आवरण कथा, खतरे में हिल स्टेशन: शिमला और मनाली की तबाही के लिए दोषी कौन?

नाजुक हिमालय में बसे खूबसूरत शहर शिमला व मनाली इस मॉनसून में त्रासदी की भेंट चढ़ गए। आपदा के सवालों का जवाब खोजती रिपोर्ट
हिमाचल प्रदेश में इस बार माॅनसूनी वर्षा विनाशकारी साबित हुई। कई सड़कें और पुल भीषण वर्षा में बह गए (फोटो: प्रदीप कुमार)
हिमाचल प्रदेश में इस बार माॅनसूनी वर्षा विनाशकारी साबित हुई। कई सड़कें और पुल भीषण वर्षा में बह गए (फोटो: प्रदीप कुमार)
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- आशुतोष कुमार - 

हिमालयी राज्यों में पर्यटन का केंद्र बने पहाड़ी शहरों में बढ़ रही आपदाओं की पड़ताल करती यह रिपोर्ट डाउन टू अर्थ, हिंदी पत्रिका की आवरण कथा की दूसरी कड़ी हैत्र इससे पहले की कड़ी में आपने पढ़ा: आवरण कथा, खतरे में हिल स्टेशन: क्या जोशीमठ के 'सबक' आ सकते हैं काम?    

माना जाता है कि शिमला शहर 18वीं शताब्दी में एक घना जंगल था। 1864 में शिमला को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया और बाद में यह पंजाब की राजधानी बना। शिमला की आबादी तेजी से बढ़ी है। वहनीय क्षमता से कई गुना आबादी बढ़ी है और इसके बुनियादी ढांचे का विकास भी तेजी से हुआ है। लेकिन विकास अवैज्ञानिक और अवैध तरीके से हुआ है। सबसे नाजुक पारिस्थितिकी में ईंट और कंक्रीट के ढांचे बनाए गए हैं। 13 से 16 अगस्त, 2023 के बीच मूसलाधार बारिश से यह शहर पूरी तरह हिल गया।

एशियन डेवलपमेंट बैंक और यूके स्थित फॉरेन कॉमनवेल्थ एंड डेवलपमेट ऑफिस (एफसीडीओ) के सीनियर क्लाइमेट चेंज अडवाइजर डॉक्टर वीरेंद्र शर्मा कहते हैं कि शिमला के प्राचीन इकोसिस्टम बनाने वाले डेढ़ सदी पुराने देवदार पलभर में ध्वस्त हो गए। शिमला का प्रतिष्ठित रिज हो या मॉल या फिर ऐतिहासिक वाइसरीगल लॉज सभी प्रभावित हुए। कई जगह सड़कें धंस गईं। वाइसरीगल लॉज को राष्ट्रपति निवास भी कहा जाता है। कहा जाता था कि 1880 में बनी इस इमारत पर भूकंप का भी कोई असर नहीं होगा लेकिन वह भी प्रभावित हुई। शर्मा आगे कहते हैं कि शिमला के हेरिटेज जोन और उसके आस-पास दरारें दिखाई देने से पता चलता है कि शहर पर मंडराती आपदाओं का खतरा कितना ज्यादा है। जलवायु परिवर्तन ने इस खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि शिमला में इमारतों का गिरना और भूस्खलन बड़े पैमाने पर अव्यवस्थित निर्माण, स्थलाकृति के क्षरण, प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली को अवरुद्ध किए जाने और खड़ी पहाड़ी ढलानों पर अधिक बोझ के कारण मानव प्रेरित आपदा है। शर्मा कहते हैं कि पहाड़ी शहरों की अपनी एक अंतर्निहित नाजुकता है और इसके पर्यावरण की वहनीय क्षमता की एक सीमा है। हमें प्लानिंग, डिजाइन और गवर्नेंस में इस बात का ध्यान रखना चाहिए। दुर्भाग्य से विकास का कोई ब्लूप्रिंट नहीं है। यही शिमला की समस्याओं का मूल कारण है।

