पंजाब में दलितों को शामलात (सामुदायिक) भूमि से वंचित कर संघर्ष की जमीन तैयार कर दी गई है। अगर इसका उचित प्रबंधन हो तो यह भूमि दलितों की गरीबी दूर करने में अहम भूमिका निभा सकती है। चंडीगढ़ से दिलराज सिंह और तरनतारन व फिरोजपुर से भागीरथ की रिपोर्ट
“29 अक्टूबर 2022 की शाम मैं जिंदगीभर नहीं भूल सकती। गांव के ऊंची जाति के लोगों ने गुरुद्वारे के लाउडस्पीकर का दुरुपयोग करते हुए आह्वान किया कि सभी घरों से दो-दो लोग ट्रैक्टर-ट्रॉली लेकर धरना स्थल पर पहुंचें। इस आह्वान के कुछ समय बाद हमारे धरनास्थल पर बड़ी संख्या में पहुंचे लोगों ने पेट्रोल डालकर आग लगा दी। उस वक्त धरनास्थल पर मेरे साथ करीब 15 महिलाएं बैठी थीं। सभी को मौके से जान बचाकर भागना पड़ा।”
26 साल की पिंदर कौर जब इस घटना को याद करती हैं तो गुस्से से भर उठती हैं। उन्हें उम्मीद नहीं थी अपने अधिकार के लिए आवाज उठाने पर उनकी जान पर बन आएगी। पिंदर का परिवार पंजाब के तरनतारन जिले के कोहाड़का गांव में रहने वाले उन 46 दलित परिवारों में शामिल है, ग्राम पंचायत ने जिनका चयन 5 मरला (1,125 वर्गफीट अथवा 125 गज) भूखंड देने के लिए किया था। यह भूखंड दलितों के लिए आरक्षित शामलात (सामुदायिक) भूमि से दिया जाना था।
भूखंड की इसी मांग को लेकर पिंदर गांव की करीब 15 महिलाओं के साथ 29 अक्टूबर को धरने पर बैठी थीं। उस रोज शाम 6:30 बजे जब सभी दलित पुरुष खेतों में मजदूरी कर रहे थे और धरना स्थल की कमान महिलाओं के हाथों में थी, तभी 60-70 लोगों के समूह ने धरनास्थल पर हमला बोल दिया। पिंदर का आरोप है कि हमला करने वाले दलितों की मांग से बेहद नाराज थे। वह घटना को याद करते हुए डाउन टू अर्थ को बताती हैं, “हमलावरों ने जबरन हमें मौके से हटा दिया। इस दौरान उन्होंने महिलाओं को गालियां दीं और जातिसूचक शब्द कहे।”
दलितों के संघर्ष में उनका साथ दे रहे दलित दास्ता विरोधी आंदोलन (डीडीवीए) के तरनतारन जिला प्रधान रणजीत सिंह आगजनी से ठीक एक दिन पहले हुई घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं, “28 अक्टूबर को एक दलित युवक पराली में लगाई जा रही आग में फंस गया था। आग में दलित युवक झुलस गया और उसकी मोटरसाइकिल को काफी नुकसान पहुंचा। घटना के बाद दलित युवक ने थाने में आग लगाने वाले ऊंची जाति के शख्स के खिलाफ शिकायत दी थी। इससे ऊंची जाति के लोग बेहद गुस्से में थे। इस घटना के अगले दिन ही उन्होंने प्रदर्शन स्थल को आग के हवाले कर दिया।”
रणजीत सिंह के अनुसार, “उस रात गांव में तनावपूर्ण हालात को देखते हुए पुलिस की तैनाती रही लेकिन अगले ही उसे हटा लिया गया। 10 महिलाओं ने घटना के बाद पुलिस थाने में जाकर बयान भी दर्ज कराया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। पीड़ित परिवार शिकायत लेकर प्रशासनिक अधिकारी के पास भी गए। वहां से भी निराशा ही हाथ लगी। ” हालांकि घटना के 10 दिन बाद यानी 9 नवंबर को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने 15 दिनों में तरनतारन के डिप्टी कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक (एसपी) से मामले में की गई कार्रवाई का ब्यौरा मांगा है। रणजीत सिंह मानते हैं कि गांव में हालात अब भी तनावपूर्ण हैं और दलितों पर किसी भी समय फिर से हमला हो सकता है।
पंजाब में शामलात
पंजाब की कुल आबादी में सर्वाधिक 31.94 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले दलितों के लिए शामलात का महत्व इसलिए भी है क्योंकि उनके हिस्से में केवल 3.5 प्रतिशत ही भूमि है। यहां दलितों की 73.33 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है, जिनके पास न तो खेती की जमीन है और न रहने के लिए पर्याप्त जगह।
शामलात भूमि की सबसे स्पष्ट परिभाषा उच्चतम न्यायालय ने 2011 में “जगपाल सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब” मामले में दी थी। शामलात के मामले में नजीर बने इस आदेश में जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि प्राचीन काल से गांवों में सामुदायिक जमीन रही हैं, जिसे उत्तर भारतीय राज्यों में ग्राम सभा भूमि व ग्राम पंचायत भूमि, पंजाब में शामलात देह, दक्षिण भारत में मंडावेली और पोरंबोके, कलाम, मैदान आदि नामों से जाना जाता है। इनका प्रबंधन ग्राम सभा या ग्राम पंचायत के पास है। इसके सामुदायिक उपयोग को देखते हुए आमतौर पर यह किसी को नहीं दी जा सकती।
पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर पंपा मुखर्जी ने सूचना के अधिकार से पता लगाया है कि पंजाब में करीब 1.70 लाख एकड़ भूमि शामलात के दायरे में आती है। राज्य में यह भूमि पंजाब विलेज कॉमन लैंड एक्ट, 1961 (पंजाब पेंडु शामलात जमीन (विनियम) एक्ट 1961) और पंजाब विलेज कॉमन लैंड रूल्स, 1964 (पंजाब पेंडु शामलात (विनियम) नियम 1964) के तहत प्रबंधित और नियंत्रित होती है।
शामलात भूमि को कृषि योग्य और गैर-कृषि योग्य भूमि में विभाजित किया गया है। गैर-कृषि योग्य भूमि का उपयोग गांव की सामान्य जरूरतों जैसे, स्कूल, औषधालय, तालाब आदि बनाने में किया जाता है। वहीं कृषि योग्य भूमि ग्रामीणों को साल भर के लिए पट्टे पर दी जाती है। पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) रूल्स, 1964 के नियम-6 में कहा गया है कि पट्टे पर दी जाने वाली प्रस्तावित खेती योग्य भूमि का एक तिहाई हिस्सा केवल अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए आरक्षित होगा। नियम 3 (xvi) में यह प्रावधान है कि शामलात भूमि आवास की कमी से जूझ रहे लोगों को पट्टे पर दी जा सकती है। नियम 13-ए के अनुसार, पंचायत सरकार के कहने पर क्षेत्र में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों को आवास के लिए नि:शुल्क शामलात भूमि दे सकती है।
ऐसे सख्त प्रावधानों के बाद भी राज्य के भूमिहीन दलितों की अधिकांश आबादी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते शामलात भूमि से वंचित है। पंजाब में भूमि सुधारों का फायदा मुख्यत: अगड़ी जातियों और अन्य पिछड़े वर्ग को मिला है जबकि दलित भूमि के पुनर्वितरण में बहुत पीछे छूट गए। अगड़ी जातियां अपने सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के दम पर शामलात भूमि के लिए लगने वाली बोलियों को प्रभावित करती हैं।
भूमि सुधारों के लाभ से वंचित रहे दलितभूमि के पुनर्वितरण के वक्त दलित कृषि प्रणाली में सबसे निचले पायदान पर थे, भूमि पर उनका कब्जा नहीं था जिसके चलते उन्हें प्राथमिकता नहीं मिलीब्रिटिश और मुगलकालीन भारत में जमींदारी व्यवस्था चरम पर थी। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में बाबा बंदा सिंह बहादुर ने जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन के लिए ऐतिहासिक अभियान शुरू किया और भूमि पर जुताई करने वालों को मालिकाना हक दिलाया। इस अभियान ने किसानों को एकजुट किया और मुगलों द्वारा समर्थित जमींदारों की तानाशाही को चुनौती पेश की। इस अभियान ने उन जातियों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान किया जो परंपरागत रूप से कृषि से जुड़ी थीं। इसके बाद इन भू स्वामियों खासकर जट्ट सिखों की स्थिति 12 सिख मिसलों के गठन और महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में सतलुज नदी के उत्तर में (माझा और दोआबा) और मजबूत हुई। ऐसी ही प्रवृत्ति सतलुज के दक्षिण (मालवा) में भी देखी गई जहां अन्य सिख शासकों का दबदबा था। मालवा में सिख शासकों पर ब्रिटिश का प्रभाव था, इसलिए यहां जमींदारी व्यवस्था मजबूत थी, विशेषकर पूर्ववर्ती पेप्सू (पटियाला एवं पूर्वी पंजाब में ) प्रांत में। भू स्वामित्व मुख्यत: मुट्ठीभर जमींदार परिवारों के पास था। वे हजारों एकड़ में पट्टेदारों से कृषि कार्य करवाते थे जिन्हें स्थानीय भाषा में मुजारा कहा जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जमींदार और मुजारा कृषि कार्य करने वाले एक ही जाति वर्ग के थे लेकिन भूमि के स्वामित्व के मामले में उनका सामाजिक स्तर भिन्न था। जब भारत ने स्वतंत्रता हासिल की और पंजाब सहित देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न भूमि सुधार कानून लागू किए गए तो पंजाब के मालवा पट्टी ने प्रसिद्ध पेप्सू मुजारा आंदोलन देखा, जिसका