विस्थापन दर विस्थापन: अतीत बनता मोरवा नगर

देश में पहली बार कोयला खनन के कारण एक लाख से अधिक लोग विस्थापित होंगे। पिछले साढ़े छह दशक में बांध, बिजली एवं खनन परियोजनाओं के निर्माण के कारण मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित सिंगरौली के लोगों के लिए आजीविका का नुकसान और विस्थापन एक आम बात बन कर रह गई है। 1960 से अब तक यहां लगभग तीन लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं। यह समुदाय एक बार फिर से अब तक के सबसे बड़े विस्थापित होने की प्रक्रिया में हैं क्योंकि नॉर्दन कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) की जयंत खनन परियोजना विस्तारित की जा रही है। हालांकि इस बार विस्थापितों और नागरिक समाज समूहों द्वारा निरंतर संघर्ष के कारण परियोजना प्रभावित लोग बेहतर स्थिति की आस लगाए बैठे हैं
मध्य प्रदेश के  सिंगरौली में एक लाख की आबादी वाले मोरवा नगर का विस्थापन एक सितंबर से शुरू हो गया है
मध्य प्रदेश के सिंगरौली में एक लाख की आबादी वाले मोरवा नगर का विस्थापन एक सितंबर से शुरू हो गया है (फोटो: विजय कुमार वर्मा)
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भगवान प्रसाद की उम्र 82 पहुंच चुकी है लेकिन विस्थापन उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। 1960 के दशक में पहली बार रिहंद बांध के निर्माण के कारण उन्हें अपना घर-द्वार और जमीन छोड़नी पड़ी थी (देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश सीमा पर स्थित रिहंद बांध का शिलान्यास 13 जुलाई 1954 को किया और यह 6 जनवरी, 1963 को बनकर तैयार हुआ)।

रिहंद जलाशय से विस्थापित लोगों को पहले बांध के जलग्रहण क्षेत्र के उत्तरी भाग में ही बसाया गया था। हालांकि सरकार ने जलाशय के जलग्रहण क्षेत्र का गलत आकलन किया और जल्दी ही 1962 में भगवान प्रसाद जैसे लोग फिर से विस्थापित हो गए क्योंकि जिस क्षेत्र में वे बसे थे, वह पानी में समा गया। फिर से उजड़े लोगों ने खड़िया गांव के पास अपना बसेरा बसाया।

तब से छह दशक से अधिक बीत चुके हैं लेकिन उनके उजड़ने का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। भारी मन से उन्होंने सवाल पूछा, “अब तो लगता है जैसे इस देश में मेरा अपना कुछ है ही नहीं, जब भी बांध बने, बिजली संयंत्र लगे या खदानें खुदें, इन सबकी मार हम पर ही क्यों।”

अब वह छठी बार सिंगरौली जिले के कथास गांव से (जयंत कोयला खदान परियोजना के कारण) विस्थापन की बाट जोह रहे हैं। वहीं विस्थापित बहुल जुआड़ी गांव (सिंगरौली, मध्य प्रदेश) में नहर किनारे सड़क पर ही एक टपरी में कपड़ा सिलते 71 साल के चिंतामणि पांचवीं बार उजड़ने का इंतजार कर रहे हैं।

वह कहते हैं, “पहले किसान था और विस्थापन ने मजदूर बना दिया है।” वे जैसे-तैसे मजदूरी से दो पैसे जोड़कर सिलाई मशीन खरीद अब दर्जी का काम कर अपना जीवन यापन करते हैं। हालांकि निराशा भरे स्वर में उन्होंने कहा, “लगता है मुझे अपने जीवन काल के अंतिम समय में भी कोई निश्चित जगह मुकर्रर नहीं हो पाएगी क्योंकि अब यह पेशा भी मुझे छोड़ना पड़ेगा।”

चिंतामणि सहित लगभग 70 परिवारों को यहां से लगभग 80 किमी दूर बसाया जाएगा। ऐसे में चिंतामणि को अब पांचवीं बार अपनी जमीन छोड़नी पड़ेगी। इस पर सवाल उठना लाजमी है कि उन दूर-दराज इलाकों में जहां बस्ती है ही नहीं तो ऐसे में चिंतामणि के पास कौन कपड़ा सिलाने आएगा।