मॉनसून के दौरान राज्य में कुल 386 मौतों में से 110 भूस्खलन के कारण हुईं। लैंडस्लाइड से सबसे ज्यादा 51 मौतें अकेले शिमला में हुईं। 100 से अधिक इमारतें और आवासीय घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं। इसके अलावा, 200 से ज्यादा इमारतें असुरक्षित हो गईं लिहाजा खाली कर दी गईं। कई इमारतों में दरारें आ गई हैं और बाकी कई खतरनाक रूप से लटकी हुईं दिखाई दे रही हैं। पिछले चार दशकों में, शिमला में तेजी से विस्तार हुआ है ताकि बढ़ती आबादी के साथ-साथ अस्थायी आबादी और पर्यटकों की बढ़ी हुई आमद को समायोजित किया जा सके। इससे वाहनों की संख्या, पानी की आपूर्ति, पार्किंग और परिवहन सहित बुनियादी ढांचे और नागरिक सुविधाओं पर बहुत दबाव पड़ा है, जिनकी वहनीय क्षमता इस कदर नहीं है। विकास और संरचनात्मक सुरक्षा के बीच संतुलन बिगड़ा है।

विडंबना यह है कि बारिश और भूस्खलन से प्रभावित होने वालीं ज्यादातर इमारतें 1990 के बाद बनाई गई थीं। 1990 के बाद से, शिमला में तेजी से विकास हुआ, अंधाधुंध निर्माण हुआ लेकिन यह विकास पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ नहीं रहा है। कई इमारतें खड़ी ढलानों पर बनाई गई हैं, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। इसके अलावा, कई इमारतों में संरचनात्मक सुरक्षा की कमी है। इसने शिमला को नए खतरों में डाल दिया है। ऐतिहासिक रूप से शिमला 7 पहाड़ियों के ऊपर बसा है। ये हैं- जाखू हिल, एलीसियम हिल, म्यूजियम हिल, प्रॉस्पेक्ट हिल, ऑब्जर्वेटरी हिल, समर हिल और पोटर्स हिल।

अंग्रेजों ने पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ विकास पद्धति का पालन किया था लेकिन नई निर्माण प्रथाओं में इनका बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया। शिमला शहर को अंग्रेज इंजीनियरों ने महज 25,000 की आबादी के लिए बनाया था। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से यह सुनिश्चित किया कि प्राकृतिक जल निकासी सिस्टम और खुला स्थान हो। लेकिन आज शिमला राज्य की राजधानी और एक लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन दोनों बन चुकी है। इसके बाद भी, शहर में कभी भी भवन निर्माण को नियंत्रित करने वाला कोई ठोस तंत्र नहीं रहा।

कांगड़ा स्थित पालमपुर के वरिष्ठ पत्रकार शिशु पटियाल याद करते हैं कि किस तरह 50 के दशक के आखिर में शिमला में पहली बार कोई बड़ी लैंडस्लाइड हुई थी। लक्कड़ बाजार में हुए उस भूस्खलन में एक छात्र की मौत भी हुई थी। वह बताते हैं कि इसके बाद लक्कड़ बाजार धंसता चला गया और आज तक धंसता जा रहा है। शिमला का विस्तार होता गया और लालच में इमारतों के ऊपर इमारतें खड़ी होती गईं। लंबे समय तक शिमला में निर्माण को लेकर कोई डेवलपमेंट प्लान था ही नहीं। बिना किसी मास्टरप्लान के शिमला में अंधाधुंध निर्माण चलता रहा। एनजीटी द्वारा निर्माण पर बैन लगाने के बावजूद दर्जनों गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो गईं।

अवैध निर्माण

शिमला के पहले और अंतरिम डेवलपमेंट प्लान को 1997 से 2016 के बीच 7 बार बदला गया। सैकड़ों अवैध और अनधिकृत निर्माण को नियमित किया गया। प्रभावशाली लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए अतिक्रमण वाली वनभूमि तक को भी नियमित किया गया। वीरभद्र सिंह सरकार के कार्यकाल में 25,000 अवैध इमारतों को नियमित किया गया जिनमें से 12,000 अकेली शिमला में थीं। सिंह शिमला के ही रहने वाले थे।