प्रमुख नारा था “भूमि खेती करने वाले की”। यह आंदोलन बड़ा सफल रहा और तत्कालीन जमींदारों से छुड़ाई गई अधिशेष भूमि को मुजारों या पट्टेदारों के बीच पुनर्वितरित किया गया। आंदोलन 1950 के दशक में शुरू हुआ और मुजारों का अधिशेष भूमि के पुनर्वितरण के लिए संघर्ष 1970 के दशक तक जारी रहा। भूमि के पुनर्वितरण को वास्तविक खेती करने वालों के अधीन लाने के लिए पंजाब लैंड रिफॉर्म एक्ट,1972 और पंजाब यूटिलाइजेशन ऑफ सरप्लस एरिया स्कीम, 1973 बनी। इससे पहले राज्य में ईस्ट पंजाब होल्डिंग्स (कंसोलिडेशन एंड प्रिवेशंन ऑफ फ्रेगमेंटेशन) एक्ट 1948, पंजाब सिक्योरिटी ऑफ लैंड टेन्यर्स एक्ट 1953 और पेप्सू टेनेंसी एंड एग्रीकल्चर लैंड एक्ट 1955 बन चुके थे। 1972 का लैंड रिफॉर्म एक्ट लागू होने के बाद उपरोक्त भूमि-सुधार कानून या तो निष्प्रभावी हो गए या उनके बहुत से प्रावधान 1972 के कानून में शामिल कर लिए गए। आजादी के बाद बने कानूनों के तहत प्रत्येक कृषि परिवार के लिए 18 एकड़ की सीमा निर्धारित की गई। पंजाब यूटिलाइजेशन ऑफ सरप्लस एरिया स्कीम की धारा-6 ने अधिशेष भूमि को पुनर्वितरित करने की प्रक्रिया निर्धारित की। इसके प्रावधान में स्पष्ट रूप से अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों के सदस्यों को पात्र लाभार्थियों के रूप में उल्लेख किया गया, लेकिन शासन ने अधिशेष भूमि का पुनर्वितरण करते समय उन पट्टेदार को प्राथमिकता दी जिनका भूमि पर कब्जा था। इस प्रकार कमजोर पिछड़ी जातियों के एक बड़े हिस्से के साथ-साथ राज्य की लगभग पूरी अनुसूचित जाति की आबादी को भूमि आवंटन के दायरे से बाहर रखा गया क्योंकि ये जातियां मुख्यत: कृषि श्रमिकों की भूमिका में थीं और उनका भूमि पर कब्जा नहीं था। भूमि से वंचित तबकों का आरोप है कि कई जमींदारों द्वारा समाज के गरीब वर्गों के बजाय कपटपूर्ण तरीके से अपने विश्वासपात्रों के पक्ष में अपनी अधिशेष भूमि हस्तांतरित करने के लिए “मिलीभगत वाले पट्टेदारों” की व्यवस्था की गई थी। इसका नतीजा यह निकला कि भूमि सुधारों के कार्यान्वयन में कई अन्य कमियों के साथ, पंजाब में अधिशेष भूमि के पुनर्वितरण में भारी असमानताएं पैदा हुईं। राज्य के अनुसूचित जाति के खेत मजदूर एक वाजिब प्रश्न उठाते हैं, “यदि भूमि-स्वामित्व का सिद्धांत यह है कि भूमि जोतने वाले की है, तो सदियों से राज्य की कृषि भूमि जोतने के बावजूद उन्हें भूमि पुनर्वितरण से क्यों छोड़ दिया गया है?” वर्तमान में अनुसूचित जातियों के लिए भूमि पर अधिकार का एकमात्र स्रोत शामलात भूमि है। गांवों में अनुसूचित जाति की आबादी के आवास की दृष्टि से भी शामलात भूमि का महत्व है। |
दलितों के लिए आरक्षित 33 प्रतिशत शामलात भूमि आमतौर पर अगड़ी जाति के लोग ही दलितों को मोहरा बनाकर हासिल कर लेते हैं। तरनतारन के कोहाड़का और फिरोजपुर के शेरपुर तख्तू वाला व वाडापोह पिंड गांव में इसी तरह जमीन हथियाई गई है। शेरपुर तख्तू वाला गांव के बलकार सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि गांव के कुल 300 परिवारों में करीब 150 घर दलितों के हैं, फिर भी वास्तविक और जरूरतमंद दलितों को कभी जमीन नहीं मिली। वह यह भी मानते हैं कि जमीन की बोली इतनी ऊंची होती है कि उसे हासिल करना दलितों के लिए मुश्किल है।
भूखंड का मुद्दा
पूर्व मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी के नेतृत्व वाली पिछली राज्य सरकार ने 20 सितंबर 2021 को अपनी पहली कैबिनेट बैठक में पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) रूल्स, 1964 के नियम 13-ए के अनुसार, जरूरतमंद दलितों को 5 मरले का भूखंड देने का आदेश दिया था। हालांकि, 2022 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद नवगठित आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस तरह के आवंटन को जारी रखने के संबंध में कोई निर्देश जारी नहीं किया और प्रक्रिया काफी हद तक ठप पड़ी है।