पहली बार वह 1963 में एनसीएल द्वारा खदान के लिए अधिग्रहित किए गए निगाही गांव से विस्थापित हुए थे। जबकि तीसरी पीढ़ी में भी अपना पुस्तैनी साइकिल रिपेयरिंग का धंधा कर रहे राजेश कुमार उन लगभग एक लाख लोगों में शामिल हैं जो पहली बार सिंगरौली का दिल कहे जाने वाले मोरवा शहर से सितंबर (2025) की शुरुआत में विस्थापित होंगे। इसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दावा

मोरवा शहर के भीड़भाड़ से भरे बस स्टैंड पर अपनी दुकान के हटने की बात भर से राजेश के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती हैं और किसी से भी इस विषय पर बात करते समय उनका गला रूंध (रोना) जाता है और वह बहुत कुछ कहने की कोशिश में भी कुछ नहीं कह पाते। बस उनकी आंसुओं से भरी आंखें ही उनके मन की बात बयां कर रही होती हैं कि अब यहां से जाने का वक्त आखिर आ ही गया।

इस संबंध में एनसीएल के प्रवक्ता राम विजय सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया, “मोरवा के लोगों के विस्थापन की प्रक्रिया पूरी तरह से लोकतांत्रिक तरीके से की जा रही है। हम यहां के सभी संगठन व संघों के साथ मिलकर इस प्रक्रिया को अंतिम रूप दे रहे हैं।”

वह कहते हैं कि चूंकि विस्थापित होने वालों के बहुत अधिक ग्रुप हैं इसलिए एनसीएल सभी के साथ बातचीत कर रहा है और अब एनसीएल के साथ तमाम ग्रुपों की 30 राउंड की बातचीत पूरी हो चुकी है। सभी को एनसीएल पुनर्वास पैकेज के हिसाब से ही मुआवजे की बात की जा रही है। सिंह कहते हैं कि शक्तिनगर एनटीपीसी को और अधिक कोयले की जरूरत है इसलिए हम जयंत कोयला खदान को विस्तारित करने के लिए ही मोरवा शहर का विस्थापन पूरे नियम कायदों के तहत कर रहे हैं।

सिंगरौली के मोरवा में कोयले का अकूत भंडार है। इस शहर की जमीन के नीचे 2,724 मिलियन टन कोयला दबा पड़ा है। केंद्र सरकार इसके खनन की मंजूरी दे चुकी है जिसके लिए सिंगरौली शहर की 1,485 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित की जा रही है। सिंगरौली में कोयला उसके उत्तर-पूर्वी भाग में करीब 220 किमी क्षेत्र में फैला है।

भारत में आम तौर पर कोल सीम की मोटाई 30 मीटर तक की होती है लेकिन सिंगरौली में यह 138 मीटर तक की बताई गई है। यहां के झिंगुदरा खदान में तो कोल सीम 162 मीटर तक की है। सिंगरौली कोल फील्ड्स 2,202 वर्ग किमी में फैला हुआ क्षेत्र है। मुहेर सब बेसिन 312 वर्ग किमी में है, जबकि सिंगरौली मेन बेसिन 1,890 वर्ग किमी में फैला है। अभी तक कोयला खनन सिर्फ मुहेर सब बेसिन में ही हो रहा है। लेकिन सिंगरौली के कोल मास्टर प्लान में पूरे कोल फील्ड्स में खनन की तैयारी है।

इसके लिए मोरवा शहर के वार्ड क्रमांक 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 और 10 की कुल 1,485 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित की जाएगी। एनसीएल के अनुसार विस्थापितों को लगभग 35,000 करोड़ रुपए की राशि मुआवजे के लिए रखी गई है। इसके अतिरिक्त घरों व दुकानों को तोड़ने के लिए 24,000 करोड़ रुपए भी अलग से आबंटित किए गए हैं।

