ग्रामदान की वर्तमान चुनौतियां और कानूनी उलझनें

हमारे देश में ग्रामदानी व्यवस्था पचास वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है। लेकिन जो गांव उस दौर में ग्रामदान को स्वीकार कर चुके थे, वे अब उससे पीछे हटना चाहते हैं
ग्रामदानी गांव मेढ़ा लेखा की फाइल फोटो: सीएसई
ग्रामदानी गांव मेढ़ा लेखा की फाइल फोटो: सीएसई
Published on
Summary
  • ग्रामदान की अवधारणा, जो 1950-60 के दशक में उभरी थी, आज कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियों का सामना कर रही है।

  • राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में ग्रामदानी गांवों की संख्या घट रही है।

  • सरकारी योजनाओं का लाभ न मिलना और कानूनी सुरक्षा की कमी इस व्यवस्था को कमजोर कर रही है। युवाओं के बीच जागरूकता की कमी भी एक बड़ी चुनौती है।

  • असम सरकार ने सितंबर 2022 में ग्रामदान और भूदान कानून को निरस्त करने का निर्णय लिया, जिससे सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा पर सवाल उठे।

  • देश के 8 राज्यों में 3,660 ग्रामदानी गांव हैं, लेकिन कई जगह यह व्यवस्था केवल कागजों तक सीमित है।

  • ग्रामदान की कानूनी उलझनें और राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी इस व्यवस्था के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं।

सितंबर 2022 में असम सरकार ने ग्रामदान कानून और भूदान कानून को निरस्त करने का निर्णय लिया। उस समय राज्य में 312 ग्रामदानी गांव दर्ज थे। यह निर्णय बिना किसी सार्वजनिक चर्चा या जागरूकता के लिया गया। इससे एक बार फिर यह सवाल उठा कि मौजूदा समय में ग्रामदान जैसे सामूहिक स्वामित्व के विचार की समझ और राजनीतिक प्रतिबद्धता कितनी संकुचित हो गई है।

फिलहाल देश के 8 राज्यों—आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश —में लगभग 3,660 ग्रामदानी गांव हैं। इन गांवों की सबसे अधिक संख्या—1,309—ओडिशा में है । लेकिन इसके बावजूद कई जगह यह आंकड़ा सिर्फ कागज तक ही सीमित है। झारखंड और बिहार, जहां लगभग 1,600 ग्रामदानी गांव दर्ज हैं, में कई ग्रामसभा की बैठकें बंद हो चुकी हैं। यहां तक कि नई पीढ़ी इस व्यवस्था से ही अनभिज्ञ नजर आती है।

भूदान से अलग है ग्रामदान की परिभाषा

ग्रामदान का विचार 1950–60 के दशक में भूदान आंदोलन के साथ उभरा था। ग्रामदान आंदोलन पर लिखी किताब द अर्थ इज द लॉर्ड्स, सागा ऑफ भूदान-ग्रामदान मूवमेंट के अनुसार, भूदान आंदोलन का अर्थ था बड़े भूस्वामियों द्वारा भूमिहीनों के लिए भूमि का दान करना। वहीं ग्रामदान का अर्थ है कि गांव में रहने वाले सभी बालिग स्त्री-पुरुष अपनी जमीन का व्यक्तिगत मालिकाना हक ग्रामसभा के नाम कर देते हैं। यह एक निर्णायक अंतर है, क्योंकि यहां जमीन किसी ट्रस्ट या संस्था को नहीं दी जाती। इसके उलट, पूरे गांव की सामूहिक स्वामित्व व्यवस्था बनती है। इस व्यवस्था में मौजूदा भू-स्वामी जमीन पर खेती जारी रखने के साथ-साथ उससे जुड़े लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन कोई बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता है।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहे विनोबा भावे ने 1951 में हैदराबाद के पास पोचमपल्ली गांव में एक घटना से प्रेरणा ली थी। एक जमींदार के बेटे रामचंद्र रेड्डी ने भूमिहीनों के लिए अपनी जमीन दान करने की पेशकश की थी। इससे प्रभावित होकर भावे ने देशभर में भूस्वामियों से अपील की कि वे अपनी भूमि का एक हिस्सा भूमिहीनों को दान दें- यह भूदान आंदोलन की शुरुआत थी।