पर्यावरणविद् और शिमला में अवैध निर्माण के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले योगेंद्र मोहन सेनगुप्ता तो यहां तक कहते हैं कि अगर 22 दिसंबर 2017 को हाई कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश टाउन एंड कंट्री प्लानिंग (अमेंडमेंट) एक्ट, 2016 को रद्द नहीं किया होता तो सरकार आसानी से सभी अनधिकृत इमारतों को नियमित कर देती। सेनगुप्ता हाई कोर्ट, एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट तक में तमाम याचिकाओं के जरिए अवैध निर्माण के विरोध में लड़ाई लड़ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील किया, जिसका सेनगुप्ता पुरजोर तरीके से विरोध कर रहे हैं। विशेषज्ञों के लगातार दबाव के बाद 2011 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने शिमला के लिए विकास योजना तैयार करने का फैसला किया था। इस विकास योजना के लिए आपत्तियां और सुझाव आमंत्रित किए गए थे। लेकिन इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका।

2022 में, हिमाचल प्रदेश सरकार ने शिमला के लिए एक नई विकास योजना को मंजूरी दी थी। इस विकास योजना को विजन-2041 नाम दिया गया था। लेकिन इस विकास योजना में भी विकास और नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी के बीच संतुलन नहीं बनाया गया। इस विकास योजना में उन 17 क्षेत्रों में भी निर्माण की अनुमति देने का प्रावधान था, जहां निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया गया था। शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर टिकेंद्र पंवार इस विकास योजना पर सवाल उठाते हुए चेतावनी देते हैं कि शहर का 90 प्रतिशत हिस्सा 60 डिग्री से अधिक के ढलानों पर बना है। शिमला का 50 से 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही वहन क्षमता से अधिक भार की वजह से धंस रहा है।

शिमला विकास योजना को राज्य सरकार की मंजूरी के एक महीने बाद एनजीटी ने इस आधार पर रोक दिया कि इस कारण से पर्यावरण और सार्वजनिक सुरक्षा के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। शिमला सिस्मिक जोन 4 और 5 के तहत आता है यानी यहां भूकंप और लैंडस्लाइड का जोखिम काफी ज्यादा है। एनजीटी के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। वहां भी उसे झटका लगा और सुप्रीम कोर्ट ने भी जुलाई 2023 में शिमला विकास योजना पर रोक लगा दी। कोर्ट ने सरकार को हिमालयी क्षेत्र की वहन क्षमता पर एक अध्ययन करने का भी आदेश दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि शिमला का अनियोजित विकास ही उसकी समस्याओं की जड़ है। शिमला के भूगोल और उसकी वहन क्षमता को ध्यान में रखते हुए एक विकास योजना बनाई जानी चाहिए। साथ ही, सुनिश्चित करना होगा कि सभी निर्माण कार्य भवन निर्माण नियमों के मुताबिक किए जाएं।

एनजीटी की तरफ से बनाई गई एक विशेषज्ञ समिति की तो शिमला को लेकर दी गई चेतावनी काफी डरावनी है। समिति ने शहर की वहनीय क्षमता, निर्माण, ढांचागत विकास, नागरिक सुविधाओं, सैलानियों की आमद, बढ़ते ट्रैफिक लोड और बढ़ती आबादी को लेकर गहन अध्ययन के बाद चेतावनी दी है कि शिमला में उच्च क्षमता का भूकंप आ सकता है जिससे ऐसी तबाही मच सकती है जिसकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। शिमला में अंधाधुंध और असुरक्षित निर्माण की वजह से तबाही का खतरा बहुत ही ज्यादा है। ज्यादातर इमारतें अत्यधिक असुरक्षित हैं। अस्थिर और धंसती हुई ढलानों पर बनी हैं और उनके ध्वस्त होने का खतरा काफी ज्यादा है। आपदा जोखिम प्रबंधन के दृष्टिकोण से, शिमला अपनी वहन क्षमता से कई गुना ज्यादा भार से कराह रही है। यह सिर्फ शहरी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है क्योंकि अन्नी जैसे कुल्लू के सुदूर गांव में पिछले महीने बारिश से 8 इमारतें ध्वस्त हो गईं।