सिंगरौली को 2008 में जिला घोषित किया गया। इस जिले में लगभग 400 गांव हैं और जिला लगभग 1,890 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। यहां नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एटीपीसी) की चार विद्युत परियोजनाएं, नॉर्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) की 11 खदानें हैं तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र से जेपी पावर वेंचर्स लिमिटेड, सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट, रिलायंस पावर लिमिटेड, हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड, महान एल्युमीनियम लिमिटेड और लैंको पावर लिमिटेड जैसी विशाल बिजली परियोजनाएं भी स्थित हैं।

विश्व बैंक और एनटीपीसी द्वारा 1991 में गठित पर्यावरणीय आकलन आयोग ने कहा था कि औद्योगिक विस्तार के कारण सिंगरौली की 90 प्रतिशत आबादी एक बार अवश्य विस्थापित हुई है, वहीं यहां की 34 प्रतिशत आबादी को बार-बार विस्थापित होना पड़ा है। भगवान प्रसाद रिहंद बांध से विस्थापित होने वाले 146 गांव के उन 40 हजार परिवारों में शामिल थे जिन्हें अपनी जमीन छोड़नी पड़ी थी।

वह बताते हैं, “80 साल से अधिक हो गए हैं इस दुनिया में आए लेकिन अब तक मेरी जिंदगी में ठहराव नहीं आया। हर दिन और हर रात बस यही चिंता खाए जा रही होती है कि कब सरकारी मुलाजिम दरवाजे पर दस्तक देगा और दरवाजा खोलते ही हाथ में थमा देगा एक कागज का पुर्जा (नोटिस)।’ भगवान प्रसाद ने डाउन टू अर्थ को बताया कि चलो अब मेरी जिंदगी तो आखिरी पायदान पर आ पहुंची है लेकिन इस बात की चिंता चौबीसों घंटे खाए जा रही है कि क्या मेरी अगली पीढ़ी भी मेरी तरह ही पांच-पांच बार अपनी जमीन से बेदखल होती रहेगी?

प्रसाद जैसे दो बार के विस्थापितों की जमीन को 1977 में एनटीपीसी ने अपने शक्तिनगर थर्मल पावर प्लांट के लिए अधिसूचित कर अधिग्रहित कर लिया था। चेहरे पर पीड़ा का भाव लिए भगवान प्रसाद बोले, “तब केवल 15 दिन का नोटिस दिया और जबरन बेदखल कर दिया गया।” प्रसाद को उस समय 2,000 रुपए प्रति एकड़ का मुआवजा मिला और चिलिका डाड़ गांव में पुनर्वासित किया गया। प्रत्येक विस्थापित को 30x50 फुट के प्लॉट मिले लेकिन यह एनटीपीसी के नाम पर थे। प्रसाद जैसे लोग पहले बांध के कारण, फिर पानी भर जाने के कारण, रेलवे लाइन बढ़ाने के कारण और फिर एनसीएल की खदानों के कारण उजड़े। चिलिका दाड़ के निवासियों को 1995 में पट्टे दिए गए थे। लेकिन ये केवल आवासीय पट्टे थे और एनटीपीसी के नाम पर इसलिए वे इस जमीन को बेच नहीं सकते थे और न ही इस पट्टे के आधार पर ऋण ले सकते थे।"

सिंगरौली में पिछले चार दशक से रह रहे सामाजिक कार्यकर्ता संदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि सिंगरौली में विकास प्रेरित विस्थापन का एक चक्र देखा गया है। यह चक्र भूमि को बांधों से, कोयला खदानों से, बिजली संयंत्रों और अपशिष्ट निपटान क्षेत्रों के लिए अधिग्रहित की गई जमीन तक घूमता रहता है।

बीते तीन दशक से विस्थापतों के लिए कार्य कर रहे सिंगरौली “विस्थापन मंच” के महासचिव भूपेंद्र गर्ग ने डाउन टू अर्थ से कहा, “1990 के पूर्व तो देश में कोई पुनर्वास नीति ही नहीं थी।” ऐसे में यहां के लोगों को भेड़-बकरियों की तरह ही सरकारी अधिकारी हांक देते थे। कोयला क्षेत्र अधिनियम के तहत मुआवजा दरें, 2013 में पारित भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम (एलएआरआर) के तहत मुआवजा दरों से पांच गुना कम है। गर्ग कहते हैं कि विस्थापितों को कायदे से एलएआरआर अधिनियम के तहत ही मुआवजा मिलना चाहिए।