अपनी पदयात्राओं में भावे ने देखा कि गांव सामूहिक रूप से अपनी पूरी जमीन ग्रामसभा को सौंपने के लिए भी तैयार हो सकते हैं। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि हर व्यक्ति न केवल जमीन का हिस्सा दे, बल्कि अपनी आय का 1/40वां भाग भी साझा कोष में डाले, जिससे भूमिहीनों और समुदाय के भले के लिए संसाधन जुटें। यही अवधारणा आगे चलकर ग्रामदान कहलायी, जिसे गांधीजी के ग्राम स्वराज के विचार का व्यावहारिक रूप माना जाता है।

महाराष्ट्र में मेंढा-लेखा खुद को कानूनी तौर पर ग्रामदानी घोषित करने वाला अब तक का अंतिम गांव है।

संघर्ष के बीच फंसे ग्रामदानी गांव

ग्रामदानी व्यवस्था पचास वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है। जो गांव उस दौर में ग्रामदान को स्वीकार कर चुके थे, वे अब उससे पीछे हटना चाहते हैं। वर्ष 1965 तक राजस्थान के कुल 426 ग्रामों ने ग्रामदान व्यवस्था को स्वीकार किया था। हालांकि, उस समय ग्रामदान बोर्ड का गठन नहीं हो पाया था। लेकिन वर्ष 1971 में सभी पुराने नियमों को खारिज करते हुए नया राजस्थान ग्रामदान अधिनियम लागू हुआ। देश के बाकी राज्यों की तुलना में राजस्थान के गांवों में ग्रामदान को बेहतर तरीके से स्वीकार और संचालित​ किया जाता रहा। 

बीते कुछ सालों में राजस्थान में भी हालात बदलने लगे हैं। डूंगरपुर जिले में कई ग्रामदानी गांवों में ग्रामसभा अध्यक्षों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। ऐसे मामले भी सामने आए जहां पाया गया कि अध्यक्षों ने बिना मान्यता के जमीनों का आवंटन कर दिया। कुछ ग्रामदानी गांवों में बाहरी लोगों ने जमीनों पर कब्जा किया। इन घटनाओं के बाद जो गांव ग्रामदानी व्यवस्था से पीछे हटना चाहते थे, उन्होंने ‘ग्रामदानी हटाओ संग्राम समिति’ का निर्माण किया और अब वे अपनी जमीनें वापिस लेने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। 

इस मामले से जाहिर है कि जब समुदाय में पारदर्शिता, सक्रियता और ग्रामसभा की कमजोर समझ हो, तो संविधान या कानून की मौजूदगी भी मायने नहीं रखती। 

महाराष्ट्र का हाल भी इसी ओर इशारा करता है। राज्य में केवल 20 कानूनी ग्रामदानी गांव हैं। यहां ग्रामदान का विरोध होने का मुख्य कारण है किसानों को सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में दिक्कत आना। वर्ष 2022 में तेज बारिश और बाढ़ के कारण सोयाबीन की फसल को काफी नुकसान हुआ था। किसानों ने नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत मुआवजा पाने के लिए आवेदन किया, लेकिन बड़े स्तर पर आवेदन निरस्त कर दिए गए। बीमा कंपनी ने यह कहते हुए मुआवजा देने से इंकार कर दिया कि कृषि भूमि उनके नाम पर नहीं है। जबकि बीमा करते समय कंपनी ने इस बारे में किसानों को कोई जानकारी नहीं दी थी। किसानों ने बीमा कंपनी को समय पर छह हजार रुपए का प्रीमियम भी दिया था। लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई राहत नहीं मिली। 

