आवरण कथा, खतरे में हैं हिल स्टेशन: असंवेदनशील योजनाओं का दंश झेल रहे हैं पहाड़ी शहर

संसाधनों की कमी, आबादी और भवनों के बोझ ने 5 करोड़ लोगों के घरों को मुसीबत में डाल दिया है
उत्तराखंड के बदरीनाथ हाइवे भूधंसाव के कारण आवागमन बाधित हो गया, जिसके बाद सड़क की मरम्मत का काम किया गया  (फोटो: सन्नी गौतम / सीएसई)
उत्तराखंड के बदरीनाथ हाइवे भूधंसाव के कारण आवागमन बाधित हो गया, जिसके बाद सड़क की मरम्मत का काम किया गया (फोटो: सन्नी गौतम / सीएसई)
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हिमालयी राज्यों के शहर और कस्बे इस वक्त त्रासदी के नए अड्डे बन गए हैं। 2023 के मॉनसून में हिमाचल में शिमला और अन्य शहरों में जान-माल की तबाही इसका जीता-जागता उदाहरण है। इससे पहले उत्तराखंड के जोशीमठ में घरों के धंसाव ने इसके नाजुक होने की निशानी पेश की। जरूरत से ज्यादा आबादी, भवन और सालाना पर्यटकों के बोझ से दब और बिखर रहे इन पहाड़ी शहरों और कस्बों की कैरिंग कैपिसिटी यानी वहनीय क्षमता की गणना, मास्टर प्लान, टूरिज्म प्लान, डेवलपमेंट जोनल प्लान के निर्माण को लिए जमीन से लेकर अदालतों तक आवाजें उठ रही है।

ताजा याचिका इसी वर्ष यानी फरवरी, 2023 में पूर्व आईपीएस अधिकारी डॉक्टर अशोक कुमार राघव की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई। इस मामले पर अभी सुनवाई जारी है। इस याचिका में कहा गया था कि देश के 13 हिमालयी राज्य करीब 5 करोड़ लोगों का घर हैं। और इन सभी राज्यों के पहाड़ी कस्बों में भी जोशीमठ की तरह घरों का धंसाव हो सकता है।

इन 13 नाजुक हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, नागालैंड, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं। याचिका में आरोप लगाया गया है कि इन राज्यों के हिल स्टेशन जोशीमठ की तरह ही बड़ी आपदा के शिकार हो सकते हैं।

याचिका के मुताबिक नैनीताल, मसूरी, अल्मोड़ा, रानीखेत, मुक्तेश्वर, औली, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, पौड़ी, बागेश्वर, कौसानी, पिथौरागढ़, ऋषिकेश, चंबा, हरिद्र, शिमला, नरकंडा, चंबा, खज्जर, डलहौजी, कसौली, धर्मशाला, मनाली, सौलंग घाटी, कोकसार, रोहतांग ग्लेशियर, श्रीनगर और लेह जैसे स्टेशनों पर भी धंसाव और दरारों का खतरा मंडरा रहा है। इन जगहों की वहन क्षमता का अध्ययन कभी नहीं किया गया है और इन जगहों पर मनचाहा विकास जारी है। वहन क्षमता जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन जैसे पानी-मिट्टी, पर्यावरण, भौतिक पर्यावरण या किसी भी चीज की हो सकती है। इसका सामान्य अर्थ हुआ कि एक जगह जिसमें निर्धारित जनसंख्या का बिना पर्यावरणीय नुकसान वहन हो सके। सिर्फ असमय अतिवृष्टि ही हिमालय की दुविधा नहीं है।

बल्कि पेयजल का संकट भी गहराता जा रहा है। ज्यादातर हिमालयी राज्यों में पेयजल का स्रोत नदी और झरने हैं। नीति आयोग, 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय हिमालयी क्षेत्र में करीब 30 लाख झरने या तो सूख चुके हैं या फिर उनमें प्रवाह कम हो गया है। रिपोर्ट के मुताबिक अनदेखा करने पर पहाड़ों पर यह मुश्किल और ज्यादा बढ़ सकती है। 2014 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में योगेंद्र मोहन सेनगुप्ता के द्वारा शिमला में वन या हरित क्षेत्रों को बचाने वाली याचिका में बताया गया कि शिमला की पहले की योजना के मुताबिक वहनीय क्षमता 25 हजार लोगों की है और इस वक्त फ्लोटिंग पॉपुलेशन को छोड़कर करीब 2.40 लाख लोग वहां रह रहे हैं। एनजीटी ने इसी मामले में 2017 में फैसला सुनाते हुए कहा था कि टाउन एंड कंट्री प्लानिंग डिपार्टमेंट तीन महीनों में डेवलपमेंट प्लान तैयार करे और उसे अधिसूचित करे।