हकीकत से दूर

मोरवा के बाहरी इलाकों से विस्थापित होने वाले दस गांवों में से एक कथास गांव के कई जमीन मालिकों को मुआवजा मिलने की संभावना नहीं है क्योंकि उनके पास पट्टे ही नहीं हैं। जमीन को पट्टे में तब्दील करने के लिए सरकारी कर्मचारी अलग से पैसे की मांग करते हैं। ऐसे में वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के अंतर्गत अपने अधिकारों को जानते हुए भी आदिवासियों को इस बात की आशंका बनी हुई है कि उनके पंचायत प्रधान उनका समर्थन नहीं करेंगे। अब विस्थापित होने वाले 10 गोंड आदिवासी गांव (लगभग 3,500 आबादी) का भविष्य अधर में है। इस संबंध में गर्ग कहते हैं, “इस मामले में एफआरए भी लागू नहीं हो सकता क्योंकि अधिग्रहण मौजूदा खदानों के विस्तार के लिए है न कि नई खदानों की खुदाई के लिए।”

अब ताजा विस्थापन सिंगरौली के सबसे बड़े नगर मोरवा में शुरू हुआ है। देश में पहली बार खनन विकास के लिए एक पूरे कस्बे को ध्वस्त किया जाएगा। कोयला क्षेत्र (अधिग्रहण और विकास) संशोधन अधिनियम, 1957 के अंतर्गत मोरवा कस्बे को आने वाले समय में नक्शे से मिटाने की तैयारी पूरी हो चुकी है। कोल इंडिया लिमिटेड की एक सहायक कंपनी एनसीएल इस अधिनियम के तहत पूरे कस्बे और आसपास के 10 गांवों का अधिग्रहण करने जा रही है। मोरवा सिंगरौली जिले के मध्य में स्थित है।

इस कस्बे का जन्म 1950 के दशक में हुआ था जब यहां तेजी से बढ़ते बुनियादी ढांचे और औद्योगिक विकास के कारण हजारों लोग विस्थापित हुए थे। उन्होंने मोरवा के सात गांवों में आकर अपना ठिकाना बनाया था और धीरे-धीरे यह इलाका 11 नगरपालिका वार्ड वाले जिले की एक चहल-पहल वाली बस्ती में तब्दील हो गया, जिसकी आबादी लगभग एक लाख है। मोरवा शहर के विस्थापन को लेकर जुलाई 2024 से सर्वे का काम शुरू किया गया था। इसके लिए टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंस की 20 टीमों का गठन किया गया था। सर्वे का ज्यादातर काम अब पूरा हो चुका है।

मोरवा के विस्थापन की पहली जानकारी 2015 के अंत में स्थानीय मीडिया से पता चली थी। इस संबंध में पिछले दो दशकों से कई राष्ट्रीय अखबार में कार्य कर चुके विमल कुमार ने बताया, “हमें एनसीएल से जानकारी मिली कि मोरवा के वार्ड संख्या 10 और गोंड जनजाति बहुल 10 गांवों को कोयला खदानों के विस्तार के लिए अधिग्रहित किया जाएगा।” एनसीएल के इस कदम से कस्बे के बाहरी इलाके प्रभावित होने वाले थे और तब इससे 400 परिवार विस्थापित होने की बात कही गई थी। कुमार बताते हैं कि 4 मई 2016 को कोयला मंत्रालय ने कोयला अधिनियम की धारा 4 के तहत दो चरणों में 19.25 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के अधिग्रहण के लिए दो असाधारण राजपत्रित अधिसूचनाएं जारी की गईं। ध्यान रहे कि यह एक आपातकालीन प्रावधान है जो भूमि के तत्काल अधिग्रहण की अनुमति देता है।

स्थानीय निवासियों ने इस अधिग्रहण का विरोध किया और दावा किया कि अधिग्रहण नोटिस कई कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करता है। चूंकि अधिनियम निवासियों को नोटिस के 90 दिनों के भीतर अपनी आपत्तियां दर्ज कराने की अनुमति देता है, इसलिए उन्होंने 2016 जून में एनसीएल को एक पत्र भेजा। लेकिन एनसीएल ने उनसे बात करने से भी इनकार कर दिया। इस संबंध में गर्ग ने बताया, “हमने तब अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं थीं लेकिन एनसीएल अधिकारियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।”

