नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक करीब 10 करोड़ लोग हर साल भारतीय हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन करने पहुंचते हैं। अगले दो सालों में यानी 2025 तक हिमालय क्षेत्र में पर्यटकों की यह संख्या 24 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। 13 नाजुक हिमालयी राज्यों में बसे हुए पांच करोड़ लोगों की संख्या भी बढ़ेगी। भवनों की संख्या लगातार विस्तार ले ही रही है। अप्रत्याशित मौसम, संसाधनों के दबाव और अंधाधुंध निर्माण ने पहाड़ों को भुरभुरा बना दिया है। इसके तबाही की झलक हम मॉनसून दर मॉनसून देख रहे हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक ने पहाड़ों पर बसे इन शहरों की वहन क्षमता का अंदाजा लगाना उचित नहीं समझा। अब अदालत से लेकर स्थानीय लोग अपने शहरों की वहन क्षमता जानना चाहते हैं। अगर ऐसा अध्ययन न किया गया और विस्तार पर रोक न लगाई गई तो विनाश को पहाड़ से मैदान तक पहुंचते देर न लगेगी। डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के नवंबर अंक की आवरण कथा में इस पर विस्तार से लिखा गया है। इसे एक सीरीज के तौर पर वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। आज पढ़ें, पहली कड़ी-
मॉनसून 2023 बीत चुका है और हर सीजन की तरह यह मॉनसून हिमालयी राज्यों को नए जख्म दे गया। बल्कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम को तो ऐसे जख्म दे गया कि जो कई साल तक सालते रहेंगे। साल 2023 की शुरुआत जोशीमठ आपदा से शुरू हुई थी। जोशीमठ ने देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा।
इसके बाद मॉनसून के दौरान हिमाचल प्रदेश के शिमला, कुल्लू में आई त्रासदी ने एक बार फिर से हिमालयी शहरों में बढ़ती आपदाओं को लेकर सवाल उठने लगे, जिसका जवाब कम से कम सरकारों के पास तो नहीं मिला। लेकिन इन घटनाओं के बाद जोशीमठ भूधंसाव की जांच कर चुकी देश की आठ प्रतिष्ठित संस्थानों की रिपोर्ट ने कई सवालों के जवाब जरूर दे दिए। यह रिपोर्ट लगभग आठ महीने बाद उत्तराखंड सरकार ने सार्वजनिक तब की, जब उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने उसे फटकार लगाई थी।
यूं तो जोशीमठ में भूधंसाव की वजह से घरों में दरारों का सिलसिला जुलाई 2022 में ही शुरू हो गया था, लेकिन यह 2-3 जनवरी 2023 की रात को अचानक बहुत तेज हो गया कि कई घर ढहने के कगार पर पहुंच गए। प्रशासन को आनन-फानन में कार्रवाई करनी पड़ी। जिला प्रशासन द्वारा 2 अक्टूबर 2023 को जारी रिपोर्ट के मुताबिक शहर के 868 भवनों में दरारें आ चुकी हैं, जिसमें से 181 भवनों को पूरी तरह असुरक्षित घोषित कर दिया गया है।
प्रशासन ने 3 जनवरी को ही जोशीमठ के पास बन रहा हेलंग बाईपास और तपोवन विष्णुगाड़ पनबिजली परियोजना के साथ-साथ जोशीमठ में हर तरह के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया और जांच की जिम्मेवारी देश की नामी आठ संस्थाओं को सौंपी गई। इसके बाद मॉनसून के दौरान हिमाचल प्रदेश में हुई त्रासदी ने एक बार फिर जोशीमठ में मिले जख्मों को हरा कर दिया।