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा 2016 में देशराज पुत्र खान चंद बनाम सब डिविजनल मैजिस्ट्रेट मामले में दिया गया आदेश 5 मरला भूखंड की कानूनी वैद्यता को मान्यता देता है। इस मामले में एक दलित सरपंच के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि उसने गांव की शामलात भूमि पर अवैध तरीके से घर बनवा रखा है। सरपंच को यह भूमि पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) रूल्स, 1964 के नियम 13-ए तहत ही आवंटित की गई थी। न्यायालय ने माना कि शामलात भूमि पर बना सरपंच का मकान कानून की दृष्टि से वैद्य है। न्यायालय के आदेश के बाद मजदूर और दलित संगठनों ने इस आदेश का हवाला देकर सरकार पर भूखंड देने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। पंजाब के बहुत से गांवों में दलित समाज भूखंड हासिल करने के लिए मुखर हो रहा है।
पिछले साल पूर्व मुख्यमंत्री चन्नी के आदेश के बाद पंजाब की कई पंचायतों ने दलितों को भूखंड देने का रेजोलूशन पास किया था और उन्हें प्रमाणपत्र भी जारी किए थे। कोहाड़का भी ऐसा ही गांव था। इससे पिंदर और गांव के अन्य दलित परिवारों में उम्मीद जगी थी क्योंकि अधिकांश दलित 2 से 3 मरले के बेहद छोटे से घर में किसी तरह गुजर-बसर करते हैं। बहुत से घरों में तो एक छोटे से कमरे में 5-6 सदस्य रहते हैं। पिंदर कौर के परिवार के 12 सदस्य भी 2 कमरों के छोटे से घर में रहते हैं।
रणजीत सिंह के अनुसार, “पंजाब के दलितों के पास रिहाइश के लिए बेहद कम जगह है। उनके घरों का आकार 50 साल पहले जो था, वही अब भी है। इस बीच उनके परिवार के सदस्यों में काफी वृद्धि हो चुकी है। 5 मरला का भूखंड इस कमी को पूरा कर सकता है, इसलिए राज्यभर में दलितों द्वारा इसकी मांग की जा रही है।” उनके अनुसार, चरणजीत सिंह चन्नी के आदेश के बाद 30 सितंबर 2021 को कोहाड़का गांव के सरपंच ने दलितों को 5 मरला भूखंड देने का रेजोलूशन पास कर दिया और डीएम के पास अर्जी भेज दी। डीएम ने अर्जी खंड विकास अधिकारी को प्रेषित कर दी। लेकिन इसी बीच राज्य में सरकार बदल गई और 5 मरला भूखंड की निशानदेही नहीं हो पाई।
रणजीत सिंह कहते हैं, “मौजूदा सरकार की इस मामले पर कोई स्पष्ट सोच नहीं है। सरकार ने न तो आधिकारिक रूप से दलितों को 5 मरला भूखंड देने के चन्नी सरकार के आदेश को रद्द किया है और न ही इस दिशा में कोई प्रगति की है। यही वजह है कि पंजाब के कई गांवों में असमंजस की स्थिति बनी हुई है।” भूखंड की मांग को लेकर कोहाड़का में आठ महीने से प्रदर्शन जारी है। गांव में लगभग 300 परिवार हैं जिनमें से लगभग 50 प्रतिशत दलितों के हैं। यहां कुल 15 एकड़ कृषि योग्य शामलात भूमि है, जिसमें से 33 प्रतिशत दलितों के लिए आरक्षित है।
कोहाड़का से करीब 52 किलोमीटर दूर फिरोजपुर जिले के चब्बा गांव की भी यही कहानी है। दलितों का कहना है कि ग्राम पंचायत ने गांव के 70 दलित परिवारों को भूखंड देने के लिए रेजोलूशन पास कर उन्हें प्रमाणपत्र भी वितरित कर दिए थे लेकिन धोखे से ये प्रमाणपत्र वापस ले लिए गए। ऐसे ही एक शख्स गुरुदास सिंह दिमाग पर जोर डालने के बाद बताते हैं, “3 जनवरी 2022 को पंचायत द्वारा भूखंड देने का प्रमाणपत्र जारी किया गया। मार्च में नई सरकार बनने के बाद खंड विकास अधिकारी ने यह कहकर प्रमाणपत्र वापस ले लिए कि इसमें दस्तखत और मुहर लगवाकर वापस कर देंगे। तब से अब तक उसकी बाट ही जोह रहे हैं।”
ग्रामीणों के अनुसार, चब्बा गांव में कुल 42 एकड़ शामलात भूमि है। इसमें 28 एकड़ में ऊंची जाति के लोगों का कब्जा और शेष करीब 15 एकड़ दलितों के लिए आरक्षित है। चब्बा के दलितों ने चुनाव के वक्त 15 एकड़ की आरक्षित भूमि में से तीन एकड़ जमीन पर 5-5 मरले के भूखंड की खुद ही निशानदेही कर चारदीवारी बना ली और पिछले साल मई में इस 3 एकड़ जमीन की बोली नहीं लगने दी। ग्रामीणों का कहना है कि ऊंची जाति के लोग हमें डरा रहे हैं और 3 एकड़ भूमि खाली करने का दबाव बना रहे हैं। वे खुलेआम धमकी देते हैं कि कुछ भी कर लो, भूखंड नहीं मिलेगा।
