आवरण कथा, खतरे में हिल स्टेशन: सीवेज का पानी बढ़ा रहा है पहाड़ी शहरों में आपदा

पर्वतीय शहरों में बाथरूम से निकलने वाला गंदा पानी या शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट जल का प्रबंधन आवश्यक है क्योंकि इससे नाजुक जमीन अस्थिर हो रही है
आवरण कथा, खतरे में हिल स्टेशन: सीवेज का पानी बढ़ा रहा है पहाड़ी शहरों में आपदा
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हर साल पूर्व और पश्चिम दोनों ओर से हिमालयी शहरों में पर्यटकों का तांता लगा रहता है। नाजुक पर्यावरण वाले पहाड़ों पर होटलों और होम-स्टे सुविधाओं की बढ़ती संख्या के कारण न केवल अर्ध शहरी क्षेत्र, कस्बे बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी शहरीकरण की भारी दर देखी जा रही है। उदाहरण के लिए नैनीताल और भीमताल क्षेत्र में प्रति वर्ष करीब 2 लाख आबादी का प्रवेश दर्शाते हैं, जहां इन क्षेत्रों की संयुक्त वास्तविक आबादी 14,000 से कुछ ऊपर है।

इसी प्रकार टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में देवप्रयाग नगर पालिका अपने चरम पर्यटक समय मई से अक्टूबर के दौरान प्रति दिन 2,000 व्यक्तियों का प्रवेश दर्शाती है, जहां वास्तविक जनसंख्या केवल 3,000 है।

इसी तरह से हिमाचल के कुल्लू-मनाली में प्रतिवर्ष 3 लाख से अधिक, उत्तराखंड के जोशीमठ में 5 लाख से अधिक व शिमला में सालाना 76 हजार और दार्जिलिंग में सालाना 8 लाख पर्यटक पहुंचते हैं। पर्यटक यानी अतिरिक्त अस्थायी आबादी की इतनी बड़ी संख्या न सिर्फ क्षेत्र को अस्थिर करती है बल्कि जल स्रोत जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव व स्वच्छता कुप्रबंधन को भी बढ़ाती है।

चरम गर्मियों के दौरान पहाड़ के शहर पानी के संकट और पानी टैंकरों की लड़ाई को लेकर सुर्खियों में रहते हैं। पर्यटकों की अधिक आमद वाले कुछ पर्यटन स्थलों के विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकांश कस्बों में ज्यादातर मामलों में सीवर व्यवस्था नहीं है। मिसाल के तौर पर कुल्लू-मनाली में आंशिक सीवेज नेटवर्क है। इसी तरह से उत्तराखंड के जोशीमठ में 50 फीसदी सीवेज नेटवर्क है और शेष सेप्टिक टैंक व सोकपिट वहां मौजूद है। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में भी शहर में आंशिक सीवेज नेटवर्क है बाकी खुले में शौच अब भी जारी है। यदि हिमाचल के शिमला में स्थिति को देखें तो वहां के सेनिटेशन प्लान से पता चलता है 68 फीसदी आवासीय जनसंख्या को ही सीवेज नेटवर्क से जोड़ा गया है, जबकि शेष आबादी सेप्टिक टैंक का इस्तेमाल करती है और वह गंदा पानी (ग्रे वाटर) सीधा नालों में जाने देती है। करीब यही हाल सिक्किम के गंगटोक का भी है।

त्रुटिपूर्ण शौचालय आपदा को बढ़ाने वाले हो सकते हैं। किस तरह के शौचालय की डिजाइन किस क्षेत्र के लिए उपयुक्त है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। शौचालयों से निकलने वाला गंदा पानी जमीन में रिसता है और झरने के स्रोतों को भी प्रभावित करता है। झरने पहाड़ी क्षेत्र में सबसे प्रचलित जल स्रोत हैं। उदाहरण के लिए नैनीताल और भीमताल झीलें कई वर्षों से विवाद का कारण बनी हुई थीं, क्योंकि झीलों के आसपास के होटलों को झीलों में अपना सीवेज डंप करते देखा गया था।

