छत्तीसगढ़ रिपोर्टर डायरी - 6: अबूझमाड़ में स्वत: खत्म हो जाएंगे आदिवासी

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित अबूझमाड़ से लौटे डाउन टू अर्थ, हिंदी के एसोसिएट एडिटर अनिल अश्विनी शर्मा की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ रिपोर्टर डायरी - 6: अबूझमाड़ में स्वत: खत्म हो जाएंगे आदिवासी
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बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में सदियों से रह रहे आदिवासियों की जन्म दर कम होने की बात स्थानीय आदिवासियों ने कही है। आदिवासियों का कहना है कि देश की स्वतंत्रता के पिछले आठ दशक के दौरान अबूझमाड़ इलाके को सरकार ने जानबूझ कर बाकी समाज से काट कर रखा। सरकार ने हौआ खड़ा कर दिया कि इस इलाके में जाओगे, तो जिंदा वापस नहीं आओगे। हालांकि सरकार के इस मंसूबे का माओवादियों ने ज्यादा फायदा उठाया, और पिछले पांच दशकों से इस इलाके को अपने कब्जे में रखा।

सरकार जब जागी तब उसे पता चला कि यह इलाका तो खनिजों से भरा पड़ा है। अब सरकार इस इलाके में प्रवेश कर यहां रह रहे आदिवासियों का समूल ही नष्ट कर देना चाहती है। तभी तो इस इलाके की जन्मदर में कमी को उसने अब तक गंभीरता से नहीं लिया है। हालांकि बड़ी संख्या में आदिवासियों का दावा है कि हमारी जनसंख्या धीरे-धीरे कम होते जा रही है और इसके लिए पूरी तरह से सरकार जिम्मेदार है।

अबूझमाड़ के कई गांवों के आदिवासियों का कहना है कि पहले वन विभाग, फिर माओवादी और अंत में पुलिस के अत्याचारों के कारण हमारी जनसंख्या कम होती जा रही है। इस संबंध में आमाटोला गांव के लक्ष्मण मंडावी ने बताया कि 1980 के पहले वन विभाग के कर्मचारी हमारे ग्रामीणों को जंगल से लकड़ी आदि काटने के आरोप में बड़ी संख्या में गिरफ्तार कर अपने साथ ले जाते थे। ये आदिवासी एक से तीन साल तक अपने गांव नहीं आ पाते थे। उनका कहना था कि ज्यादातर युवा ही जंगल जाते हैं और उन्हें पुलिस पकड़ लेती थी।

ध्यान रहे कि पुलिस लकड़ी काटने के जुर्म में नहीं, बल्कि लघुवनोपज एकत्रित करने पर भी उन्हें पकड़ लेती थी। ऐसे हालात में लक्ष्मण का कहना है कि जब युवा ही दो-तीन साल तक जेल में बंद रहेंगे तो वे कहां से बच्चे पैदा कर पाएंगे। जब तक ये वापस आते हैं, इनकी घर की हालत बहुत ही दयनीय हो चुकी होती है। ये किसी तरह का कामधाम करने की स्थिति में नहीं रहते हैं। कारण कि प्रशासन और पुलिस के लोग उन्हें इतना प्रताड़ित करते थे कि उनका आत्मविश्वास ही हिल जाता था। यही नहीं, वन विभाग से छुटकारा दिलाने के नाम पर माओवादी आए, लेकिन उनके आने से पुलिस और माओवादियों के बीच आदिवासी युवा पिसने लगे। बड़ी संख्या में पुलिस आदिवासी युवाओं को मुखबिरी के नाम पर पकड़ती है। वहीं दूसरी ओर माओवादी आदिवासियों को इस बात का भय दिखाते हैं कि पुलिस-प्रशासन से संबंध नहीं रखना है। ऐसे हालात में युवा दोनों ओर से पिसते हैं। ऐसे में वह कहां से बच्चा पैदा कर पाएगा। यह एक प्रक्रिया होती है, जिसके लिए समय चाहिए। स्थिर जिंदगी चाहिए। लेकिन यहां के युवाओं को पुलिस और माओवादियों के दबाव के कारण परिवार बसाने का समय ही नहीं मिलता। ऐसे में धीरे-धीरे हमारे गांवों में जनसंख्या कम हो रही है।  
सरकार की मंशा यही है कि जनसंख्या कम होगी तो इन्हें नियंत्रित करने में आसानी होगी। इस संबंध में बुजुर्ग मंगेड़ू कहते हैं कि सरकार तो चाहती ही है कि हम यहां से भाग जाएं ताकि जंगल खाली हो जाए और वे इसे उद्योगपतियों को दे दें। वे बताते हैं कि सरकार की यह सोची समझी चाल है कि इनकी जनसंख्या कम हो रही है तो उस पर ध्यान न देकर इन आदिवासियों को जितना जल्दी हो सके जंगल से खदेड़ दिया जाए। वे बताते हैं कि हमने सुना है कि हम जिस जमीन पर बैठे हैं, इसके नीचे भारी मात्रा में खनिज संपदा है। इसीलिए सरकार का हर महकमा हमें यहां से भगाने के लिए सदैय प्रयासरत रहता है।

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