हिमाचल में बारिश से संबंधित घटनाओं में 509 लोगों की मौत हो चुकी है और 5 अक्टूबर तक 39 लोग लापता बताए गए थे। 15,000 से अधिक घर क्षतिग्रस्त होने से हजारों परिवार बेघर हो गए। राज्य के आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, राज्य को ₹9,712.50 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है।
हिमाचल प्रदेश में भी शिमला और कुल्लू पर्वतीय शहरों में नुकसान ज्यादा हुआ है, जिसके बाद पर्वतीय शहरों की वहनीय क्षमता (कैरिंग कैपेसिटी) पता करने की मांग उठने लगी। दिलचस्प बात यह है कि हिमाचल प्रदेश में तबाही के बाद उत्तराखंड सरकार ने अपने राज्य में 13 शहरों में वहनीय क्षमता का सर्वेक्षण कराने की बात कही, जबकि उसी सरकार ने जोशीमठ भूधंसाव के बाद भी यही बात कही थी, हालांकि बाद में चुप्पी साध ली।
जोशीमठ रिपोर्ट्स के सबक
हिमालयी राज्यों के पर्वतीय शहरों में बढ़ रही आपदाओं और उससे हो रहे नुकसान के कारणों को लेकर अब तक सरकारों के पास कोई ठोस अध्ययन नहीं है, लेकिन ऐसे समय में जोशीमठ के मामले में सामने आई रिपोर्ट्स से पूरे क्षेत्र की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। जैसे पकते हुए चावल के कुछ दानों से पूरे चावल की स्थिति जांची जा सकती है।
हालांकि आश्चर्यजनक बात यह है कि किसी भी एजेंसी ने नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की तपोवन-विष्णुगाड़ पनबिजली परियोजना पर सवाल नहीं उठाए हैं, जबकि कई विशेषज्ञ व स्थानीय लोगों का कहना है कि इस परियोजना की वजह से जोशीमठ में भूधंसाव की गति बढ़ी है। बल्कि आपदा के ठीक बाद जिला प्रशासन द्वारा बंद कराए गए हेलंग मारवाड़ी बाईपास का निर्माण शुरू करने की सिफारिश की गई है।
आठ एजेंसियों के अलावा जोशीमठ में भूधंसाव को लेकर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने भी पोस्ट डिजास्टर नीड असेसमेंट (पीडीएनए) रिपोर्ट तैयार की। हालांकि यह रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की गई। इस रिपोर्ट में जोशीमठ में भूधंसाव के ढेर सारे कारण बताए गए हैं। साथ ही, कई ऐसी सिफारिशें की गई हैं, जो जोशीमठ के साथ-साथ 13 हिमालयी राज्यों के लगभग हर उस पहाड़ी शहर पर लागू की जा सकती हैं, जिन्हें हिल स्टेशन बताकर राज्य सरकारें अपने राजस्व का जरिया बनाती जा रही है।
अनिवार्य नहीं हैं भवन उपनियम
इन पहाड़ी शहरों में बढ़ती भीड़ को बसाने के लिए जिस तरह से भवन पर भवन बन रहे हैं, उसने आपदाओं से होने वाले नुकसान का दायरा बढ़ा दिया है। जोशीमठ की ही बात करें तो यहां भवन उपनियम तो हैं, लेकिन आवासीय भवनों के लिए अनिवार्य नहीं हैं। एनडीएमए की रिपोर्ट के मुताबिक, लोग तब आवेदन करते हैं, जब उन्हें लोन लेना हो या किसी तरह की सरकारी सहायता की जरूरत है। जोशीमठ में बिल्डिंग परमिट सिस्टम ही नहीं है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि जोखिम आधारित भवन उपनियम होते और मौजूदा इमारतें उसका अनुपालन करतीं, तो क्षति की सीमा कम होती और रेट्रोफिटिंग की आवश्यकता कम खर्चीली होती। जोशीमठ में टाउन प्लानिंग और जोखिम आधारित लैंड यूज मैप का अभाव है। सड़कें संकरी हैं और दोनों ओर खुली जगह नहीं है। शहर को विस्तृत विकास योजना की सख्त जरूरत है, जिसमें भवनों के लचीलापन, पानी, सफाई, ठोस एवं तरल कचरे का निपटान, बिजली, सड़क तक पहुंच और अन्य सुविधाएं जैसे स्कूल, अस्पताल, बैंक, बिजनेस सेंटर आदि शामिल हों।