हालांकि एनजीटी ने आगाह किया था कि इस डेवलपमेंट प्लान को तैयार करते वक्त उनके आदेशों और सिफारिशों को ध्यान में रखा जाए। मिसाल के तौर पर शिमला में निर्माण के लिए सभी क्षेत्रों में 45 डिग्री स्लोप की मान्यता है। कई भवन 60 डिग्री स्लोप पर भी बने हुए हैं। इसे ध्यान में रखते हुए एनजीटी ने अपनी सिफारिश में कहा था कि जो नाजुक पथरीले क्षेत्र हैं और जहां मिट्टी ज्यादा है वहां स्लोप को 35 डिग्री रखा जाए।

शिमला के अंतरिम डेवलपमेंट प्लान (आईडीपी) में बताए गए या सरकार के द्वारा चिन्हित कोर व ग्रीन या फॉरेस्ट एरिया में किसी भी नए आवासीय, संस्थागत और व्यावसायिक निर्माण न किया जाए। एनजीटी के इस 2017 के फैसले के खिलाफ हिमाचल सरकार ने 2019 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला लंबित रहा और अभी तक लंबित है। इस बीच एनजीटी के 2017 के फैसले को ध्यान में रखते हुए फरवरी, 2022 में पहली बार हिमाचल सरकार ड्राफ्ट डेवलपमेंट प्लान 2041 लेकर आई। हालांकि, याचिकाकर्ता योगेंद्र मोहन सेनगुप्ता ने इसे एनजीटी में चुनौती दी और एनजीटी ने पाया कि ड्राफ्ट डेवलपमेंट प्लान, 2041 में उनकी सिफारिशों का ध्यान नहीं रखा गया। इसलिए ट्रिब्यूनल ने हिमाचल प्रदेश सरकार के डेवलपमेंट प्लान को अवैध करार दे दिया।

एनजीटी के 2017 के फैसले के खिलाफ लंबित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 3 मई, 2023 को अपने आदेश में कहा कि राज्य सरकार ड्राफ्ट डेवलपमेंट प्लान में टिप्पणियों को स्वीकार करके छह हफ्तों में प्लान को अधिसूचित करे। इस आदेश को ध्यान में रखते हुए हिमाचल सरकार ने 23 जून, 2023 को निर्माण गतिविधि को रेग्युलेट करने के लिए शिमला डेवलपमेंट प्लान को अधिसूचित किया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 12 जुलाई, 2023 को कहा कि वह डेवलपमेंट प्लान को जांचेंगे। इस मामले में 28 जुलाई, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की जरूरत है। फाइनल डेवलपमेंट प्लान पर अब भी सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है और मामला लंबित है।

योजना का इंतजार

शिमला एक बानगी भर है जिसका अंतरिम डेवलपमेंट प्लान 1979 में बना लेकिन उसके बाद पांच दशक तक कोई निर्णायक डेवलपमेंट प्लान नहीं बन सका। यहां तक कि मौजूदा डेवलपमेंट प्लान जो 2041 तक के लिए तैयार और अधिसूचित कर दिया गया है वह पर्यावरण और विकास में संतुलन के अभाव के चलते अदालत में विचाराधीन है। क्योंकि इस डेवलपमेंट प्लान में शिमला के 17 ग्रीन बेल्ट में रहने योग्य छत के साथ एक तल मकान को अनुमति दी गई है जबकि कोर एरिया में रहने योग्य तल के साथ दो तल मकान और पार्किंग की अनुमति दी गई है जबकि नॉन-कोर एरिया में रहने योग्य छत के साथ 3 तल मकान की अनुमति दी गई है।