गांव में दलितों के प्रदर्शन का समर्थन कर रहे डीडीवीए से जुड़ी सुखविंदर कौर बताती हैं कि ऊंची जाति के लोगों के दबाव में प्रशासन द्वारा ग्रामीणों पर भूमि खाली करने का दबाव बनाया जा रहा है, लेकिन जब हमने ऊंची जाति के लोगों द्वारा शामलात भूमि पर किए गए कब्जे की ब्यौरा दिया तो प्रशासनिक अधिकारियों ने दबाव बनाना कम कर दिया। सुखविंदर के अनुसार, नवंबर के आखिरी हफ्ते में प्रशासन ने 3 एकड़ की गुपचुप तरीके से बोली लगाने की कोशिश की लेकिन जब हमने उन्हें यथास्थिति से अवगत कराया तो बोली रद्द कर दी गई। कोहाड़का और चब्बा की तरह ही फिरोजपुर के शेरपुर तख्तू वाला, वाड़ापोह पिंड में भी पंचायत के फैसले के बाद दलितों को भूखंड नहीं मिला। डीडीवीए निराश हो चुके इन गांवों के दलितों को संघर्ष के लिए एकजुट कर रहा है।
डीडीवीए की तरह ही पंजाब में मजदूरों के सात संगठनों का मोर्चा “सांझा मजदूर मोर्चा” भी लगातार शामलात के मुद्दे को न केवल गंभीरता से उठा रहा है, बल्कि पुरजोर तरीके से अपनी बात और नाराजगी से शासन को अवगत भी करा रहा है। इसी सिलसिले में मोर्चा ने 30 नवंबर 2022 को मुख्यमंत्री भगवंत मान के संगरूर स्थित आवास के बाहर बड़ा प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में करीब 10 हजार लोग शामिल हुए। मोर्चा में शामिल जमीन प्राप्ति संघर्ष कमिटी (जेडपीएससी) के अध्यक्ष मुकेश मलौध ने डाउन टू अर्थ को बताया कि प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने लाठियां भांजी और उन्हें पीछे धकेल दिया।
प्रदर्शनकारियों को उग्र होता देख प्रशासन ने 21 दिसंबर 2022 को मुख्यमंत्री के साथ बैठक कराने का आश्वासन दिया। मुकेश ने बताया कि इस 21 दिसंबर को हम सीएम से मुलाकात करने पहुंचे लेकिन मीटिंग में मुख्यमंत्री नहीं आए। वह यह भी बताते हैं कि मुख्यमंत्री इससे पहले भी कई बार मीटिंग का समय दे चुके हैं लेकिन हर बार मीटिंग रद्द कर दी गई। मुकेश कहते हैं कि सरकार पहले ही शामलात से जुड़ी कई मांगों को मान चुकी है। लेकिन उन्हें लागू करने की दिशा में अब तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर व शामलात के मुद्दों की गहरी समझ रखने वाली पंपा मुखर्जी दलितों के भूमि संघर्ष को उनकी अस्मिता से जोड़ते हुए बताती हैं कि पंजाब की सामंती व्यवस्था में दलितों का अगड़ी जातियों द्वारा बहुत शोषण हुआ है। उनका मानना है, “जमीन के लिए उनका संघर्ष केवल अस्तित्व ही नहीं बल्कि उनकी सामूहिक पहचान का भी है। जमीन के साथ उनका वजूद भी जुड़ा है।”
शामलात पर गिद्ध दृष्टि
पंजाब में दलितों के लिए आरक्षित कृषि योग्य शामलात भूमि बड़े पैमाने पर अनियमितताओं की शिकार है। सबसे बड़ी समस्या अगड़ी जाति के लोगों द्वारा किसी दलित को मोहरा बनाकर शामलात हथियाने की है, जैसा कोहाड़का और शेरपुर तख्तू वाला गांव में देखने को मिला है। इस तरह कागजों में शामलात भूमि दलित के नाम दर्ज हो जाती है लेकिन उसमें खेती अगड़ी जाति के लोग ही करते हैं। इससे दलित कोटे की भूमि की बोली राशि में कृत्रिम बढ़ोतरी हो जाती है और गरीब मजदूरों के लिए इसमें शामिल होना मुश्किल हो जाता है।
दलितों के हिस्से की एक तिहाई जमीन की बोली की प्रक्रिया में कानून का शुरुआत से ही पालन नहीं हो रहा है। पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) रूल्स, 1964 के नियम-6 (10) (1) में प्रावधान के मुताबिक, बोली लगने के कम से 15 दिन पहले उसका इस्तहार देना होता है। ज्यादातर गांवों में स्थानीय गुरुद्वारे अथवा लाउडस्पीकर के जरिए केवल एक दिन पहले ही बता दिया जाता है कि कल शामलात की बोली लगने वाली है और जो इच्छुक हैं वे बोली में भाग ले सकते हैं। ऐसे में आर्थिक रूप से पिछड़े दलितों को बोली में शामिल होने के लिए धन जुटाना बेहद मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में अगड़ी जाति के बड़े जमींदार किसी दलित को बोली के पैसे देकर उसे बोली में शामिल कर दलितों के हिस्से की जमीन आसानी से हथिया लेते हैं।
पंजाब सरकार ने 9 मई 2014 को जारी एक अधिसूचना के जरिए शामलात भूमि की नीलामी की पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता के लिए वीडियो रिकॉर्डिंग अनिवार्य की थी, लेकिन जमीन पर इसका पालन नहीं देखा जाता। 2022 में मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद भगवंत मान ने भी अधिकारियों को नीलामी प्रक्रिया में वीडियोग्राफी की हिदायत दी थी, लेकिन शायद ही उनके आदेश पर अमल हुआ।