असुरक्षित शहर

शिमला नगर निगम के मुताबिक 2014-15 के दौरान किए गए अध्ययन में 300 में से 83 प्रतिशत इमारतों को 'संरचनात्मक रूप से असुरक्षित' पाया गया था। अब यह संख्या बढ़कर 4,500-5,000 हो गई है। शिमला विकास योजना एक खतरा है। यह योजना आत्मघाती है क्योंकि इसमें 2041 तक शिमला की आबादी को दोगुना करने और शहर के 17 ग्रीन बेल्ट, निषिद्ध कोर और हेरिटेज जोन में निर्माण की अनुमति देने का प्रस्ताव है। यह योजना शिमला की सुरक्षा को खतरा पैदा कर रही है और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रही है। शिमला में विकास योजना बनाने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि यह योजना शहर के पर्यावरण और सुरक्षा के अनुकूल हो। सभी निर्माण कार्य भवन निर्माण नियमों के अनुसार किए जाएं। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू असुरक्षित निर्माण के लिए बाहरी राजमिस्त्रियों और मजदूरों को भी एक प्रमुख कारण बताते हैं। वे संरचनात्मक डिजाइनिंग पर ध्यान नहीं देते हैं। नतीजतन, वे ऐसी इमारतें बनाते हैं जो असुरक्षित हैं, जिनके ध्वस्त होने का जोखिम ज्यादा है।



इस संरचनात्मक सुरक्षा के मुद्दे को हल करने के लिए, मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने वैज्ञानिक डॉक्टर सुरजीत सिंह रंधावा की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति गठित की है। समिति लैंडस्लाइड के कारण का अध्ययन करेगी। इसके अलावा जमीन धंसने और शिमला में भूस्खलन गतिविधि का विश्लेषण करेगी। पर्यावरणविद भी इस बात से चिंतित हैं कि कैसे शिमला के जंगल धीरे-धीरे साफ हो गए हैं। खासकर देवदार के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई है। शिमला में निर्माण कार्यों के लिए जो नियम हैं उनका पालन नहीं किया जाता है। इससे शहर में भूस्खलन और अन्य समस्याएं होती हैं। शिमला में कई बहुमंजिला इमारतें ब्रिटिश-युग की बनी टनल के ठीक ऊपर 'उग' आई हैं।

इससे टनल की उम्र कम हो गई है। 1991-1992 में शिमला के काफी सघन इलाके फिंगास्क एस्टेट में एक बहुमंजिला इमारत गिर गई थी जिसमें 22 लोगों की मौत हुई थी। 2021 में काछी घाटी इलाके में भी एक ऊंची इमारत के गिरने के डरावने वीडियो वायरल हुए थे। लेकिन इन हादसों से भी प्रशासन की नींद नहीं टूट रही। प्रिंसिपल सेक्रेटरी (टाउन एंड कंट्री प्लानिंग) दिवेश कुमार भी स्वीकार करते हैं कि शिमला में बारिश से जुड़ी तबाही चिंताजनक है। उन्होंने कहा, 'हमने इस पूरे मामले की जांच के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की है और हो सकता है कि जल्द ही हम शिमला और अन्य शहरों में पहाड़ों की समस्या को ठीक करने के लिए कुछ उपाय लेकर आएं। राज्य मंत्रिमंडल निश्चित इस पर कोई फैसला लेगा।'

मनाली में तबाही

कभी अपने मनमोहक दृश्यों और ग्लेशियर से लदे ऊंचे पहाड़ों के साथ एक शांत, सुरम्य हिल स्टेशन आज किसी भूतिया शहर जैसा दिखता है। मनाली में आपका स्वागत है। 10-11 जुलाई, 2023 को विनाशकारी बारिश, ब्यास नदी में भीषण बाढ़ से कुल्लू घाटी में भारी तबाही हुई। पारिस्थितिकीय विनाश के साथ-साथ ऐसी जनहानि हुई जिसकी किसी ने पहले कभी कल्पना तक नहीं की होगी। ऐसा लग रहा था जैसे ब्यास नदी और उसकी सहायक नदियां उस तथाकथित विकास का बदला लेने पर उतारू थीं, जिसने नाजुक पहाड़ी पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। मॉनसून के दौरान 390 से अधिक मौतें हुईं और 6 से 11 जुलाई के बीच मूसलाधार बारिश, बाढ़, बादल फटने, भूस्खलन और मकानों के जमींदोज होने से 31 अगस्त तक 11,000 करोड़ रूपए का नुकसान हुआ। यह राज्य सरकार का दावा है। इस तबाही ने राज्य के पर्यटन उद्योग को भी प्रभावित किया है, जो रोजगार और राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा बागवानी सेक्टर भी बुरी तरह प्रभावित हुआ।

