की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर साल 2021 में भारत सरकार ने मनुष्यों में होने वाले रेबीज के सभी तरह के मामलों को दर्ज करना अनिवार्य कर दिया, तो उस साल रेबीज के मामले बढ़कर 47,291 हो गए। साल 2020 में रेबीज के सिर्फ 733 मामले दर्ज हुए थे।

रेबीज एक वायरल रोग है, जो केंद्रीय नर्वस सिस्टम को संक्रमित कर देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) कहता है, “एक बार क्लीनिकल लक्षण नजर आ जाएं, तो यह शत-प्रतिशत जानलेवा होता है।” डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, एशिया व अफ्रीका में 15 साल से कम उम्र के 40 प्रतिशत बच्चों की मौत का कारण रेबीज है और रेबीज की रोकथाम के लिए कुत्तों व पिल्लों को वैक्सीनेशन एक किफायती रणनीति है। साल 2030 तक भारत में कुत्तों के काटने से होने वाले रेबीज को खत्म करने के लिए साल 2021 में नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडी) ने एक कार्य योजना जारी की थी। नेशनल एक्शन प्लान फॉर डॉग मेडिएटेड रेबीज एलिमिनेशन फ्राम इंडिया बाई 2030 के मुताबिक, रेबीज के चलते होने वाली मृत्यु और रुग्णता में से 96 प्रतिशत मामले कुत्तों को काटने से जुड़े हुए हैं। रेबीज को एनसीडीसी, देश के सभी राज्यों/केद्र शासित प्रदेशों (लक्षद्वीप व इंडमान निकोबार द्वीप समूह को छोड़कर) में एक स्थानिक व उपेक्षित जूनोटिक बीमारी के रूप में वर्गीकृत करता है।

हालांकि, सरकार का कहना है कि भारत में साल 2021 में रेबीज के चलते महज 55 मौतें हुईं, मगर जनवरी 2023 में जारी हुए एक शोधपत्र के मुताबिक, रेबीज से एक साल में 20,000 लोगों की मौत हुई है। क्लीनिकल एपिडेमियोलॉजी एंड ग्लोबल हेल्थ नामक जर्नल में छपा शोधपत्र “कॉस्ट एनालाइसिस ऑफ इम्प्लिमेंटेशन ऑफ ए पॉपुलेशन लेवल रेबीज कंट्रोल प्रोग्राम फॉर चिल्ड्रेन ऑफ इंडिया” लिखता है, “दुनियाभर में सालाना रेबीज के कुल मामलों में भारत की हिस्सेदारी लगभग दो तिहाई होती है। इस तरह की घटनाएं बहुत ज्यादा होती हैं, लेकिन इसकी रोकथाम के उपायों को लेकर जागरुकता का अभाव, पोस्ट –एक्सपोजर प्रोफिलैक्सिस को लेकर खराब जानकारी, एंटी-रेबीज वैक्सीन व इम्युनोग्लोबुलिन जैसी दवाइयों की अनियमित उपलब्धता और इनके महंगे होने के कारण पहुंच से बाहर होना और कमजोर निगरानी व्यवस्था के कारण इनकी रिपोर्टिंग कम होती है।”

अक्टूबर 2022 में लोकल सर्किल्स नाम के मीडिया प्लेटफॉर्म ने पूरे देश में सर्वे करने के बाद दावा किया कि इस सर्वे में शामिल 60 प्रतिशत परिवारों ने महसूस किया कि उनके मोहल्ले में कुत्तों के हमले बढ़ रहे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए 10 मई 2023 को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता विजय गोयल ने दिल्ली में रेसिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूएएस) की एक बैठक की थी। इस बैठक में 500 लोग शामिल हुए थे। इस बैठक में कथित तौर पर पशुप्रेमी भी आ गए और एक-दूसरे का विरोध करने वाले समूहों की दो महिलाओं के बीच मारपीट शुरू हो गई, जिसके बाद बैठक खत्म कर देनी पड़ी।



रवायत बदली

भारत में बचा-खुचा खाना छुट्टा पशुओं को खिलाने की परम्परा रही है। कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, एजुकेशन एंड रिसर्च में डॉग लैब की एसोसिएट प्रोफेसर अनिंदिता भद्र कहती हैं कि अपने नाटक मृच्छाकटिकम में कालीदास ने कहा है कि बचा हुआ भोजन कुत्तों को खिला देना चाहिए। लेकिन यह रवायत बदल गई है और पिछले दो दशकों और उससे भी अधिक समय से पशुप्रेमी, आवारा कुत्तों के साथ ऐसा व्यवहार करने लगे हैं मानो कि वे बेघर लोग हैं। वह कहती हैं, “उन्हें (आवारा कुत्ते) अब लोग खाना खिलाने लगे हैं, उन्हें रहने के लिए बसेरा देने लगे हैं और यहां तक कि कंबल तक दिया जाने लगा है। इस तरह सामान्य से हटकर कुत्तों को खिलाने का ट्रेंड कुत्तों के इस आक्रामक व्यवहार के लिए जिम्मेदार हो सकता है।”