कानून के अनुपालन में इन तमाम कमियों के चलते दलितों के आरक्षित शामलात भूमि पर माफिया के साथ भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों की नजर है। ये लोग अपनी ताकत और पद का दुरुपयोग कर शामलात भूमि हथिया रहे हैं। अदालत में शामलात पर अतिक्रमण से जुड़ीं एक के बाद एक याचिकाएं आने पर 2007 में उच्च न्यायालय ने मई 2012 में जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पैनल गठित किया था।
याचिकाओं में आरोप था कि मोहाली जिले और चंडीगढ़ के आसपास के गांवों की शामलात व वन भूमि पर कब्जा है। पैनल ने 2013 में जारी अपनी रिपोर्ट में पाया कि कई राजनेता, पुलिस अधिकारी और नौकरशाह इसमें लिप्त हैं। उसने मोहाली के 38 गांवों के रिकॉर्ड खंगाले और पाया कि करीब 35 हजार संपत्तियों की फरीद-फरोख्त हुई है। यहां 25 हजार एकड़ पर अवैध कब्जा मिला।
इस साल की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार से जस्टिस कुलदीप सिंह की रिपोर्ट पर चंडीगढ़ की परिधि में शामलात भूमि पर कब्जे पर की गई कार्रवाई का ब्यौरा मांगा था। हाल ही में पंजाब सरकार ने दावा किया कि उसने 26 हजार से अधिक शामलात भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कराया है। शामलात पर कब्जे का एक बड़ा मामला लुधियाना के पास सतलुज नदी के किनारे मत्तेवाड़ा जंगल का भी है। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने जुलाई 2020 में यहां औद्योगिक पार्क बनाने के लिए 955 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था जो वन क्षेत्र व कुछ गांवों की शामलात का हिस्सा थी। इस अधिग्रहण के विरोध में न केवल दलित बल्कि आम जनता भी खड़ी हो गई। मौजूदा सरकार की शुरू में विवादित औद्योगिक पार्क बनाने की मंशा थी, लेकिन विरोधी दलों, किसान संगठनों और आम लोगों के भारी विरोध को देखते हुए उसे जुलाई 2022 में इस परियोजना को रद्द करना पड़ा।
इस तरह पंजाब में शामलात भूमि का दलितों को आवंटन और व्यवसायिक परियोजनाओं के लिए इसका अधिग्रहण भूमि संघर्ष के केंद्र हैं। दलित और मजदूर संगठन समय-समय पर शामलात पर अधिकार और उसके आवंटन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। डीडीवीए ऐसा ही एक समूह है जो 1998 से सक्रिय है। यह समूह ग्रामीण दलितों को शामलात भूमि की बोली में सामूहिक रूप से शामिल होने और सामूहिक खेती के लिए प्रेरित करता है। जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति (जेडपीएससी) भी मालवा क्षेत्र में इस मुद्दे पर बहुत मुखर है। शामलात का मुद्दा केवल दलितों के भूमि अधिकार तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे पंजाब की संस्कृतिक धरोहर है। राज्य में जंगलों की कमी है। शामलात भूमि व संरक्षित वन क्षेत्र राज्य के हरित आवरण का मुख्य स्रोत है जो तेजी से हो रहे शहरीकरण के चलते कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहा है।
अंग्रेजों के जमाने के भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 को उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 (संक्षेप में भूमि अधिग्रहण कानून, 2013) प्रतिस्थापित किए जाने के बाद से शामलात का महत्व और बढ़ गया है। वह इसलिए क्योंकि नए कानून के तहत भूमि अधिग्रहित करने के लिए पहले सामाजिक प्रभाव आकलन अनिवार्य है और सार्वजनिक–निजी परियोजनाओं के लिए 70 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की सहमति और निजी परियोजनाओं के लिए 80 प्रतिशत परिवारों की सहमति जरूरी है। इस तरह नए भूमि अधिग्रहण कानून ने सरकारों के हाथ बांध दिए हैं। इसलिए अब बड़े पूंजीपति सरकारी मदद से शामलात भूमि पर नजरें गड़ाए हैं।
कानून में संशोधन
