जरुरत से कहीं ज्यादा तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं देश

पिछले 30 वर्षों में कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसने पर्यावरण को संकट में डाले बिना अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया हो
जरुरत से कहीं ज्यादा तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं देश
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अपनी आबादी की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने की तुलना में देश कहीं ज्यादा तेजी से प्राकृतिक संसाधनों को खत्म कर रहे हैं। गौरतलब है कि इन देशों में भारत भी शामिल है जो अभी भी अपने देश में रहने वाले लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहा है।  यह जानकारी हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ लीडस द्वारा किए एक अध्ययन में सामने आई है जोकि जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित हुआ है। 

यही नहीं अध्ययन से यह भी पता चला है कि पिछले 30 वर्षों में कोई देश ऐसा नहीं है जिसने पर्यावरण को संकट में डाले बिना अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया हो। यदि संपन्न देशों की बात करें जहां रहने वाले देशों के पर्याप्त सुख-सुविधाएं और उन्हें पूरा करने के साधन मौजूद हैं उन्होंने भी अपने हिस्से से कहीं ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है। 

हमें बचपन से यह पढ़ाया जाता रहा है कि प्रकृति द्वारा दिए संसाधन सीमित हैं यदि हम उनका विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वो जल्द ही खत्म हो जाएंगे पर शायद यह बात देशों के नीति-निर्माताओं को नहीं पता है, जो संसांधनों का प्रबंधन उचित तरीके से करने में असमर्थ रहे हैं।  

किसी एक की नहीं, सबकी साझा धरोहर है प्रकृति

यदि इस अध्ययन में शामिल भारत सहित 148 देशों के आंकड़ों को देखें तो अभी भी अमीर और गरीब देशों के बीच इस मामले में असमानता व्याप्त है। एक तरफ अमेरिका, यूके और कनाडा जैसे साधन संपन्न देश हैं जहां बसने वाले लोगों को सभी बुनियादी सुविधाएं तो प्राप्त है पर उन्होंने अपने और प्रकृति के बीच सामंजस्य की जो सीमा है, उसे पार कर लिया है, हालांकि उसकी तुलना में उन्हें उतना सामाजिक लाभ नहीं पहुंचा है। 

जबकि दूसरी तरफ भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालावी जैसे देश है जिन्होंने इस सीमा की मर्यादा को तो बनाए रखा है पर वो अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों जैसे स्वास्थ्य, स्वच्छता, शिक्षा, समानता, ऊर्जा, रोजगार, गरीबी और जीवन संतुष्टि को हासिल करने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं।

शोध के अनुसार यदि विकास की यह जो गति है वो इसी तरह जारी रहती है तो अगले तीन दशकों में भी कोई देश ऐसा नहीं होगा जो अपनी जरूरतों और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकेगा। 

यदि भारत से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो पर्यावरण के जो सात संकेतक चुने गए है उसमें से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में भारत ने निर्धारित सीमा को पार कर लिया है। गौरतलब है कि प्रति व्यक्ति हर वर्ष कार्बन उत्सर्जन के लिए 1.6 टन की सीमा तय की गई है जबकि भारत हर वर्ष प्रतिव्यक्ति 1.7 टन कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। वहीं यदि लोगों की बुनियादी जरूरतों की बात करें तो भारत में सिर्फ रोजगार ही इकलौता ऐसा क्षेत्र है जिसमें उसने निर्धारित सीमा तक विकास किया है। 

बंद करना होगा अनुचित तरीके से संसाधनों का दोहन

शोधकर्ताओं की मानें तो यदि जिस तरह हम संसाधनों का दोहन कर रहे हैं उसमें तत्काल बदलाव न किया तो उसका पर्यावरण पर व्यापक असर पड़ेगा जबकि उसकी तुलना में जीवनस्तर में उतनी तेजी से सुधार नहीं होगा। इस बारे में शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता एंड्रयू फैनिंग ने बताया कि हर किसी को स्वस्थ, सुखी और सम्मान के साथ जीवन बिताने के लिए पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता होती है, लेकिन साथ ही हमें यह भी सुनिश्चित करने की जरुरत है कि वैश्विक संसाधनों का दोहन इतना भी अधिक न हो कि जलवायु और पर्यावरण के विघटन का कारण बन जाएं।

शोध से पता चला है कि 30 साल पहले की तुलना में कहीं ज्यादा देश अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं देने के करीब हैं, जोकि एक अच्छी खबर है। हालांकि समानता और लोकतांत्रिक गुणवत्ता जैसे लक्ष्यों के मामले में हम अभी भी पिछड़े हुए हैं। 

वहीं बुरी खबर यह है कि पहले की तुलना में कहीं ज्यादा देश अब संसाधनों का कहीं ज्यादा तेजी से दोहन कर रहे हैं। चिंता की बात तो यह है कि अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए देश अपने हिस्से के संसाधनों की तुलना में कहीं ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। सीधे तौर पर कहें तो उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए जितने संसाधनों का उपभोग करना चाहिए वो उससे कहीं ज्यादा खर्च कर रहे हैं, जोकि पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है। 

ऐसे में शोधकर्ताओं का मानना है कि संपन्न देशों को अपने संसाधनों की खपत में कमी करने की जरुरत है, जबकि कमजोर देशों को बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कहीं ज्यादा प्रयास करने चाहिए, जिससे उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करा जा सके। देखा जाए तो हमारी मौजूदा आर्थिक प्रणाली लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जगह कुछ रसूकदार लोगों और कॉर्पोरेट के हितों को साधने के लिए संसाधनों का दोहन कर रही है, जिसमें तत्काल बदलाव करने की जरुरत है।     

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