एनडीएमए का कहना है कि ऐसे प्लान की सख्त जरूरत है, जो अगले 10-15 साल की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया जाए। एनडीएमए की इस सिफारिश को जोशीमठ में कितनी गंभीरता से लागू किया जाता है, यह तो वक्त बताएगा। लेकिन इतना जरूर है कि इसे सभी हिमालयी शहरों में समय रहते लागू किया जाना चाहिए। आपदा के दौरान जोशीमठ में कई मंजिला भवनों पर सवाल उठे, ऐसे ही सवाल शिमला, कुल्लू में मची तबाही के बाद उठे। जोशीमठ पर एनडीएमए की सलाह है कि भवन उपनियमों में सुनिश्चित किया जाए कि 40 वर्ग मीटर क्षेत्र से कम जगह पर आवासीय भवन न बनाया जाए।
इमारत की ऊंचाई 7.5 मीटर से अधिक न हो। आवासीय भवन तक पहुंचने के लिए कम से कम 4.5 मीटर चौड़ा मार्ग हो। आवास के लिए फ्लोर एरिया रेश्यो 1.7 से अधिक न हो, जबकि 10 वर्ग मीटर से कम जगह पर कॉमर्शियल भवन बनाने की इजाजत न दी जाए। भूस्खलन क्षेत्रों के आसपास लगभग 250 मीटर के भीतर किसी भी निर्माण की अनुमति नहीं दी जाए। भूकंपीय दोष रेखा के दोनों ओर 50 मीटर की दूरी तक निर्माण की अनुमति नहीं दी जाए। पहाड़ी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत भवनों में ढलान वाली छत अनिवार्य होगी। यह सिफारिश बेशक जोशीमठ के भवनों का नक्शा ही बदल देगी, लेकिन इसे बेहद अहम माना जा रहा।
पानी के रिसाव से बढ़ा संकट
पहाड़ों पर जितने भी शहर हैं, उनमें पानी का रिसाव तबाही का एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है (देखें, 'अपशिष्ट जल बढ़ा सकती है आपदा', पेज 46)। जोशीमठ में भूधंसाव के लिए भी पानी की निकासी न होने को एक बड़ा कारण माना जा रहा है। एनडीएमए की रिपोर्ट बताती है कि जोशीमठ में पीने का पानी तो रिस ही रहा है। साथ ही, नालों, सीवर और बारिश का पानी भी जमीन के भीतर पहुंच रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ में 6 मुख्य नालों द्वारा जल निकासी होती है जो रखरखाव की खराब स्थिति में है। 17,854 मीटर लंबे नाले का केवल 48 प्रतिशत भाग ही मेन लाइन से जुड़ा है। कई स्थानों पर इसका डिजाइन जर्जर, अतिक्रमित और अवैज्ञानिक है। शहर के 90 प्रतिशत से अधिक घर गंदे पानी और मल-मूत्र के प्रबंधन के लिए अवैज्ञानिक रूप से निर्मित मिट्टी में बने गड्ढों (सोक पिट) पर निर्भर हैं, जिसका गंदा पानी रिसता रहता है और मिट्टी की सहन शक्ति कम कर देता है।
इस वजह से इन घरों का ढलान की ओर खिसकने, भूमि धंसने या अचानक आई बाढ़ में ढहने का खतरा बन जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दीर्घकालिक उपाय के तौर पर सभी अवैज्ञानिक रूप से निर्मित सोक पिट्स को नष्ट कर दिया जाना चाहिए और सतह पर बहने वाले हर तरह के पानी के रिसाव को रोकने के लिए पर्याप्त सुधार किया जाना चाहिए। जोशीमठ में मौजूदा 14.94 किमी लंबी सीवेज मुख्य लाइन परसारी और रविग्राम के वार्डों को कवर नहीं करती है। इसलिए पीडीएनए में जोशीमठ के लिए एक शहरी स्वच्छता योजना विकसित करने की सिफारिश की गई है।