उद्योगपतियों को आसानी से शामलात भूमि मुहैया कराने के उद्देश्य कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 2019 में ग्रामीण विकास एवं पंचायत विभाग के उस प्रस्ताव को हरी झंड़ी दी थी जिसमें पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) रूल्स 1964 में नियम-12 बी शामिल किया जाना था। इस नियम के मुताबिक, उद्योग विभाग और पंजाब स्मॉल इंडस्ट्रीज एंड एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन द्वारा शुरू की गई औद्योगिक परियोजनाओं के लिए शामलात भूमि स्थानांतरित की जा सकती थी।
कानून में इस संशोधन की भनक लगते ही मजदूरों, दलित और किसान संगठनों ने बड़े स्तर पर विरोध शुरू कर दिया। यह संशोधन 2011 में उच्चतम न्यायालय के जस्टिस मार्कंडेय काटजू द्वारा जगपाल सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य मामले में दिए गए आदेश का खुला उल्लंघन था। जस्टिस काटजू ने अपने आदेश में स्पष्ट तौर पर कहा था, “राज्य सरकारों ने बहुत से आदेश जारी कर ग्रामसभा की भूमि को निजी व्यक्तियों एवं व्यवासयिक उद्यमों को पैसे लेकर हस्तांतरित की है। हमारा मानना है कि इस तरह के आदेश अवैध हैं और इससे बचना चाहिए।”
अमरिंदर सरकार ने कानून में संशोधन के उपरोक्त प्रस्ताव को भले ही मंजूरी दे दी हो लेकिन आधिकारिक गजट में उसे शामिल नहीं किया। लगता है कि सरकार को अंदेशा हो गया था कि संशोधन लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो जाएगा, इसलिए उसने इस मामले में चुप्पी साध ली।
अब पंजाब सरकार ने सितंबर 2022 में विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) एक्ट, 1961 में एक और संशोधन को कैबिनेट मंजूरी दी। किसान यूनियनों ने इस संशोधन का कड़ा विरोध किया। दरअसल, पंजाब सरकार ने “हरियाणा राज्य बनाम जय सिंह” मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, उक्त अधिनियम की धारा 2 (जी) में “जुमला मुश्तरका मालकान” भूमि को “शामलात देह” की परिभाषा के भीतर शामिल करने के लिए कैबिनेट मंजूरी दी है।
गुरनाम सिंह चढूनी के नेतृत्व में संशोधन के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले किसान संगठनों का आरोप है कि इस संशोधन के जरिए सरकार गांव की शामलात भूमि को कॉरपोरेट घरानों के हवाले करना चाहती है। वहीं दूसरी तरफ अधिकांश मजदूर संगठनों ने संशोधन पर अपने रुख को स्पष्ट नहीं किया है। वे संशोधन पर और स्पष्टता की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुकेश मलौध कहते हैं कि जुमला मुश्तरका मालकान भूमि को शामलात की परिधि में लाने पर उसे वार्षिक नीलामी में शामिल किया जा सकता है तो कानून में संशोधन दलितों के हित में होगा क्योंकि इसी जमीन से उन्हें भूखंड मिलने हैं और यही जमीन नीलामी में शामिल होती है। वह यह भी कहते हैं कि अगर यह जमीन कॉरपोरेट को दी जाती है तो इसका विरोध किया जाएगा। बहुत से दलित, मजदूर इस संशोधन से अनभिज्ञ भी हैं।
जुमला मुश्तरका मालकान वह भूमि है जो जमाबंदी के वक्त सामुदायिक उद्देश्यों के लिए ली गई थी। कानूनन इस जमीन का प्रबंधन और नियंत्रण पंचायत के पास था, लेकिन इसका न तो इसका सामुदायिक उपयोग हो सका और न ही यह वास्तव में पंचायत के अधीन रही। इन जमीनों पर उन्हीं काश्तकारों का कब्जा रहा जिनसे यह ली गई थी। मौजूदा संशोधन के बाद अगर यह जमीन शामलात के दायरे में आ गई तो किसानों को कब्जा छोड़ना पड़ेगा, जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं।
क्या है समाधान
आजादी के सात दशकों में दलितों को भूमि अधिकारों से वंचित करने की बहुत कोशिश हुई है। हमारे सामाजिक और राजनीतिक ढांचे ने इस प्रवृत्ति को बल दिया है। इस भेदभावपूर्ण प्रवृत्ति को बदलने के लिए राज्य सरकार द्वारा तत्काल प्रभाव से असाधारण उपाय करने होंगे। इस दिशा में पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम “पंजाब शामलात ट्रिब्यूनल” की स्थापना होनी चाहिए जो विशेष रूप से शामलात भूमि पर दलितों के भूमि अधिकारों से संबंधित मामलों को देखे।