कई दिनों तक एनसीएल अधिकारियों से संपर्क करने के बाद निवासियों ने अंतत: 15 अगस्त 2016 को सिंगरौली के तत्कालीन जिला कलक्टर शिवनारायण सिंह चौहान से संपर्क किया। हालांकि आपत्तियां दर्ज कराने की तिथि बीत चुकी थी लेकिन चौहान ने एक अपवाद के रूप में इसकी अनुमति दे दी। इसके बाद एनसीएल ने 10 सितंबर 2016 को एक जवाब जारी किया। इसमें कहा गया कि मोरवा की जमीन को 1960 में कोयला असर वाले क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया था और एनसीएल के कोयला उत्पादन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इसकी आवश्यकता थी। स्थानीय आरटीआई कार्यकर्ता सुरेश कुमार कहते हैं, “सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत कई आवेदनों के बावजूद हमें अब तक पुनर्वास के बारे में संपूर्ण जानकारी नहीं मिली है।”

साठ साल पीछे चले जाएंगे

मोरवा में फलों का व्यापार करने वाले 66 साल के राम सिंह ने कहा, “इस विस्थापन के बारे में सोचकर ही रूह कांप जाती है, यहां हमारी पीढ़ियां बीत गईं, बचपन से लेकर जवानी बिता दी और जब बुढ़ापे का समय आया है तो हमें यह जगह छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।” ध्यान रहे कि मोरवा का विस्थापन कुल 927 हेक्टेयर जमीन पर किया जाना है, जिसमें से 572 हेक्टेयर रहवासी जमीन है। इसके अलावा 205 हेक्टेयर जमीन वन विभाग की है और 149 हेक्टेयर जमीन मध्य प्रदेश शासन की है। सिंह कहते हैं कि जिस तरह हम लोगों ने जीवन यापन के लिए व्यापार को खड़ा करने और व्यवस्थित करने में पीढ़ियां लगा दीं, अब किसी नई जगह जाकर नया काम धंधा खड़ा करना किसी नई चुनौती से कम नहीं होगा। इससे हमारे लिए फिर से 60 वर्ष पीछे जैसे हालात हो जाएंगे और फिर से यहां पहुंचने में हमें कई वर्ष लग जाएंगे।

हालांकि विस्थापितों को मुआवजा दिया जा रहा है लेकिन सिंह कहते हैं, “घर उजड़ने का दर्द पैसे से कम नहीं किया जा सकता।” विस्थापितों के लिए काम करने वाले संगठनों की सबसे बड़ी मांग है कि एनसीएल कंपनी इसके लिए सभी को एक अलग शहर बनाकर दे। लेकिन एनसीएल या तो दूर-दराज इलाके में प्लाट दे रही है और प्लाट नहीं लेने पर जिसकी अपनी जमीन पर घर बना हुआ है उसके प्रति व्यस्क को 18 लाख रुपए और उसके बच्चे जो व्यस्क हो चुके हैं उनको 15 लाख रुपए पर अब तक सहमति बनी है। इस संबंध में गर्ग कहते हैं कि एनसीएल से एक लाख 37 हजार रुपए प्रति व्यस्क को देने की बात शुरू हुई थी और अब 18 पर आ कर रुकी है। उन्होंने बताया कि लेकिन यहां पर भी एक मामले में अटक गए हैं कि संपत्ति पर बनी परिसंपत्ति के लिए सहमति अब तक नहीं बन पाई है। वहीं जो सरकारी भूमि पर है उसे प्रति व्यस्क 6 लाख और उसके व्यस्क बच्चों को 5 लाख पर बात हो रही है लेकिन ये लोग भी उतने ही मुआवजे की मांग कर रहे हैं जितना पट्टेधारियों को मिल रहा है।