सबसे ज्यादा नुकसान राज्य में भौतिक संरचना को हुआ। पलक झपकते ही औट में 50 वर्ष पुराना पुल बह गया। यह पुल बंजार और कुल्लू के दूरदराज के इलाकों की एक बड़ी आबादी के लिए संपर्क और आवाजाही का एक प्रमुख जरिया था। भीषण बाढ़ में 12 अन्य पुल भी बह गए। मनाली में मकान ताश के पत्तों की तरह बिखर गए, तमाम होटल ब्यास नदी में समा गए और बाढ़ के पानी में गाड़ियां ऐसे बह रही थीं जैसे कि खिलौने। इन सबके तमाम वीडियो वायरल हुए।

चंडीगढ़ से मनाली और परवाणू-शिमला के बीच सड़क संपर्क पूरी तरह से बाधित हो गया। दोनों ही हिमाचल प्रदेश की लाइफ लाइन हैं। कुल्लू और मनाली के बीच की सड़क भी उफनती ब्यास से बह गई। इतना ही नहीं, बिजली आपूर्ति बधित होने की वजह से तमाम कस्बे अंधेरे में डूब गए।

शहर दो दिनों तक बिना बिजली और पानी के रहा। अंधेरे में डूबा हुआ। सड़क संपर्क भी या तो हाइवे के धंसने या फिर भारी भूस्खलन और चट्टान के पत्थरों से बाधित रहा। उफनाई नदी का पानी सड़कों पर बह रहा था और कस्बों को अपनी चपेट में ले लिया। थुनाग में बादल फटने के डरावने वीडियो वायरल हुए। यह पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के विधानसभा क्षेत्र सेराज का एक अहम कस्बा है। पानी के तेज बहाव के साथ लकड़ी के लट्ठ, चट्टान के बोल्डर, कीचड़, पत्थर जो कुछ भी पानी के बहाव की राह में आए वे सब कुछ बह गए।

एशियाई विकास बैंक के साथ क्लाइमेट चेंज अडवाइजर के तौर पर काम करने वाले जाने-माने पर्यावरणविद् डॉ. वीरेंद्र शर्मा कहते हैं, 'थुनाग में जिस तरह अचानक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) आई, वह स्थानीय स्तर पर मौसम में आए बड़े बदलाव का एक उदाहरण है। नमी से भरी गर्म हवा जंगल वाली घाटियों के ऊपर उठती हैं और बादल फटने जैसी तेज बारिश लाती हैं जिससे काफी तबाही होती है।' शिखर स्थापत्य शैली में बना ऐतिहासिक पंचवक्त्र मंदिर पूरी तरह से जलमग्न हो गया। यह मंदिर 5 सिर वाले भगवान शिव को समर्पित है और क्षेत्र में हिंदुओं की आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। सौभाग्य से विकराल रूप धरी ब्यास नदी के शांत होने से स्थानीय लोग बच गए। कुछ लोगों ने मौसम से जुड़ी उथल-पुथल वाली इन चरम घटनाओं की तुलना उत्तराखंड में केदारनाथ बाढ़ त्रासदी से भी की।

ब्यास नदी के तट सिकुड़ने की वजह से जलस्तर बढ़ रहा है। नदी की गहराई भी कम हो गई है। मंडी जिले के औट में 50 साल पुराने लोहे के पुल और पंडोह में 100 साल पुराने पुल के ध्वस्त होने की भी यह मुख्य वजह थी। 2007 में 1027 करोड़ रूपए की लागत से बनकर तैयार हुआ 126 मेगावाट का लारजी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट भी 10-11 जुलाई की बाढ़ के बाद से बंद है। प्रोजेक्ट को भीषण बाढ़ से काफी नुकसान पहुंचा है खासकर मशीनरी को।