ट्रिब्यूनल के गठन के पीछे तर्क यह है कि गांव की शामलात भूमि की वार्षिक नीलामी अप्रैल और मई के महीनों में आयोजित की जाती है, जिसके बाद जून में धान की बुवाई का मौसम होता है। जिन आवंटियों को नीलामी प्रक्रिया में खामियों के चलते भूमि मिल जाती है, वे आमतौर पर आवंटित भूमि में बिना समय गंवाए धान की बुवाई कर देते हैं। एक बार धान की बुवाई हो जाने के बाद भूमि से वंचित वास्तविक दावेदार के लिए ऐसी भूमि पर अदालत के माध्यम से अंतरिम स्थगन आदेश प्राप्त करना मुश्किल होता है क्योंकि बोए गए धान की देखभाल किसी को करनी होती है। संयोग से, उच्च न्यायालय का ग्रीष्मकालीन अवकाश भी जून के महीने में पड़ता है जिसमें उच्च न्यायालय वेकेशन बेंच के रूप में कम क्षमता के साथ काम करता है। कोविड लॉकडाउन के दौरान लंबित मामलों के कारण पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय पर अत्यधिक बोझ है।
इतना ही नहीं, अंतिम बहस से पहले प्रतिवादियों को तलब और जवाब प्राप्त करने के लिए औसतन 2-4 महीने का समय लगता है। इस प्रकार यदि कोई याचिकाकर्ता नीलामी में धांधली का दावा करता है और अदालत में पहली सुनवाई पर आवंटित भूमि पर अंतरिम रोक प्राप्त करने में विफल रहता है, तो आवंटी (अलॉटी) याचिका के अंतिम बहस के चरण तक पहुंचने से बहुत पहले आसानी से ऐसी भूमि पर धान बोने में सक्षम होगा।
वहीं दूसरी तरफ यदि यह मान लिया जाता है कि न्यायालय अप्रैल और मई के महीनों में दायर अधिकांश याचिकाओं में अंतरिम स्थगन देने में सक्षम है, तो इससे राज्य का धान उत्पादन प्रभावित होगा। न्यायालय द्वारा इस तरह के अंतरिम स्थगन के कारण हजारों एकड़ शामलात भूमि बुवाई के बिना रह जाएगी। ऐसी स्थिति से बचने के लिए यह केवल व्यवहार्य है कि राज्य सरकार माननीय उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक शामलात ट्रिब्यूनल का गठन करे, जिसमें ऐसे दो अन्य सदस्यों को शामिल किया जाए जिन्हें राज्य में भूमि और राजस्व मामलों का गहन अनुभव हो। यह उपाय दलितों और भूमिहीन मजदूरों के लिए क्रांतिकारी हो सकता है।
दूसरा, वार्षिक नीलामी में गांव की शामलात भूमि के भुगतान के तरीकों में तत्काल सुधार की आवश्यकता है। वर्तमान में बोली लगाने वाले को नीलामी के दिन ही पट्टे की पूरी राशि का भुगतान करना आवश्यक है। गांव का गरीब तबका एकाएक इतनी राशि जुटाने में असमर्थ रहता है। इसलिए यह जरूरी है कि राज्य सरकार द्वारा एक आसान किस्त प्रणाली शुरू की जाए ताकि बोली लगाने वाले गरीबों को साल में तीन से चार किस्तों में ऐसे पट्टे की राशि का भुगतान का समय मिल सके। यह उपाय प्रभावशाली तबके द्वारा डमी उम्मीदवारी को भी हतोत्साहित करेगा।
तीसरा, शामलात भूमि की प्रत्येक नीलामी का वीडियोग्राफिक रिकॉर्ड ग्राम पंचायत और बीडीपीओ कार्यालय के पास होना चाहिए। यदि कोई गैर कानूनी नीलामी से पीड़ित निवासी इस प्रक्रिया को देखना चाहता है तो उसे यह वीडियो बिना आरटीआई (सूचना के अधिकार) का इस्तेमाल किए सुलभता से मिलना चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि आरटीआई की प्रक्रिया में समय खराब किए बिना नीलामी के वीडियो के आधार पर जल्द से जल्द कोर्ट में मुकदमा दायर किया जा सके।
चौथा, सरकार द्वारा शामलात भूमि सुधार आयोग का गठन किया जाना चाहिए, जो शामलात भूमि का सबसे उत्तम उपयोग सुनिश्चित करे। गैर-कृषि योग्य शामलात भूमि गांव के निवासियों की कृषि उद्यमिता को बढ़ाने और अंततः ग्रामीण गरीबी खत्म करने में महत्वपूर्ण हो सकती है। डेयरी फार्मिंग, बागवानी, सुअर पालन आदि जैसे लघु व्यवसाय स्थापित करने के लिए भूमिहीन मजदूरों या अनुसूचित जाति के निवासियों को ऐसी सामान्य भूमि बड़े पैमाने पर आवंटित की जानी चाहिए।
पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) रूल्स, 1964 के नियम-3 के तहत पंचायत को लघु व्यवसाय की एक विस्तृत श्रृंखला स्थापित करने का अधिकार देने वाला प्रावधान पहले ही प्रदान किया जा चुका है। हालांकि, उपरोक्त प्रावधान का अब तक प्रभावी उपयोग नहीं हुआ है।
पंजाब में शामलात को लेकर चल रहे संघर्षों की एक विस्तृत श्रृंखला है। यदि उचित विशेषज्ञता, संवेदनशीलता और अपेक्षित राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ इससे निपटा जाता है तो चुनौतियों को अवसरों में बदला जा सकता है। यह कहने में भी हर्ज नहीं है कि शामलात भूमि पंजाब की ग्रामीण गरीबी दूर करने की कुंजी हो सकती है।