इसी तरह जो किसान प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का लाभ लेना चाहते हैं, उन्हें भी इसी चुनौती से जूझना पड़ रहा है। किसानों के पास मापदंड से कम जमीनें हैं, पर वे सीधे तौर पर उसके मालिक नहीं है। ग्रामदानी के तहत ग्रामसभा के पास ही मालिकाना हक है। 

कुछ ग्रामदानी गांवों में लोगों को यह भी लगता है कि समय के साथ खेती से होने वाली आय कम हो गई है और जमीन के लेन-देन या उपयोग पर लागू पाबंदियां उनकी आर्थिक संभावनाओं को सीमित कर देती हैं। लेकिन यही ग्रामदान की मूल विशेषता भी है। जमीन व्यक्तिगत स्वामित्व में न रहकर पूरे गांव के सामूहिक स्वामित्व में होती है। इसलिए उसके उपयोग पर निर्णय ग्रामसभा के स्तर पर लिया जाता है।

ऐसी ही स्थिति राजस्थान के कई गांवों में भी देखी जा सकती है। वहां गांवों के बीच से एक्सप्रेसवे और हाईवे गुजरने लगे हैं, जिससे कृषि भूमि पर सीधा असर पड़ा है। जयपुर और आसपास के इलाकों में जमीन की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, और यह बदलाव कई ग्रामदानी गांवों के लोगों के लिए आकर्षक विकल्प बन गया है। यही कारण है कि कुछ इलाकों में ग्रामदान के प्रति लोगों का जुड़ाव कम होने लगा है और वे इस व्यवस्था से बाहर निकलने के रास्ते खोजने लगे हैं।

ग्रामदान की कानूनी कमजोरी

ग्रामदान वह व्यवस्था है, जिसमें अंतिम और बाध्यकारी निर्णय ग्रामसभा लेती है। यह अधिकार हर क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकारों और समुदाय के बीच ग्रामदान को लेकर कई कानूनी दिक्कतें हैं। इसका एक उदाहरण है, राजस्थान ग्रामदान अधिनियम 1971 की धारा 43 को हटाना। इसके तहत ग्रामदानी ग्राम सभा को पंचायत के समान शक्तियां दी गई थी, पर अब ऐसा नहीं है। अगर ग्राम पंचायत में सरपंच ग्रामदानी गांव के पक्ष में नहीं है, तो ग्रामदानी गांव का विकास ही रुक जाता है। धारा 43 हटने के बाद राज्य में ग्रामदानी गांवों की संख्या लगातार गिर रही है। 

भले ही ग्रामदान में सरकार सीधे जमीन नहीं ले सकती, लेकिन कई जगह ग्रामदानी गांवों की ग्राम सभाएं अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं। वर्ष 2014 में विदर्भ भूदान-ग्रामदान सहयोग समिति, नागपुर की ओर से पश्चिम असम के बोको और कामरूप जिलों के छह गांवों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि ग्रामदान गांवों में पंचायत की शक्तियों का अभाव है। इससे उनके कल्याण और विकास पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। 

इतना ही नहीं कई राज्यों में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम यानि पेसा अभी पूरी तरह लागू नहीं हुआ है, जिससे ग्रामदान जैसी व्यवस्थाएं भी कानूनी सुरक्षा से वंचित हैं। गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में तो ग्रामदान का कोई सीधा कानूनी नाता ही नहीं है, जिससे वहां ग्रामसभा के फैसले अक्सर प्रशासनिक आदेशों के आगे कमजोर पड़ जाते हैं।

सक्रिय मॉडल और उनसे मिलने वाले सबक

इन चुनौतियों के बीच कुछ गांव ऐसे हैं, जिन्होंने ग्रामदान का जीवंत उदाहरण पेश किया है। जैसे, महाराष्ट्र का मेंडा (लेखा) गांव इस सूची में अग्रणी है। यहां पिछले दशक से ग्रामसभा की “अभ्यास मंडल” प्रणाली काम कर रही है, जहां सभी वयस्क नियमित रूप से बैठकर साझा मुद्दों पर चर्चा करते हैं। वर्ष 2013 तक ग्रामसभा ने सामूहिक स्वीकृति के साथ अपनी पूरी कृषि भूमि को ग्रामसभा के नियंत्रण में दे दिया था। इस पहल ने जमीन को किसी बाहरी या व्यक्तिगत स्वार्थ से सुरक्षित रखा। ग्रामसभा ने सरकार से अधिनियम के अनुपालन की मांग करते हुए कार्रवाई भी शुरू कर दी है।