एक दूसरी समस्या भी है। सामान्य तौर पर कुत्तों के 19 प्रतिशत पिल्ले ही वयस्क होने तक जिंदा रह पाते हैं। लेकिन जब लोग उनकी अतिरिक्त देखभाल करने लगते हैं तो उनके जीवित रहने का प्रतिशत बढ़ जाता है। इससे ही समझा जा सकता है कि आवारा कुत्तों के नसबंदी का अभियान शुरू हुए 20 साल हो चुके हैं, लेकिन तब भी उनकी आबादी में गिरावट नहीं आई है।

प्रीवेंशन ऑफ क्रुअल्टी टू एनिमल्स एक्ट, 1960 के तहत साल 2001 में भारत सरकार ने एनिमल बर्थ कंट्रोल (एबीसी) रूल्स जारी किया। मार्च 2023 में अपडेट किए गए इस रूल्स में कुत्तों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है, पालतू और आवारा। इसमें पालतू कुत्तों की नसबंदी और वैक्सीनेशन की जिम्मेवारी कुत्तों के मालिकों की है। वहीं, आवारा कुत्तों के मामले में यह जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की है। रूल्स कहता है कि यूथेनेसिया (दया मृत्यु) का इस्तेमाल कुत्तों की आबादी कम करने के लिए नहीं किया जा सकता है बल्कि इसे तभी अपनाया जाएगा, जब कुत्ता बीमारी से मरणासन्न स्थिति में हो। यहां तक कि अगर कुत्ते को रेबीज हो जाए, तब भी उसे दया मृत्यु नहीं दी जा सकती है, बल्कि उसकी प्राकृतिक मौत (जो 10 दिनों में हो सकती है) के लिए उसे अलग-थलग किया जाना चाहिए। एबीसी रूल्स यह भी कहता है कि बंध्याकरण या वैक्सीनेशन के लिए कैद किए गए कुत्तों को भी उनके पुराने ठिकाने पर ले जाकर छोड़ने की जरूरत है।

यही कारण है कि पिछले वर्षों में अदालतों ने वे सारी अपीलें खारिज कर दीं हैं जिनमें आवारा कुत्तों को मारने या अन्यत्र ले जाने की इजाजत देने के लिए निवेदन किया गया था। हिंसक व खतरनाक आवारा कुत्तों को मारने या दया मृत्यु की इजाजत देने के लिए सितंबर 2022 में केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। केरल सरकार ने तर्क दिया था कि जूनोटिक बीमारियां सामने आती हैं तो उनका संक्रमण रोकने के लिए पशुओं व पक्षियों को मारा जाता है अतः हिंसक कुत्तों के मामले में भी यही नियम अपनाया जाना चाहिए। साल 2017 में भी केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से जिलों में अावारा कुत्तों के लिए चिड़ियाघर बनाने की इजाजत मांगी थी। मगर दोनों ही वक्त केरल सरकार को कोर्ट से मायूसी ही मिली। इस समस्या के समाधान के लिए कई आरडब्ल्यूए कई बार निचली अदालतों में गए, मगर उन्हें विफलता मिली। सिर्फ एक अपवाद रहा जब अगस्त 2020 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने प्रयागराज शहर से आवारा पशुओं और आवारा कुत्तों को हटाने का निर्देश दिया। मगर, इस निर्देश को कानून के खिलाफ बताकर भाजपा नेता मेनका गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने उस निर्देश को रद्द कर दिया।