मोरवा के विस्थापन का कारण एनसीएल की जयंत परियोजना से कोयले के उत्पादन को बढ़ाना है। एनसीएल की जयंत परियोजना की खदान का उत्पादन वर्तमान में 30 मिलियन टन है, जिसे आगे बढ़ाने का उद्देश्य रखा गया है। इसे प्रतिवर्ष 30 से 35 और 35 से 38 मिलियन टन आगे बढ़ाए जाने का लक्ष्य है। जयंत खदान का लगभग 98 प्रतिशत कोयला बिजली घरों को जाता है इसलिए यहां का खनन बेहद जरूरी है। एनसीएल के प्रवक्ता ने बताया कि एनटीपीसी के शक्तिनगर पावर प्लांट की बिजली आपूर्ति भी पूरी तरह से जयंत खदान पर निर्भर है इसलिए मोरवा के नीचे कोयले का खनन बेहद आवश्यक है। यह विस्थापन 2032 तक पूरा होने की उम्मीद है। इसमें एनसीएल का मुख्यालय और आवासीय कॉलोनी भी शामिल है। कंपनी अगले दस सालों में यहां से कोयला उत्पादन शुरू करना चाहती है। इस प्लान को कोल इंडिया के बोर्ड से भी मंजूरी मिल गई है। इसलिए मोरवा को अब कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है।

मध्य प्रदेश राज्य के वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा ने बजट 2025-26 में सिंगरौली के विस्थापन का जिक्र किया था। बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा था कि प्रदेश की खनन राजधानी सिंगरौली को खनन के साथ विकास के मद्देनजर एक नए नगर के रूप में विकसित किया जा रहा है। इससे हजारों विस्थापित लोगों को नए शहर की सुविधाएं मिल सकेंगी। हालांकि बजट में इसके लिए राशि की घोषणा नहीं की गई है।

मोरवा सहित विश्व भर में उजड़ते लोगों पर जिनेवा स्थित अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) को बनाने वाले नॉर्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल के प्रमुख यान एगेलैंड ने कहा, “हमने पहले कभी अपने घरों और अपने समुदायों से जबरदस्ती दूर जाने को मजबूर किए गए इतने सारे लोग नहीं देखे हैं।”

शुरुआती समय में पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों ने मामूली मुआवजा स्वीकार कर लिया जो एक नया घर बनाने के लिए भी पर्याप्त नहीं था। सिंगरौली के स्थानीय मीडिया व शोधकर्ताओं के अनुमान के अनुसार बांध, खनन और ताप विद्युत परियोजनाओं के कारण 3 लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। विश्व बैंक द्वारा कुल वित्तपोषित परियोजनाओं में से 26.6 प्रतिशत ऐसी हैं, जिसके कारण विस्थापन हुआ है। इस संबंध में सेंटर फॉर इंटरनेशनल लॉ की अमेरिकी वकील डाना क्लार्क (सिंगरौली में विकास और विशेष रूप से विश्व बैंक की भूमिका पर बारीक पड़ताल की है) कहती हैं कि सिंगरौली के ग्रामीणों की पीड़ा की कहानी चौंकाने वाली है और इससे उन लोगों की व्यापक समीक्षा होनी चाहिए जिनका जीवन विकास के नाम पर बर्बाद हो गया है।

सिंगरौली से जब लोग विस्थापित होने लगे तब 1964 में जवाहरलाल नेहरू ने वायदा किया था कि सिंगरौली आने वाले समय में भारत का स्विट्जरलैंड बनेगा और इस वायदे के ठीक 56 साल बाद मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे अब सिंगापुर बनाने का वायदा किया है। आज इन बेतुके वायदों के कारण भगवान प्रसाद, चिंतामणि जैसे लाखों विस्थापित अभूतपूर्व पीड़ा लिए जीने को मजबूर हैं। हां, बिजली संयंत्र बनाए जा रहे हैं, कोयला खदानों का दोहन हो रहा है लेकिन एक अज्ञात व्यक्ति को भी सिंगरौली रूसी फिल्मकार टारकोवस्की की फिल्म “द स्टाकर” के तबाह क्षेत्र या इतालवी कवि दांते की महान कृति “डिवाइन कॉमेडी” के प्रथम भाग “इन्फर्नो” के किसी दृश्य जैसा ही जान पड़ता है यानी पूरी तरह से स्याह।

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