राजस्थान का सीड गांव भी इसी दिशा में संतुलित मिसाल पेश करता है। यह गांव ग्रामदान कानून के दायरे में है। यहां ग्रामसभा ने जल, जंगल और चरागाह जैसे साझा संसाधनों के प्रबंधन में सक्रिय और संगठित भूमिका निभाई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जब ग्रामीण परंपरा, ग्रामसभा की स्वीकार्यता और भागीदारी मजबूत हो, तो सामूहिक स्वामित्व न केवल उपयोगी साबित होता है, बल्कि संसाधनों के संरक्षण और साझा लाभ के लिए और अधिक प्रभावी बन जाता है।

हालांकि, शहरीकरण के बीच किसानों में खेती से दूर जाने और जमीन बेचने की प्रवृत्ति बढ़ी है। प्रकृति की मार से उपज में आने वाली कमी भी किसानों के बीच असंतोष पैदा कर रही है। सरकारी योजनाओं से दूरी और कानून की जटिलताओं के कारण युवा किसान भी ग्रामदान व्यवस्था से दूरी बना रहे हैं। 

 कुछ जरूरी कदम और आगे की राह

  • मौजूदा अधिनियमों की धारा और नियम इतने स्पष्ट हों कि ग्रामसभा के अधिकार किसी भी सरकारी परियोजना या विकास योजना में कमजोर न पड़ें।

  • पेसा जैसे कानूनों से ग्रामदान का तालमेल बढ़ाना जरूरी है, ताकि अनुसूचित क्षेत्रों में यह दोहरी कानूनी सुरक्षा पा सके।

  • जिला और तहसील स्तर पर प्रशासनिक अधिकारियों को ग्रामदान की अवधारणा और कानूनी स्थिति के बारे में नियमित प्रशिक्षण दिया जाए।

  • सरकारी योजनाओं में ग्रामदानी गांवों को भी शामिल करने के लिए जरूरी प्रक्रियाओं को स्पष्ट और सरल बनाया जाए, ताकि भूमि के सामूहिक स्वामित्व के कारण कोई योजना अटक न जाए।

  • सबसे जरूरी है कि युवाओं के साथ मिलकर ऐसे तरीके खोजे जाएं, जिनसे गांव का विकास भी हो और ग्रामदान की व्यवस्था भी बनी रहे। 

वर्ष 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और वहां का साम्यवादी (कम्युनिस्ट) ढांचा खत्म हो गया। इसके बाद वहां कोई मजबूत वैकल्पिक व्यवस्था नहीं थी, इसलिए समाज और अर्थव्यवस्था तेजी से पूंजीवादी मॉडल की ओर लौट गए। कई पुरानी असमानताएं और निजी स्वामित्व की व्यवस्थाएं फिर से लौट आई। सोवियत संघ का यह इतिहास दिखाता है कि विकल्प के बिना समाज अक्सर पुराने ढांचे की ओर लौट जाता है। ग्रामदान यही विकल्प है, जो पुराने, असमान जमींदारी या पूंजीवादी ढांचे से अलग और लोकतांत्रिक है। लेकिन यह तभी काम करेगा, जब इसकी मूल अवधारणा को नयी पीढ़ी के बीच लगातार जिंदा रखा जाए।

ग्रामदान आंदोलन से जुड़े और द अर्थ इज द लॉर्ड्स, सागा ऑफ भूदान-ग्रामदान मूवमेंट किताब के लेखक पराग चोलकर के विशेष योगदान के साथ, इस लेख को पूजा राठी और जूही मिश्रा ने तैयार किया है। यह लेख इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर, हिंदी) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र मीडिया प्लेटफार्म है। ऑरीजनल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in