दोबारा विफल होने की आशंका

एबीसी रूल्स में हुए ताजा संशोधन में सामुदायिक कुत्तों को लेकर कहा गया है कि उनकी नसबंदी व वैक्सीनेशन की जिम्मेवारी आरडब्ल्यूए की है। रूल्स में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कुत्तों को भोजन देने वाले जोन को बच्चों के खेलने की जगहों व उनके प्रवेश और निकासी स्थल से दूर रखा जाना चाहिए। हालांकि जानकारों का कहना है कि रूल्स में ये संशोधन बहुत मददगार नहीं हो सकेंगे क्योंकि समस्या कहीं और है। साल 2013 में दिल्ली की वकील शालिनी अग्रवाल और जूनियर रिसर्च फेलो खुश्बू सैनानी ने दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन क्षेत्र के 20 एबीसी सेंटरों की स्थिति का अध्ययन किया। इन सेंटरों में आवारा पशुओं को नसबंदी व वैक्सीनेशन के लिए रखा जाता है। अध्ययन में पाया गया कि कई सेंटरों में कुत्तों की देखरेख के लिए रात्रि प्रहरी नहीं है। वहीं, कुछ में क्षमता से अधिक कुत्तों को रखा गया था और उनमें साफ- सफाई और वेंटिलेशन नहीं थे। इन सेंटरों में प्रोटोकॉल का अनुपालन नहीं किया गया था या फिर वे अधिक से अधिक फायदे के लिए सस्ती व्यवस्था अपना रहे थे। रूल्स में नियम है कि जिन कुत्तों की नसबंदी हो जाए, उनकी पहचान के लिए उन्हें टैग किया जाना चाहिए, मगर इन सेंटरों में नसबंदी हो हो चुके मवेशियों को टैग नहीं किया गया था। नियमों की इस अनदेखी का मतलब है कि जितना दावा किया जाता है, नसबंदी उसके मुकाबले कम हो रही है। अग्रवाल ने इस मामले में सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन देकर सूचनाएं मांगी। उन्हें जो सूचना मिली, उसमें पाया गया कि एक सेंटर ने फरवरी 2022 से वैक्सीन के महज 1,000 डोज लिए, लेकिन दावा किया कि साल 2022 से 2023 के बीच 3,700 कुत्तों की नसबंदी की गई। बंगलुरू की गैर सरकारी संस्था अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरमेंट में सीनियर फेलो अबी. टी. वनक कहते हैं, “आवारा कुत्तों को नियंत्रित करने की नीति में गड़बड़ी है। नीति आने के 20 साल बाद भी कुत्तों की संख्या में बढ़ोतरी जारी है।”

अलग-अलग आवाजें

हालांकि, मौजूदा संकट पर सभी एकमत है, लेकिन इसके समाधान के लिए जो सुझाव हैं, उन पर श्वान प्रेमी (डॉग लवर्स) व अन्य लोगों की राय अलग है। बंगलुरू की एक गैर सरकारी संस्था ट्रस्ट कंजर्वेशन अलायंस के रेयान लोबो कुत्तों को मार देने का समर्थन करते हैं। वह कहते हैं, “अवांछित कुत्तों को दुनियाभर में मानवीय तरीके से दया मृत्यु दी जाती है। नीदरलैंड्स में लावारिस कुत्तों (जो बीमार या आक्रामक होते हैं) को दया मृत्यु दी जाती है। इकोलॉजिस्ट माधव गाडगिल भी कहते हैं कि पर्यावरण व आर्थिक लिहाज से दया मृत्यु सही है। वह कहते हैं, “अनियंत्रित बढ़ोतरी से वे आक्रामक हो रहे हैं। मिजोरम और मणिपुर जैसे राज्य व दक्षिण एशिया के बहुत सारे देशों में लोग पारम्परिक तौर पर कुत्ते का मांस खाते हैं।”

गैर सरकारी संगठन पीपल्स ऑफ एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) की राधिका सूर्यवंशी कुत्तों को मारने के विचार से सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा कि भारत में मारने का चलन तब हुआ करता था, जब नसबंदी अभियान शुरू नहीं हुआ था। वह कहती हैं, “एबीसी रूल्स को अगर सही तरीके से लागू किया गया होता, तो भारत में कुत्तों की आबादी नियंत्रित हो चुकी होती।” सूर्यवंशी चेतावनी देते हुए कहती हैं कि ऐसे उदाहरण हैं जो बताते हैं कि हत्याएं लोगों को हिंसक बनाती हैं। यूके की टीसाइड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने आवारा कुत्तों की भारी आबादी वाले पूर्वी यूरोपीय समुदाय की निगरानी की, जहां कुत्तों को बुरे तरीके से पकड़ा गया और उन्हें या तो जहर देकर अथवा अन्य क्रूर तरीकों से मारा गया। शोधकर्ताओं ने कुत्तों की निर्मम हत्या और इस समुदाय में घरेलू हिंसा में संबंध पाया। वनक कहते हैं कि भारत को अलोकप्रिय विकल्पों जैसे पालतू पशुओं के मालिकाना हक को लेकर सख्त कानून व सार्वजनिक स्थानों पर कुत्तों को खिलाने पर रोक लगानी चाहिए। उन्होंने आगे कहा, “भारत में कुत्तों के लिए बसेरा स्थापित किया जाना चाहिए और इसके लिए एबीसी का बजट बनाया जाना चाहिए।” नवी मुंबई के एनआरआई कॉम्प्लेक्स में रहने वाली विनीता श्रीनंदन भी इससे सहमति जताते हुए कहती हैं, “हमारी सोसाइटी के बाहर आवारा कुत्तों के लिए एक घेरा बनाया हुआ है। उनको वहीं खाना दिया जाता है और वॉक पर ले जाया जाता है। कुछ साल पहले इनकी संख्या 38 थी, जो अब घटकर सात हो गई है।”

कल पढ़ें: शहरों में पहुंच रहे बंदरों का समाधान क्या?

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