जोशीमठ में जल आपूर्ति नेटवर्क 47 साल पुराना है, पुराने पाइपों में जंग लग चुका है और भंडारण का नेटवर्क भी खराब हो चुका है, जिसके कारण पानी का भूमिगत रिसाव होता है, जिसे बंद करना मुश्किल होता है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि रोजाना लगभग 10 लाख लीटर पानी में से लगभग 40 से 50 प्रतिशत पानी सिस्टम में रिसाव के कारण नष्ट हो जाता है और अंतिम उपयोगकर्ता तक नहीं पहुंच पाता है, जिससे सतह में नमी बढ़ रही है, जो भूधंसाव की घटनाओं को बढ़ा सकता है।
क्यों मायने रखती है ये रिपोर्ट
जोशीमठ पर जिन आठ संस्थानों ने रिपोर्ट सौंपी हैं, उनमें आईआईटी रुड़की, भारतीय भूविज्ञान सर्वेक्षण (जीएसई), वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, केंद्रीय भूजल बोर्ड, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग, नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट शामिल हैं। इनमें आईआईटी, रुड़की का सर्वेक्षण काफी मायने रखता है।
आईआईटी रुड़की की टीम ने जोशीमठ की जमीन की क्षमता का आकलन भी किया है और बताया है कि जोशीमठ का आधा हिस्सा बेहद असुरक्षित है, जहां किसी तरह के िनर्माण नहीं किए जाने चाहिए। डाउन टू अर्थ ने अपनी पड़ताल में पाया कि सभी 13 हिमालयी राज्यों में कैरिंग कैपेसिटी सर्वे नहीं किया गया है। ऐसे में आईआईटी, रुड़की की इस रिपोर्ट के आधार पर पहाड़ी शहरों की क्षमता का आकलन तो किया ही जा सकता है।
जोशीमठ के रिपोर्टों में एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट वाडिया संस्थान की है। वाडिया इंस्टीट्यूट ने जोशीमठ में 1.0 से कम तीव्रता वाले सूक्ष्म भूकंप की निगरानी के लिए जोशीमठ और उसके आसपास 11 स्टेशनों का एक निकटवर्ती भूकंपीय नेटवर्क स्थापित किया। इसको सेंट्रल रिकॉर्डिंग स्टेशन, देहरादून में निरंतर भूकंपीय डेटा निकालने के लिए भूकंपीय स्टेशन ऑनलाइन जोड़ा गया और निरंतर निगरानी की गई 13 जनवरी से 12 अप्रैल के दौरान भूकंपीय नेटवर्क ने जोशीमठ से 50 किमी की दूरी के भीतर अधिकतम 1.5 तीव्रता के 16 सूक्ष्म भूकंप रिकॉर्ड किए।
वाडिया के वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में सलाह दी है कि चूंकि जोशीमठ एक तीव्र ढलान पर स्थित है, जहां काफी सघन कंक्रीट का निर्माण हुआ है, साथ ही कुछ हिस्सों में घने जंगल हैं, इसलिए क्षेत्र के मानचित्रण के लिए ऊंचाई मॉडल की एयरबोर्न लाइडर तकनीक सबसे उपयुक्त और व्यवहार्य विकल्प प्रतीत होती है।
वाडिया की यह रिपोर्ट हिमालय पर बसे सभी शहरों पर लागू होनी चाहिए, क्योंकि लगभग सभी पर्वतीय शहरों की स्थिति यही है। लगभग सभी शहर भूकंपीय दृष्टि से जोन पांच या चार में आते हैं, जहां बड़े भूकंपों का खतरा तो रहता ही है, लेकिन छोटे पैमाने के भूकंप आते रहते हैं, लेकिन उनको मापने की तकनीक है। यह छोटे-छोटे भूकंप आपदा को बढ़ा सकते हैं। कुल मिलाकर हिमालयी राज्यों को अपनी विकास योजनाएं बनाते वक्त जोशीमठ पर आई सभी रिपोर्टों का आकलन जरूर करना चाहिए।