आपराधिक निर्माण

मंडी के वरिष्ठ पत्रकार बीरबल शर्मा कहते हैं, 'मैं कह सकता हूं कि तबाही बहुत बड़े पैमाने पर थी। इस तरह की प्राकृतिक आपदा करीब 50 साल बाद देखी गई थी। हालांकि केदारनाथ आपदा की तरह बड़े पैमाने पर जनहानि नहीं हुई, फिर भी आपदा में हर एक मौत दुखद है। जो लोग इस आपदा में बच गए उनके भी घर, दुकान, जमीन, होटल और संपत्तियों को नुकसान हुआ और वे जीने के लिए एक नए संघर्ष और जद्दोजहद से जूझ रहे हैं।' सवाल उठता है कि आखिर यह सब हुआ कैसे? क्या यह एक प्राकृतिक आपदा थी या मानव-जनित और इससे क्या सबक सीखे गए? ये सभी सवाल बहुत ही प्रासंगिक हो चुके हैं क्योंकि वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् खुले तौर पर कह रहे हैं कि राज्य ने अतार्किक विकास के खतरों के बारे में बार-बार दी गईं चेतावनियों को अनसुना किया है, जो पहाड़ों के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए न सहे जाने लायक और संवेदनशील हैं। शिमला के डिप्टी मेयर रह चुके टिकेंद्र सिंह पंवार कहते हैं, 'कुल्लू और मंडी जिले या शिमला में तबाही केवल कुदरत की मार नहीं है। पहाड़ी क्षेत्रों, खासकर हिमालय में शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में अनियोजित, बेतहाशा बुनियादी ढांचा विकास इसका एक प्रमुख फैक्टर है। इस चल रहे विकास की वजह से हर साल समूचे क्षेत्र में संपत्तियों, सड़कों, पुलों, घरों, इमारतों, शहरों और गांवों को भारी नुकसान हो रहा है। दुख की बात है कि इन आपदाओं में जिंदगियां भी जा रही हैं।'

पंवार ने नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में फोर-लेन वाले हाइवे के निर्माण में आपराधिक लापरवाही का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई है। वह कहते हैं, 'एनएचएआई पिछले 10 वर्षों से फोर लेन का निर्माण कर रहा है, जिसने पर्यावरण मानदंडों का उल्लंघन किया है, खासकर पहाड़ों की कटाई और मलबे की डंपिंग के मामले में। परवाणू और सोलन के बीच का पूरा हिस्सा ध्वस्त हो गया है। यह टूरिस्ट हिल स्टेशन शिमला के लिए कनेक्टिविटी में सुधार लाने के उद्देश्य वाले प्रोजेक्ट पर खर्च किए गए पैसे की आपराधिक बर्बादी है।'

दिल्ली-मनाली राजमार्ग, जिसे कीरतपुर-मनाली फोर-लेन भी कहा जाता है, कई जगहों पर बह गया और मंडी जिले के पंडोह में कई दिनों तक अवरुद्ध रहा। फोर-लेन प्रोजेक्ट पर पंडोह के नजदीक कानेची मोड़ पर भारी भूस्खलन से कुल्लू और हिमाचल प्रदेश के बाकी हिस्सों के बीच 5 दिनों तक संपर्क बाधित रहा। कानेची मोड़ पर अक्सर इस तरह की घटनाएं होती हैं। हिमाचल प्रदेश में पीडब्ल्यूडी के सेवानिवृत्त इंजीनियर-इन-चीफ आरके शर्मा कहते हैं, 'पहाड़ों में इस तरह की बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा परियोजनाएं बिल्कुल भी टिकाऊ (सस्टेनेबल) नहीं हैं। इस तरह का विकास मॉडल पहाड़ों के लिए बहुत ही अनुपयुक्त है। स्थानीय पहाड़ी पारिस्थितिकी को खराब तरीके से की गई प्लानिंग और बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे के निर्माण का खामियाजा भुगतना पड़ता है।'