उत्तराखंड में राज्य का केवल 31.7 प्रतिशत हिस्सा सीवर प्रणाली से जुड़ा है और बाकी केवल ऑन-साइट स्वच्छता प्रणालियों पर निर्भर है। वे अब उत्पन्न होने वाले गंदे पानी के प्रबंधन के लिए सोख्ता गड्ढों को अपना रहे हैं। इसका मतलब यह होगा कि वे अब लाखों लीटर गंदा पानी जमीन में डाल देंगे। इससे ऊपरी मिट्टी और कमजोर हो जाएगी।

शहरीकरण में वृद्धि के साथ-साथ एक और चिंताजनक बिंदु जो प्रकाश में आता है, वह बाथरूम से उत्पन्न होने वाले गंदे पानी की मात्रा है जो पहाड़ियों पर बने कई छोटे होटलों से बेरोकटोक बहता रहता है जो जमीन में रिसकर उसे अस्थिर करता है।

सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, पहाड़ पर बसे शहर में हर व्यक्ति को रोजाना लगभग 70 लीटर पानी की आपूर्ति होती है। हालांकि, कुछ ऐसे भी पहाड़ के शहर हैं जहां पानी जरूरत से कम आपूर्ति किया जा रहा है। जैसे दार्जिलिंग में प्रति व्यक्ति पानी की आपूर्ति 22 से 25 लीटर रोजाना की जा रही है। लेकिन जो चिंताजनक पहलू है वह यह कि पानी आपूर्ति का लगभग 80 फीसदी पानी इस्तेमाल के बाद गंदे पानी (ग्रे वाटर) में बदल जाता है। बाथरूम और किचन से निकलने वाला पानी ग्रे-वाटर कहलाता है। जबकि शौचालय से निकलने वाला पानी ब्लैक वाटर कहलाता है।

अधिकांश पहाड़ी शहरों में गंदा पानी (ग्रे वाटर) खुली नालियों में बह रहा है जो जमीन में समा रहा है और नदियों में भी पहुंच रहा है। उदाहरण के लिए हमीरपुर में स्नानघर और रसोई से गंदा पानी (ग्रे वाटर) सोकपिट में चला जाता है, जो आखिरकार जमीन में पहुंच जाता है। जमीन में पानी के अवशोषण से निस्संदेह मिट्टी की नमी और भूजल भंडार में वृद्धि होगी। लेकिन नीचे की मिट्टी के प्रकार की थोड़ी समझ होनी चाहिए। डाउन टू अर्थ द्वारा विश्लेषण किए गए अधिकांश कस्बों में मिट्टी चिकनी, दोमट या रूपांतरित शिस्ट, फाइलाइट्स और गनीस है। ये सभी या तो ढीली मिट्टी हैं या कमजोर चट्टानें हैं।

इसलिए बाथरूम से निकलने वाला गंदा पानी या शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट जल का प्रबंधन आवश्यक है। इसके साथ ही इस तरह के गंदे जल के प्रबंधन के लिए यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि नाजुक पर्यावरण वाले हिमालय पर किस तरह की सरंचना का निर्माण किया जाए जो त्रुटिपूर्ण न हो। साथ ही चट्टानों और मिट्टी के प्रकार को भी ध्यान रखना अहम हो जाता है। यदि इतनी बड़ी मात्रा में पानी या गंदा पानी जमीन में डाला जाता है, तो मिट्टी भारी नमी से भरी हो जाती है और आसानी से नाजुक हो जाती है। हालांकि, शिमला जैसे शहरों के पास वह आधिकारिक आंकड़े तक नहीं है जिससे वो अपशिष्ट निपटान को लेकर आगे की ठोस योजना बना सके।

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