कैरिंग कैपेसिटी तय करने में बिल्डिंग फुटप्रिंट्स एक असरदार आंकड़ा है। हालांकि, उपलब्ध सेटेलाइट इमेज यह नहीं बताते हैं कि भवनों के तल में कितनी बढ़ोतरी हुई है? इसलिए वास्तविकता में भवन उस क्षेत्र की वहनीय क्षमता को पार कर गए हैं या नहीं यह पता नहीं चलता। बीते वर्षों एनजीटी की सुनवाई में यह कई बार स्पष्ट हुआ है कि हिमाचल के शिमला और कसौली में कई तल वाले अवैध होटल बने हुए हैं। फिर भी ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जिससे वैज्ञानिक तौर पर योजना बने।

वहन क्षमता अध्ययन की मांग

वर्ल्ड बैंक से जुड़े सीनियर डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट स्पेशलिस्ट अनूप कारंत डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि पहाड़ों पर वहन क्षमता का अध्ययन करना एक बड़ी कसरत है। भौतिक स्तर पर जाकर ऐसे अध्ययन होते हैं, हालांकि इस काम के लिए ट्रेंड मैनपावर और इंजीनियर्स की की बड़ी कमी है जो इस पूरे अध्ययन को कर सकें।

डेवलपमेंट प्लान, मास्टर प्लान, भवनों के उपनियम और जोनल मास्टर प्लान विनाशकारी विकास कार्यों पर रोक लगा सकते हैं। हालांकि, जो प्लान बन गए हैं उनकी समीक्षा की भी मांग उठ रही है। एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट में वर्षों मामला चलने के बाद केंद्र सरकार ने 17 जुलाई, 2020 को भागीरथी पर्यावरण संवेदी क्षेत्र के लिए जोनल मास्टर प्लान को मंजूरी दी है। इस जोनल मास्टर प्लान में गौमुख से उत्तरकाशी तक 4179.59 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शामिल है। इस मास्टर प्लान के बाद सशर्त विकास कार्य संभव हैं। इसमें चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना शामिल है जिस पर हर लैंडस्लाइड के वक्त संशय के बादल मंडराते रहते हैं।

उत्तराखंड के एक और हिलस्टेशन मसूरी की बात करें तो यहां 2001 में लाल बहुदर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (एलबीएसएनएए) ने अपने अध्ययन में यह स्पष्ट किया था कि मसूरी में अब और निर्माण कार्य नहीं किए जाने चाहिए। यानी निर्माण के नजरिए से मसूरी की वहन क्षमता दो दशक पहले ही खतरनाक स्तर पर पहुंच गई थी। इस अध्ययन में ड्रेनेज और सीवेज सिस्टम को दुरुस्त करने की सिफारिश भी की गई थी। हालांकि, इस दिशा में खास कदम नहीं उठाया गया। जनवरी, 2023 में एनजीटी के आदेश के बाद नौ सदस्यीय कमेटी ने कहा कि मसूरी अनियंत्रित निर्माण विकास के चलते एक अनियोजित शहरीकरण की चपेट में हैं। मसूरी में 2000 से 2019 के बीच पर्यटकों की संख्या में 255 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। कमेटी ने जुलाई, 2023 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि किसी भी तरह के निर्माण को मंजूरी देने से पहले से मास्टर प्लान की सख्त जरूरत है।

अगर मेघालय के शिलॉन्ग की बात करें तो वहां मास्टर प्लान (2015-2035) अभी तैयार ही किया जा रहा है। फिलहाल पुराना शिलॉन्ग मास्टर प्लान (1991-2001) ही विस्तारित कर दिया गया है। इससे पहले शिलॉन्ग में मास्टप्लान 1971-1991 तक को मंजूरी दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका बताती है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में मौजूद 13 राज्यों की न तो धारणीय क्षमता का अध्ययन किया गया है और न ही इन नाजुक पर्यावरण वाले राज्यों में पर्यटन जैसी गतिविधियों के नियंत्रण का कोई प्रयास हुआ है। वहीं, इन सबके बीच हिमालयी क्षेत्र में एक बड़े भूकंप का अंदेशा भी शोध संस्थानों के जरिए जताया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में मांग की गई है कि इन 13 राज्यों में रिहायश, वाहनों की मौजूदगी, पर्यटन, भू और सतह के जल जैसी प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता, खाद्य आपूर्ति, जैव-विविधता, मौसम व जलवायु और भूकंप क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए वहनीय क्षमता का अध्ययन होना चाहिए।

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