पहाड़ों की कटाई

आश्चर्यजनक रूप से बारिश और फ्लैश फ्लड से जुड़ी ज्यादातर तबाही उन क्षेत्रों में हुई जहां 2 फोर-लेन प्रोजेक्ट समेत विकास परियोजनाएं चल रही थीं। राज्य के लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने ब्यास नदी के किनारों से लगी नदी की तलहटी में अवैध खनन पर लगाम नहीं लगा पाने के लिए अपनी ही सरकार की खुलकर आलोचना की है। आखिरकार सरकार ने पिछले महीने रिवर बेसिन से लगे इलाकों में सभी स्टोन-क्रशर पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया और नदी को चैलनाइज करने के लिए एक योजना का ऐलान किया। नदी से एक निश्चित दूरी के दायरे में सभी तरह के नए निर्माण पर रोक लगा दी गई है। युवा मंत्री का कहना है कि हिमालय में सड़क बनाने के प्लान और निर्माण के तरीके में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। हालांकि, उन्होंने हिमाचल प्रदेश में एनएचएआई प्रोजेक्ट्स को रोकने की मांग नहीं की है लेकिन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से किए गए निर्माण में होने वाली गलतियों के लिए सख्त कार्रवाई की मांग की है।

मनाली एक मशहूर पर्यटन स्थल है और हर साल लाखों सैलानी वहां घूमने आते हैं। इस वजह से, मनाली में पलचन, सोलंग घाटी और रोहतांग टनल के रास्ते पर नदी के किनारे या स्नो-लाइन के करीब बड़े-बड़े होटल और होमस्टे बनाए गए हैं। इनके निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर पहाड़ों को काटा गया है और ब्यास नदी में अतिक्रमण हुआ है। हिमालय नीति अभियान नाम के एक पर्यावरण संगठन ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को खत लिखकर हिमाचल प्रदेश में हो रहे इस तरह के 'विकास' पर ऐतराज जताया है। खत में कहा गया है कि इस साल जुलाई में हिमाचल प्रदेश में आई विनाशकारी बाढ़ अभूतपूर्व थी खासकर 8-11 जुलाई के दौरान। हिमालयी नदियों में बाढ़ आती रही है, इसका लंबा इतिहास है लेकिन इस साल बड़े पैमाने और तीव्रता से आई है, खासकर ब्यास नदी बेसिन में। इससे राज्य में विकास गतिविधियों और उससे जुड़ी प्लानिंग के बारे में कई सवाल उठते हैं।

संगठन ने मांग की है कि इसके कारणों का पता लगाने और संबंधित एजेंसियों और अधिकारियों की जवाबदेही तय करने के लिए एक टास्क फोर्स और किसी मौजूदा हाई कोर्ट जज की अध्यक्षता में जांच आयोग बनाया जाए। टास्क फोर्स में टेक्निकल एक्सपर्ट और पर्यावरणविद शामिल हों।

हिमालय नीति अभियान के मुताबिक, जलविद्युत परियोजनाएं और सड़क निर्माण के परिणामस्वरूप होने वाली वनों की कटाई, पहाड़ों के कमजोर होने, नदियों में गाद जमा होने और नदी तल के ऊपर उठने से तबाही हो रही है। अब यह साबित हो चुका है कि पंडोह और लोवर मंडी, सैंज बाजार और कसोल गांव में हुए नुकसान के लिए लारजी, पार्वती III प्रोजेक्ट और पंडोह बांध से अचानक और देरी से पानी का छोड़ा जाना जिम्मेदार है। मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, इस साल 7 से 11 जुलाई के बीच कुल्लू जिले में 280.1 मिलीमीटर बारिश हुई जबकि यहां बारिश का मानक 30.7 मिलीमीटर है। इसका मतलब है कि इन 5 दिनों में 812 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई जो राज्य में सबसे ज्यादा है।

राज्य के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का कहना है कि सरकार का प्राथमिक लक्ष्य आपदा और जलवायु जोखिम में कमी के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना है। इसमें आपदाओं का सामना करने के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करना और गवर्नेंस स्ट्रक्चर को मजबूती देना शामिल है। समय आ गया है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों से निपटने के लिए कदम उठाए जाएं और समय रहते जरूरी उपाय किए जाएं। यह वक्त की मांग है।' राज्य सरकार ने केंद्र से हिमाचल प्रदेश आपदा को 'राष्ट्रीय आपदा' घोषित करने और भुज (गुजरात) और केदारनाथ (उत्तराखंड) की तर्ज पर पुनर्वास, पुनर्निर्माण और राहत के लिए फंड मुहैया कराने की मांग की है।

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